Book Title: Na Janma Na Mrutyu
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Pustak Mahal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ न जन्म ना मृत्यु Finanimatert aiORIES आत्मा से आत्मा के बीच सार्थक वार्ता पुस्तकमहल Jan Education International sonal & Prival use o आष्टावक्र गीता' पर अमृत प्रवचन Ewww.jainelibrary org Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जन्म, न मृत्यु 'अष्टावक्र-गीता' पर दिए गए अमृत प्रवचनों का संकलन 'अष्टावक्र-गीता' मनुष्य की उस अन्तर्दष्टि को खोलना चाहती है, जहां जाकर आदमी अपने वास्तविक सुख, स्वास्थ्य, आनंद और प्रकाश का स्वामी बनता है। अगर द्रष्टि को स्वस्थ बनाना है, तो दृष्टि को स्वच्छ करो, सदा गुणग्राही और सर्वदर्शी बने रहो।। 'अष्टावक्र-गीता' उन लोगों के लिए अमृत वरदान है, जिनके अंतःकरण में आत्मज्ञान की तीव्र अभिलाषा है। 'अष्टावक्र-गीता' के माध्यम से हम सभी अन्तर्जगत की गहराई में उतरते जा रहे हैं। ... इसी पुस्तक से For Personal & Private Use Only Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री चन्द्रप्रभ की आत्म-विकास पर श्रेष्ठ पुस्तकें __ जिएं तो ऐसे जिएं जिएं तो हमारी सोच और शैली में छिपा है जीवन की हर सफलता का राज़। इसी राज़ को व्यावहारिक जिए तथा आध्यात्मिक तौर-तरीके के साथ उदघाटित किया गया है इस पुस्तक में। यह विश्वासों, मान्यताओं और मूल्यों को सकारात्मक बनाने का एक सार्थक प्रयास। हिरी लक्ष्य बनाएं, पुरुषार्थ जगाएं जीवन में सफलता के शिखर पर पहुंचाने वाली प्रकाश किरण से ओत-प्रोत एक विशिष्ट पुस्तक। आध्यात्मिक-पुरुष के चिंतन एवं अनुभवों द्वारा व्यावहारिक दिशा निर्देश। ये उदबोधन राह भी दिखाएं तथा कठिनाइयों को दूर करने में सहायता करें। पुस्तक महल की पुस्तकें देश-भर के रेलवे, रोडवेज तथा अन्य प्रमुख बुक स्टॉलों पर उपलब्ध हैं। अपनी मनपसंद पुस्तकों की किसी भी नजदीकी बुक स्टॉल से मांग करें। यदि न मिलें, तो हमें पत्र लिखें। हम आपको तुरंत वी.पी.पी. द्वारा भेज देंगे। पुस्तक महल की पुस्तकों की निरंतर जानकारी पाने के लिए विस्तृत सूची-पत्र मंगवाएं या हमारी वेबसाइट देखें www.pustakmahal.com For Personal & Private Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जन्म, न मृत्यु 'अष्टावक्र गीता' पर दिए गए अमृत प्रवचनों का संकलन श्री चन्द्रप्रभ R पुस्तक महल दिल्ली • मुंबई • बंगलोर • पटना • हैदराबाद For Personal & Private Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लिए प्रकाशक पुस्तक महल, दिल्ली-110006 विक्रय केन्द्र • 6686, खारी बावली, दिल्ली-110006, फोन: 23944314, 23911979 • 10-बी, नेताजी सुभाष मार्ग, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 फोन: 23268292, 23268293, 23279900 • फैक्स: 011-23280567 E-mail: rapidexdelhi@indiatimes.com प्रशासनिक कार्यालय J-3/16 (हैप्पी स्कूल के सामने), दरियागंज, नई दिल्ली-110002 फोन: 23276539, 23272783, 23272784 • फैक्स: 011-23260518 E-mail: info@pustakmahal.com • Website: www.pustakmahal.com शाखा कार्यालय बंगलोर : 22/2, मिशन रोड (शामा राव कम्पाउंड), बंगलोर-560027 फोन: 2234025 • फैक्स: 080-2240209 E-mail: pustak@sancharnet.in • pmblr@sancharnet.in मुंबई : 23-25, जाओबा वाडी (वी.