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चतुर्थ व्यवहार द्वार ' सणि सुक्क राह केऊ रवि कुज रासिक्कि चंदसहिय जुई। बुद्ध - विहप्पइसहियं न हवइ कत्थेव जुइदोसं ॥ १४
॥ इति युतिः ॥ लग्गससि जो नवंसगु जामित्तनवंसगो य जेण गहो। चउवन्न जाव सुद्धं उवरे जामित्त जुइदोसं ॥ १५ ससि लग्ग सत्तमो जइ कूरगहो तं च चयहु जामित्तं । जत्थुभयदिसे कूरा चंदे अह लग्गि गलगहयं ॥ १६
॥ इति यामित्र-गलग्रहो द्वौ ॥ रविरिक्खाउ उवग्गह वजह पंचाट्ट चउ दसऽद्वारं । उणवीसं वावीसं तेवीसइमं च चउवीसं ॥ १७ विजुमुंह सूले असणी केउँको वज कंप॑ निग्घार्य । इय नाम फलं कमसो अटेव उवग्गहाणं च ॥ १८
॥ इति उपग्रहः ॥ एगुड तिरिय तेरस रेहाचकमि विसमजोगिकं । समं जए अडवीसं तयड तुल्लं च सिररिक्खं ॥ १९ सिररिक्खाउ कमेणं अट्ठावीसं ठविज नक्खत्ता । जइ इक्कि रेह रवि -ससि इक्कग्गलु तं वियाणाहि ॥ २०
॥ इति इक्वग्गल । इति लत्तयादिदोसाः॥ सणि पवणु अंसु पायं बुह गुर कलह कुजऽग्गि रवि रत्तं । सुक्केण य संतावं अहिचक्के कित्तियाइ ससिनाडिं ॥ २१
॥ इति अहिचक्रदोषः॥ उदयाओ गय लग्गं संकंतीभुत्तदियह जुयसेयं । तं पंचहा ठवेउं तिहि" रवि दहं ऽ? मुणि सहियं ॥ २२ नवसेसं जत्थ पणं तत्थ फलं कलह अग्नि रायभयं । चोरभयं मिच्चु कमे पइठ-विवाहे य ताऽरिटुं ॥ २३
॥ इति बुधपंचकदोषः॥
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