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________________ रत्नपरीक्षादि प्रन्थ संग्रह - किंचित् प्रासंगिक पुरातन ग्रन्थमाला द्वारा प्रकट करने की व्यवस्था की और उसी के फल स्वरूप, आज यह ग्रन्थ प्रकाश में आ रहा है । नाहटा बन्धुओं का जो सतत आग्रह न रहता तो मैं इसे प्रकट करने में शायद ही समर्थ होता । अतः इस के संपादन के श्रेयोभागी ये बन्धु हैं। इस संग्रह की प्रेस कॉपी से ले कर ग्रन्थ को वर्तमान रूप देने तक के ग्रुफ वगैरह सब मुझे ही देखने पडे और भाषा एवं अर्थानुसन्धान की दृष्टि से इस के संशोधन में मुझे बहुत श्रम उठाना पडा । इस लिये ग्रन्थ के प्रकाशित होने में अपेक्षा से भी बहुत अधिक समय व्यतीत हुआ। ठकुर फेरू ने अपनी ये सब रचनाएं प्राकृत भाषा में लिखी हैं । पर इस की यह प्राकृत भाषा, शिष्ट और व्याकरण बद्ध न हो कर, एक प्रकार की प्राकृत-अपभ्रंश की चलती शैली वाली भाषा है जिसे हम न शुद्ध प्राकृत कह सकते हैं, न शुद्ध अपभ्रंश ही कह सकते हैं । फेरू के इन ग्रन्थों के जो विषय हैं वे लोकव्यवहार की दृष्टि से बहुत ही उपयोगी और अभ्यसनीय हैं । इस लिये उस ने अपनी रचना के लिये प्राकृत भाषा की बहुत ही सरल शैली का उपयोग करना पसंद किया । उस का लक्ष्य अपने भाव कोविषय के अर्थ को अभिव्यक्त करना रहा है, इस लिये व्याकरण के रूढ नियमों का अनुसरण करने के लिये वह प्रयत्नवान् नहीं दिखाई देता । अपनी रचना के लिये प्राकृत का प्रसिद्ध गाथा छन्द उस ने पसन्द किया है और वह छन्द के नियम का ठीक पालन करने की दृष्टि से, कहीं हर को दीर्घ और दीर्घ को हव रखता है; और कहीं कहीं द्वित्व अक्षर को एकाक्षर के रूप में तो कहीं एकाक्षर को द्वित्व के रूप में भी प्रथित कर देता है । छन्द का भंग न हो इस विचार से वह शब्दों का निर्विभक्तिक रूप तक रख देता है । ग्रन्थकार की इस शैली का ठीक अध्ययन करते करते हमें इस का संशोधन करना पड़ा है। इस लिये हमारा समय भी इस में बहुत व्यतीत हुआ। ___फेरू के इन ग्रन्थों में से 'वस्तुसार' और 'रत्नपरीक्षा' तथा 'धातूत्पत्ति' के कुछ हिस्से के सिवा, और ग्रन्थों की अन्य कोई प्रति उपलब्ध नहीं हुई, अतः उक्त एकमात्र प्रति के आधार पर ही सब पाठनिर्णय करना पडा। साथ में प्रति के लेखक की अशुद्धियों ने भी कुछ परिश्रम बढा दिया। प्रति का लिखने वाला न संस्कृत जानता है न प्राकृत । उस ने कहीं कहीं अपनी भाषा में जो वाक्य लिखे हैं उन पर से उस के भाषाज्ञान का परिचय मिल जाता है। हम ने इस के संशोधन में केवल उतना ही प्रयत्न किया है जिस से अर्थबोध ठीक हो सके, और व्याकरण के नियम के निकट शब्द का रूप रह सके । द्रव्यपरीक्षा, रत्नपरीक्षा और धातूत्पत्ति ये तीन प्रबन्ध लौकिक शब्दों के ऊपर आधारित हैं और इन में के अनेक शब्द ऐसे हैं जो सर्वथा अपरिचित से लगते हैं । इन शब्दों का ठीक खरूप जानने का कोई अन्य साधन नहीं । अतः उन की स्थिति जैसी लिखित प्रति में है वैसी ही रखनी आवश्यक रही। For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003399
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakkur Feru, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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