आई.पी. शोरूम के सामने), ठाकुरद्वार, मुंबई-400002, फोन: 22010941 • फैक्स: 022-22053387 E-mail: rapidex@bom5.vsnl.net.in पटना : खेमका हाउस, पहली मंजिल (वूमेन्स हॉस्पिटल के सामने), अशोक राजपथ, पटना-800004 • टेलीफैक्स: 0612-2673644 E-mail: rapidexptn@rediffmail.com हैदराबाद : 5-1-707/1, ब्रिज भवन, बैंक स्ट्रीट, कोटी, हैदराबाद-500095 फोन: 24737530 • फैक्स: 24737290 E-mail: pustakmahalhyd@yahoo.co.in कॉपीराइट सर्वाधिकार पुस्तक महल, 6686, खारी बावली, दिल्ली-110006 I.S.B.N.81-223-0842-2 चेतावनी भारतीय कॉपीराइट एक्ट के अंतर्गत इस पुस्तक के तथा इसमें समाहित सारी सामग्री (रेखा व छायाचित्रों सहित) के सर्वाधिकार “पुस्तक महल" के पास सुरक्षित हैं। इसलिए कोई भी सज्जन इस पुस्तक का नाम, टाइटल डिजाइन, अंदर का मैटर व चित्र आदि आशिक या पूर्णरूप से तोड़-मरोड़ कर एवं किसी भी भाषा में छापने व प्रकाशित करने का साहस न करें, अन्यथा कानूनीतौर पर वे हर्जे-खर्चे व हानि के जिम्मेदार होंगे। -प्रकाशक प्रथम संस्करण : जुलाई, 2003 Printed at: Unique Color Carton, New Delhi 110064 For Personal & Private Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व स्वर. स्वतंत्रता मनुष्य की अंतरतम, निगूढ़तम आकांक्षा है। कारागृह की कल्पना मात्र ही कंपित कर देने वाली होती है। सब कुछ पाकर भी पराधीन हैं, तो वह पाना अर्थहीन है। पराधीनता, यानी एक सीमा-रेखा और स्वतंत्रता, यानी असीम, सीमाओं रहित उन्मुक्त आकाश। स्वतंत्रता का विशुद्धतम रूप ही मोक्ष है। मोक्ष, यानी संपूर्ण मर्यादाओं से, सुख-दुःख से, जप-तप, नियम सबसे मुक्त। तब न पाप है, न पुण्य, न स्वर्ग, न नरक, न जन्म, न मृत्यु। अष्टावक्र रचित गीता मुमुक्ष आत्माओं के लिए एक पावन सौगात है। इसका ध्येय मात्र यही है कि व्यक्ति अपने आंतरिक प्रकाश को उपलब्ध करे। अष्टावक्र की प्रेरणाओं को श्री चन्द्रप्रभ जी ने अत्यंत प्रभावी रूप से हमारे सम्मुख रखा है। 'अष्टावक्र-गीता' महज महर्षि अष्टावक्र और राजर्षि जनक के बीच संवाद नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ जी कहते हैं कि यह उन लोगों के लिए अमृत वरदान है, जिनके अंतःकरण में आत्मज्ञान की तीव्र अभिलाषा है। यह वह धर्मशास्त्र है, जो मनुष्य को देह-भाव से उपरत करते हुए उसे आत्मज्ञान पूर्वक जीवन जीने का भाव देता है। यह प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति न करने का बोध देता है। श्री चन्द्रप्रभ जी यह भी कहते हैं कि हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जिसमें आदमी के पास प्रसन्नता और