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________________ ठकुर-फेरू-विरचित अथवा कृष्णल की तौल है । माष पांच गुंजों के बराबर होता था और शाण चार माष के । दाम रूपक अथवा कार्षापण में लगाया गया है। सबसे बडी तौल एक शाण मान ली गई है और कीमत ५३०० रूपक । तौल में हर एक माष बढने पर दाम दुगुना हो जाता था। दूसरे सिद्धान्त में तौल गुंजा, मंजली और कलंज में निर्धारित है । एक कलंज चालीस गुंजों के अथवा चौतीस मंजली के बराबर माना गया है । गुंजा की तौल करीब आधा केरेट तथा कलंज करीब साड़े बाईस केरेट के है । मोती की भारी से भारी तौल दो कलंज मानकर उनकी कीमत ११७११७३ (१) मानी गई है । तौल पर दाम किस आधार पर बढ़ता था, इसका विवरण ठीक तरह से समझ में नहीं आता । सब रत्नशास्त्रों के अनुसार सिंहल में नकली मोती पारे के मेल से बनते थे । नकली मोती जांचने के लिए मोती, पानी तेल और नमक के घौल में एक रात रख दिया जाता था। दूसरे दिन उसे एक सफेद कपडे में धान की भूसी के साथ रगडते थे। ऐसा करने से नकली मोती का रंग उतर जाता था पर असली मोती और भी चमकने लगता था। मानिक-अनुश्रुति के अनुसार पद्मराग की उत्पत्ति असुरबल के रक्त से हुई। मानिक के नामों में पद्मराग, सौगंधिक, कुरुविंद, माणिक्य, नीलगंधि और मांसखंड मुख्य हैं । बुद्धभट्ट के कुरुविंदज; सुगंधिकोत्थ, स्फटिक प्रसूत तथा वराहमिहिर के कुरुविंदभव, सौगंधिभव तथा स्फटिक का शाब्दिक अर्थ जैसे गंधक से उत्पन्न, ईगुर से उत्पन्न स्फटिक से उत्पन्न लिया जाय अथवा नहीं इसमें संदेह है। यह नहीं कहा जा सकता कि रत्नपरीक्षाकार को जिससे दोनों शास्त्रकारों ने मसाला लिया है गंधक, ईगुर और स्फटिक से मानिक की उत्पत्ति के किसी रासायनिक प्रक्रिया का ज्ञान था अथवा नहीं । प्रायः सब शास्त्रों के अनुसार सबसे अच्छा मानिक लंका में रावणगंगा नदी के किनारे मिलता था । कुछ हलके दर्जे के मानिक कलपुर, अंघ्र तथा तुंबर में मिलते थे (बुद्धभट्ट, ११४ वराहमिहिर ८२।१; मानसोल्लास, ११४७३-७४) ठक्कुर फेरू (५५) के अनुसार मानिक सिंहल में रामागंगा नदी के तट पर, कलशपुर और तुंबर देश में मिलते थे। रावणगंगा- ठक्कर फेरू की रामागंगा शायद रावणगंगा ही है। यहां हम पाठकों का ध्यान इब्नबतूता की सिंहल यात्रा की ओर दिलाना चाहते हैं। अपनी यात्रा में वह कुनकार पहुंचा जहां मानिक मिलते थे (गिब्स, इब्नबतूता, पृ० २५६-५७ ) वह नगर एक नदी पर स्थित था जो दो पहाडों के बीच बहती थी । इब्नबतूता के अनुसार (मौलवी मुहम्मदहुसेन, शेख इब्नबतूता का सफरनामा । पृ० ३३८-३९ लाहोर १८९८) इस शहर में ब्राह्मण किस्म के मानिक मिलते थे। उनमें से कुछ तो नदी से निकलते थे और कुछ जमीन खोदकर । इब्नबतूता के वर्णन से यह भी पता चलता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003399
Book TitleRatnaparikshadi Sapta Granth Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakkur Feru, Agarchand Nahta, Bhanvarlal Nahta
PublisherRajasthan Prachyavidya Pratishthan Jodhpur
Publication Year1996
Total Pages206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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