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चतुर्थ व्यवहार द्वार जा नाडी वहइ धुवं. तं चरणऽग्गे करेवि चलियव्वं । सिझंति सयलकजं इय लग्गं सयललग्गाणं ॥ ५३
॥इति हंसचार ॥ पडिवट्ठ पुन्निमाऽवम रत्ता तिहि कूर वार भरणिऽद्दा । मह कित्ति विसाहुत्तर -ति सलेसा जत्त इय असुहा ॥ ५४ सय साइ चित्त रोहिणि धण सवंण ति - पुव्व मज्झिमा जत्वा । पुण पुस्स मूल रेवइ मिय कर जिट्टऽस्सिणीऽणुराह सुहा ॥ ५५
॥ इति अधम-मध्यमोत्तमप्रस्थानाः॥ रवि - कुज ति छह दह लाहे बुह - गुर -सुक्का खडत रहिय सुहा । इग छ अडंऽत विणा ससि जत्ता लग्गे ति छायु सणी ॥ ५६
॥ यात्रालग्नम् ॥ .. इय मंडलीय नरवइ पत्थाणे पंच सत्त दह दियहा । पंचसयधणुहमझे दह उवरि ठविज सत्थ - वत्थाई ॥ ५७ रेवइ मूल ति - उत्तर सय साइऽणुराह पुव्वभद्दवया । पुस्सु पुणव्वसु रोहिणि सवणऽस्सिणि हत्थु दिक्खसुहा ॥ ५८
॥तिथिवारनक्षत्रप्रधानाः ॥ दु पण छ रवि दु ति छ ससी कुज ति छ दह बुद्ध ति दु छ पण दहमो। किंद तिकोणे य गुरू सुक्को तिय छ नव बारसमो ॥ ५९ मंदो दु पण छ अडमो सुक्क विणा सव्वि गारहा सुहया ।। चंदाउ कूर सत्तम अइ असुहा दिक्खसमयंमि ॥ ६० रवि ति संसि सत्त दहमो बुहेग चउ सत्त नव गुरू ति छ दो। सुक्को दु पंच सणि तिय मज्झिम सेसा असुह सेसा ॥ ६१
॥ इति दीक्षालग्नकुंडलिका उत्तममध्यमाधमाः ॥ सियपक्खि पडिव बीया पंचमि दह तेर पुन्निमा सुहया । कसिणे पडिव दु पंचमि बिंबपइट्ठाइ सुहवारा ॥ ६२
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