प्रमुदितता कम है, पीड़ा और अन्तर्व्यथा ज्यादा है। मुस्कान के भीतर छिपी पीड़ा इतनी गहन हो चुकी है कि अब ध्यान ही आशा की किरण है। अष्टावक्र के सूत्र ध्यान की प्रेरणा हैं, रूपांतरण का आह्वान हैं। ये छोटे-छोटे सूत्र अंतर्जगत के परिवर्तन और जागरण के लिए क्रांति-बीज हैं। कृष्ण की गीता में जहां समन्वय का गहरा आग्रह है, वहीं ‘अष्टावक्र-गीता' में सत्य की अधिक चिंता है। इसी वजह से अष्टावक्र की गीता सत्य का For Personal & Private Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शुद्धतम वक्तव्य है और इसमें व्याख्या-टीका की संभाव्यता न्यूनतम है। ऐसे में श्री चन्द्रप्रभ का यह उद्बोधन हम सबके लिए वरदान है। उन्होंने इस सत्य को समय सापेक्ष रूप देकर और जनोपयोगी बना दिया है। 'अष्टावक्र-गीता की यह अनूठी यात्रा निश्चय ही जन्म और मृत्यु से अतीत जीवन को समझने के लिए नव दृष्टि प्रदान करेगी। -सोहन For Personal & Private Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंदर के पृष्ठों में साक्षित्व का सूर्योदय भेद-विज्ञान की पहल आत्मज्ञान का अहोभाव अंतर्दृष्टि की कसौटी भोग भी, योग भी 23 त्याग हो देह-भाव का 49 55 63 स्थितप्रज्ञ की स्थिति संसार में खिले समाधि के फूल निर्द्वन्द्व होने की कला ओ रे मन, अब तो विश्राम कर परिस्थितियों के प्रति निरपेक्षता 70 78 85 विक्षेपों पर विजय 92 97 101 मालिक बनें मन के समझ उन्नत दशा की विषय-विरसता ही मोक्ष सत्य स्वयं में समाहित मुक्त चेतस् की अहोदशा 108 111 ... 118 For Personal & Private Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सौजन्य-संविभाग श्री जबरमल जी जांगिड़ की स्मृति में श्रीमती तुलसी देवी, जुगलकिशोर, जगदीश, रामेश्वर, शत्रुघ्न जांगिड़, जोधपुर गीता भवन, जोधपुर में दिए गए, अमृत प्रवचन 20 मार्च से 5 अप्रैल, 1998 For Personal & Private Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साक्षित्व का सूर्योदय शाज से हम सभी एक अनूठी तीर्थ यात्रा के लिए अपने कदम बढ़ा रहे हैं। जा यह एक ऐसी यात्रा है, जिसे किए बिना आदमी सदैव ही अपूर्ण है। यह तीर्थ-यात्रा धरती का कोई स्थापित पवित्र स्थल नहीं है, वरन् धरती के हर डगर पर जलता हुआ चिराग है और वह चिराग व्यक्ति स्वयं है। स्वयं की रोशनी में जीना, स्वयं के तीर्थ की यात्रा करना, जीने और तीर्थाटन करने का श्रेष्ठ उपक्रम है। स्वयं की तीर्थ-यात्रा करके हम बाजार में भी जाएंगे, तो बाजार भी परमात्मा का मंदिर हो जाएगा। आत्मवंचित होकर अगर मंदिर भी गए, तो मंदिर जाना भी बाजार में भटकना होगा। इस अनूठी तीर्थ-यात्रा के लिए हमें कहीं जाना नहीं होता, वरन् जहां हम हैं, केवल वहीं स्थितप्रज्ञ होना होता है। दृष्टि को अंतर-वैभव की ओर ले जाना होता है। हमें दुनिया भर के हजारों-हजार तीर्थ याद हो आए हों, मगर स्वयं का तीर्थ ही अनजाना-अपरिचित रहा। हमने चंद्रलोक की यात्राओं के लिए लंबी-चौड़ी कल्पनाएं की हैं, पर अपना अंतरलोक तो अछूता रहा। आज