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________________ ठकुर-फेल-विरचित मोती- महारत्नों में मोती का नम्बर दूसरा है। भारतीयों को शायद इस रत्नका बहुत प्राचीनकाल से पता था । मोती को जिसे वैदिक साहित्य में कृशन कहा गया है, सबसे पहला उल्लेख ऋग्वेद ( ११३५।४,१०६८।१) में आता है । अथर्ववेद में वायु, आकाश, बिजली, प्रकाश तथा सुवर्ण, शंख और मोती से रक्षा की प्रार्थना की गई है । शंख और मोती राक्षसों, राक्षसियों और बीमारियों से रक्षा करने वाले माने जाते थे। उनकी उत्पत्ति आकाश, समुद्र, सोना तथा वृत्र से मानी गई है। रत्नशास्त्रों के अनुसार मोतीके आठ स्रोत - यथा सीप, शंख, बादल, मकर और सर्प का सिर, सूअर की दाढ़, हाथी का कुंभस्थल तथा बांस की पोर माने गए हैं। यह विश्वास भी था कि खाती की बूंदें सीपियों में पडकर मोती हो जाती थीं । असुरदल के दांतों से भी मोती बनने का उल्लेख आता है। मोती के उत्पत्ति सम्बन्धी उपर्युक्त विश्वासों की जांच पडताल से पता चलता है कि अथर्ववेद वाली अनुश्रुति से उनका खासा सम्बन्ध है। उसके वृत्रजात मानने से असुरबल वाली अनुश्रुति की ओर ध्यान जाता है । इस तरह हम देख सकते हैं कि मोती सम्बन्धी प्राचीन विश्वासों की जड वैदिक युग तक पहुंच जाती है। __ठकुर फेरू ने भी मोती के उत्पत्तिस्थान, रत्नेशास्त्रों की ही तरह कहे हैं। उसके अनुसार शंखजन्य मोती छोटे, सफेद तथा लाल होते हैं और उनमें मंगल का आवास होता है । मच्छ से उत्पन्न मोती काला, गोल तथा हलका होता है और उसके पहनने से शत्रु और भूत प्रेतों से रक्षा होती है । बांस में पैदा मोती गुंजे के इतने बड़े तथा राज देनेवाले होते हैं । सूअर की दाद से पैदा मोती गोल चिकना और साखू के फल इतना बड़ा होता है । उसको पहननेवाला अजेय हो जाता है । सांप से निकला मोती नीला तथा इलायची इतना बड़ा होता है। उसके पहनने से सर्पोपद्रव, विष, तथा बिजली से रक्षा होती है । बादल में पैदा मोती तो देवता पृथ्वी पर आने ही नहीं देते, गिरने के पहिले ही उन्हें रोक लेते हैं। चिन्तामणि मोती वह है जो बरसते पाणी की एक बूंद हवा से सूख कर मोती हो जाय । सीप के मोती छोटे और मूल्यवान होते है। रत्नशास्त्रों में मोती के आकरों की संख्या भिन्न भिन्न दी हुई है। एक अनुश्रुति के अनुसार आठ आकर हैं तो दूसरी के अनुसार चार । अर्थशास्त्र (३।११।२९) के अनुसार ताम्रपर्णी से निकलनेवाले मोती ताम्रपर्णिक, पांड्यकवाट से पांड्यकवाटक, पाश से पाशिक्य, कूल से कौलेय, चूर्ण से चौर्ण, महेन्द्र से माहेन्द्र, कार्दम से कार्दमिक, स्रोतसि से स्रोतसीय, हद से हृदीय और हिमवत् से हैमवतीय । उपर्युक्त तालिका में ताम्रपर्णिक और पांड्यकत्राटक तो निश्चय मनार की खाड़ी के मोती के द्योतक हैं। ताम्रपर्ण से यहां ताम्रपर्णी नदी का तात्पर्य माना गया है। पांड्यवाट मथुरै है जहां मोती का व्यापार खूब चलता था । पाश से शायद फारस का मतलब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003399
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakkur Feru, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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