से हम ऐसे तीर्थ की ओर कदम बढ़ाएं, जो स्वयं में समाहित महालोक है। हमें पहले अपने आपको उन शिखरों से नीचे उतारना होगा, जिन पर हम जन्मों-जन्मों से बैठे रहे हैं। हर आदमी किसी-न-किसी शिखर पर बैठा है। कोई अहंकार के मदमाते हाथी पर बैठा है, तो कोई माया और प्रपंच के टीले पर; कोई क्रोध और उत्तेजना की टेकरी पर बैठा है, तो कोई विषय-वासना के पर्वत पर। हमारी यात्रा किसी शिखर की यात्रा नहीं है, वरन् शिखरों से नीचे उतरने की पहल है, अहं के मदमाते हाथी से नीचे उतरने की। यहां पहले उतरना है, फिर मान-सरोवर में स्वयं को निमज्जित करना है। यह मानसरोवर स्वयं के अंतर्मन का है, स्वयं की अंतरात्मा का है। इस तीर्थ यात्रा में तीर्थ भी हम ही हैं और तीर्थकर भी हम ही। ऐसी तीर्थ-यात्राएं धरती पर तब-तब घटित होती रहेंगी, जब-जब धरती पर अष्टावक्र जैसे महर्षि और जनक जैसे सुपात्र साकार होते रहेंगे। For Personal & Private Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हर व्यक्ति के अंतर-हृदय में जनक का जन्म हो। केवल अष्टावक्र ही पैदा हो जाए, जनक साकार न हो, तो अष्टावक्र का ज्ञान उन्हीं तक सीमित रह जाता है। अगर जनक न जन्मे, तो 'अष्टावक्र-गीता' जन्म ही नहीं लेगी। हजारों-हजार अष्टावक्र पैदा क्यों न हो जाएं, उनके ज्ञान की संसार के लिए कोई सार्थकता नहीं है। उनका ज्ञान उनके साथ ही चला जाएगा। कहा जाता है कि कबीर अपने हाथ में जलती हुई कंदील लेकर बाजार में शिष्य की खोज में घूमा करते थे। अंधेरी रात में नहीं, दिन के उजाले में लालटेन लेकर शिष्य की खोज! अब भला कबीर जैसे महामनीषी का शिष्य कौन नहीं बनना चाहेगा! तुम तो उन्हें गुरु के रूप में पूजने को उद्यत हो, मगर वे तुम्हारा शिष्यत्व स्वीकारने को तैयार नहीं। शिष्य वह होता है, जिसमें सीखने की सुपात्रता घटित हो गई है। जनेऊ धारण करने भर से कोई शिष्य नहीं हो जाता; पगड़ी बांध लेने भर से कोई सिक्ख नहीं हो जाता। जिसमें शिष्यत्व घटित हो जाता है, जिसमें सीखने की असीम उत्कंठा जाग्रत हो गई है, वही सिक्ख है, वही शिष्य है। जनक इस कसौटी पर खरे उतरे। नतीजतन जनक आत्मज्ञान के 'जनक' सिद्ध हुए। जनक राजा और परम विद्वान हैं, यह विचार करके अष्टावक्र ने उन्हें अपना शिष्य नहीं बनाया, वरन् जनक में पात्रता की पूर्णता देख कर संतुष्ट होने के उपरांत ही अपना शिष्य स्वीकार किया; आत्मज्ञान का आलोक प्रदान करने के लिए तैयार हुए। एक विचित्र घटना का उदघाटन ही अष्टावक्र के गरुत्व और जनक के शिष्यत्व का उत्पत्ति-केंद्र बना। अष्टावक्र कहोड़ ऋषि के पुत्र थे। उन्हें मालूम हुआ कि राजा जनक की राजसभा में तत्त्वज्ञान और आत्मज्ञान के बारे में कई दिनों से शास्त्रार्थ चल रहा था। महीनों बीत गए, मगर शास्त्रार्थ किसी नतीजे पर नहीं पहुंच पा रहा था। यही देखने अष्टावक्र राजा जनक की सभा की ओर चल पड़े। अप्टावक्र राजसभा में पहुंचे। उनके आगमन ने सबका ध्यान खींचा। अष्टावक्र-नाम से ही जाहिर है कि उनके आठ अंग मुड़े हुए थे, टेढ़े-मेढ़े थे। अगर आदमी एक पांव से पंगु हो, तो भी ध्यान उसकी ओर चला जाता है, जबकि अष्टावक्र तो आठ अंगों से विकलांग थे। सभी का ध्यान उनकी ओर जाना स्वाभाविक था। अष्टावक्र को देखकर विद्वान, दरबारी, राजा-सभी हंस पड़े। उनको हंसता देखकर अष्टावक्र भी जोरों से खिलखिला उठे । राजा जनक विस्मयपूर्वक अष्टावक्र को देखने लगे। जनक ने अष्टावक्र से पूछा-संत अष्टावक्र, मेरे मन में एक प्रश्न है। यहां सभा में उपस्थित हर व्यक्ति तुम्हारी देह-रचना पर हंसा, मगर तुम्हें किस बात पर हंसी आई ? मैं यह जानने के लिए बेचैन हूं। अष्टावक्र गंभीर हो गए। उन्होंने कहा-मैं तो यह सोचकर आया था कि मैं महाज्ञानी राजा जनक की राजसभा में हो रहे शास्त्रार्थ में जा रहा हूं, लेकिन यहां आकर तो लगा कि यह तो चर्मकारों की सभा है। 10 For Personal & Private Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र का जवाब राजा जनक के गले नहीं उतरा। राजा ने अष्टावक्र से कहा- संतप्रवर, आपने इस सभा को 'चर्मकारों की सभा' कहा है । क्या आप हमारी इस शंका का समाधान करेंगे कि आपने ऐसा क्यों कहा? अष्टावक्र ने कहा- राजन, मनुष्य के दो आंखें होती हैं । एक आंख भीतर की होती है और दूसरी बाहर की; एक चर्म-दृष्टि, दूसरी अन्तर्दृष्टि । यहां चर्चा चल रही है आत्मज्ञान की, पर सभी की अन्तर्दृष्टि बंद है। सभी बाह्य आंखों से देख रहे हैं। तभी तो आप सबको मेरी बाहरी कुरूपता ही दिखाई दी और चमड़ी को देखने का कार्य तो चर्मकारों का है। जनक ने तन्मयता से अष्टावक्र की बात को सुना। उनकी आंखों में प्रसन्नता की एक तरंग दौड़ गई। वे तत्काल खड़े हुए और सम्मानपूर्वक अष्टावक्र को सभा में स्थान प्रदान किया। उन्होंने अष्टावक्र से प्रश्न किया - संतप्रवर, कृपया हमारा मार्गदर्शन करें कि आत्मज्ञान क्या होता है? मैंने शास्त्रों में पढ़ा है कि व्यक्ति को आत्मज्ञान मात्र उतने ही समय में उपलब्ध हो जाता है, जितना समय उसे पागड़े पर, रकाब पर, पैर रखकर घोड़े पर सवार होने में लगता है । इस तथ्य में कितनी सच्चाई है ? राजा जनक की बात सुनकर अष्टावक्र मुस्कराए और कहा- राजन, आपने आत्मज्ञान से संबंधित जिज्ञासा को घोड़े के दृष्टांत से जोड़कर जानना चाहा है। चलिए, आप घोड़े पर सवार होकर वन में चलिए। वहीं एकांत में आपका समाधान करूंगा । जनक अष्टावक्र के साथ चल दिए । रास्ते में जनक ने प्रश्नों की बौछार कर दी-ज्ञान कैसे होता है; वैराग्य कैसे होता है; मुक्ति कैसे होती है ? अष्टावक्र ने राजा जनक के सभी प्रश्नों को धैर्यपूर्वक सुना और कहा- राजन, आप विद्वान हैं, आपने शास्त्रों का अध्ययन किया है । आप ही बताइए, आपने इनके बारे में क्या पढ़ा, क्या जाना? राजा जनक ने कहा- पूज्यवर, मैंने पढ़ा था कि आत्मज्ञान दो क्षण में घटित होगा । अष्टावक्र ने पूछा- आत्मज्ञान किसे घटित होगा? जनक ने कहा- जिसमें पात्रता होगी, उसी में आत्मज्ञान घटित होगा। अष्टावक्र ने फिर प्रश्न किया - पात्रता किसमें होती है ? जनक ने जवाब दिया- जिसमें अहंकार नहीं होता, जिसमें पूर्ण समर्पण तथा पूर्ण निष्ठा होती है, उसी में पात्रता घटित होती है । अष्टावक्र ने राजा जनक से अंतिम प्रश्न पूछा- राजन, आपने कहा कि पात्रता उसी में घटित होती है, जो निरहंकार है । आप इस कसौटी पर कितने खरे हैं ? आप अपने में क्या अहंकार - रहित दशा पाते हैं? कहा जाता है कि तब राजा जनक ने आत्मनिरीक्षण के लिए अपनी आंखें मूंद लीं और तीन दिनों बाद अपनी आंखें खोलीं। तब राजा जनक केवल राजा नहीं रहे, वे राजर्षि जनक हो चुके थे। उसी क्षण अष्टावक्र के सूत्र निष्पन्न हुए, गीता साकार हुई । 11 For Personal & Private Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र-गीता सत्य का अद्भुत शास्त्र है। सत्य का शुद्धतम वक्तव्य! सत्य और अध्यात्म का ऐसा नवनीत और कहां मिलेगा। ऐसा संवादमूलक, इतना प्रैक्टिकल सत्य का शास्त्र! पढ़ने-सुनने मात्र से सत्य की गहराई तक ले जाता है। इसने सत्य के सर्वोच्च शिखर को छुआ है। अंतरात्मा के मानसरोवर में जी भर स्नान करवाया है। सबके बीच रहते हुए, सबके साथ जीते हुए सबसे उपरत होने का राजमार्ग दिया है। यहां केवल बोध पर्याप्त है। भोग बाधक है, पर भोग अबोध-दशा के कारण होता है। बोध जग जाए, तो भोग भी योग का सेतु बन सकता है। अष्टावक्र-गीता को तर्क से नहीं समझा जा सकता। आत्म-दृष्टि हो, मुक्ति की वास्तव में ही मुमुक्षा हो, तो ही अष्टावक्र-गीता हमारी जीवन-गीता बन पाएगी। बीज आत्म-दृष्टि है, बीज मुक्ति की मुमुक्षा है। जैसा बीज होगा, तरुवर वैसा ही फलेगा। इस महागीता के सूत्र तो हमारे लिए नौका की तरह हैं, जो पार लगाते हैं हमें अज्ञान से। ज्ञान-दशा तो चेतना का स्वभाव है। बस, केवल अज्ञान का कोहरा छंट जाए, अज्ञान की कारा कट जाए। जनक-सी मुमुक्षा जग जाए। मेरा तो जीवन मरुथल है, यदि तुम आओ तो सावन हो।। ऐसा रूठा मधुमास कि फिर आने का नाम नहीं लेता। ऐसा भटका है प्यासा मन, क्षण-भर विश्राम नहीं लेता। मेरा तो लक्ष्य अदेखा है, तुम साथ चलो तो दर्शन हो ॥ अब तुम न तुम्हारी आहट कुछ, शकुनों की घड़ियां बीत चलीं। त्योहार प्रणय का सूना है, फुलझड़ियां हैं सब रीत चलीं। मेरा तो यज्ञ अधूरा है, तुम साथ चलो तो पूजन हो । उलझी अलकें, भीगी पलकें, खो बैठा है परिचय मेरा। शंका से देख रही दुनिया, क्षण-क्षण, जीवन-अभिनय मेरा। 12 For Personal & Private Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेरी साधे अभिशापित हैं, यदि तुम छू दो तो पावन हो ॥ यदि तुम वीणा के तार कसो, यह गायक मन गंधर्व बने। तुम ही यदि साथ रहो तो फिर, हर पल जीवन का पर्व बने। हर आह मधुरतम गायन हो, हर आंसू फिर मधु का कण हो ॥ मेरा तो जीवन मरुथल है, यदि तुम आओ तो सावन हो ॥ काश, तुम्हारा स्नेह मिल जाए, तुम्हारा संस्पर्श मिल जाए, तो लोहा फिर लोहा कहां रहेगा! लोहा पारस को छूकर सोना बनेगा ही। अतीत में कोई जनक कंचन हुआ, आज फिर स्वर्णिम प्रभात हो। आज फिर अंतर-शून्य में कोई गंधर्व-गीत फूटे। कोई विहग उड़ान भरे। अष्टावक्र-गीता आत्मज्ञान से निर्झरित ऐसा ही कोई गीत है, अमृत का मंगल कलश है। हमें उन्मुक्त हृदय से इसे पीना है, जीना है, घट-घट में व्याप्त महागीता को जन्म देना है। अब हम उतरते हैं अष्टावक्र-गीता में। आज का पहला सूत्र है मुक्तिमिच्छसि चेत्तात, विषयान् विषवत्त्यज । क्षमा वदयातोषं, सत्यं पीयूषवद् भज ॥ मेरे प्रिय, यदि तू मुक्ति चाहता है, तो विषयों को विष के समान छोड़ दे और क्षमा, आर्जव, दया, संतोष तथा सत्य को अमृत के समान सेवन कर। अष्टावक्र हर धार्मिक व्यक्ति को पहली चुनौती यह दे रहे हैं कि यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो इसकी ठोस पड़ताल कर लो। तुम सचमुच मुक्ति की आकांक्षा रखते हो अथवा तुम्हारी कामना सतही है। ऊपर-ऊपर ही मुक्ति की बातें करते हो, तो नतीजा वही होगा, जो उस हाथी का होता है, जो रोज-ब-रोज तालाब में जाकर स्नान करता है, मगर अपने संस्कारों के कारण जैसे ही वह पानी से बाहर आता है, अपनी ही सूंड से अपनी ही पीठ पर मिट्टी डालने लग जाता है। इसलिए अपने आप से पहले ईमानदारी से पूछ लेना कि 'क्या मैं मुक्ति चाहता हूं?' कहते हैं- भगवान महावीर के पास एक ब्राह्मण पहुंचा। उसने कहा-प्रभु, आप सब जीवों को मुक्ति और मोक्ष की प्रेरणा देते हैं। यदि सारे जीव मुक्त हो 13 For Personal & Private Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए, तो ये सब जाएंगे कहां? क्या स्वर्ग और उसके ऊपर का लोक उनके लिए छोटा नहीं पड़ जाएगा? महावीर ने कहा-ब्राह्मण, मैं तुम्हें तुम्हारे प्रश्न का समाधान दूंगा, मगर उससे पहले तुम्हें मेरा एक काम करना होगा। तुम्हें आज सारे शहर में जाकर यह कहना होगा कि भगवान सबकी इच्छा पूरी करेंगे, जिसकी जो इच्छा हो, उसको कागज पर लिखकर दे दे। भगवान के आदेश की पालना के लिए ब्राह्मण पूरे शहर में घूमा और सांझ को उनके पास पहुंचा। वह सारी-की-सारी सूची भगवान को पढ़कर सुनाने लगा कि अमुक आदमी की मकान की अभिलाषा है, अमुक ने पुत्र मांगा है। उसने पूरी फेहरिस्त सुना दी। मगर आश्चर्य! एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं था, जिसने मुक्ति मांगी हो। __ आदमी को मुक्ति की दरकार नहीं है। पिंजरे का पंछी पिंजरे में रहने का आदी हो चुका है। उसे उड़ने के लिए बाहर निकालो, तो वह और ज्यादा सिमटने लगता है। तुम आदमी को ज्यों-ज्यों विषयों से मुक्त करने के उपदेश देते रहोगे, वह उतना ही उनके प्रति आसक्त होता चला जाएगा। यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो अप्टावक्र के अनुसार पहली शर्त यही है कि बस, सावचेत हो विपयों से। विषय का ही संक्षिप्त रूप विप है और विष का ही विस्तृत रूप विषय है। विप से ही विषय बना है। जो आदमी दिन-रात, थोड़े-थोड़े घूट ही सही विषयों को पी रहा है, वह विष-पान ही कर रहा है। अगर तुम मोक्ष चाहते हो, तो विषयों को विप समझकर त्याग दो और मुमुक्षा को जाग्रत करो। मुमुक्षा शब्द से ही मोक्ष निर्मित हुआ। मुमुक्षा अगर नींव है, तो मोक्ष उसका आकाश है। मोक्ष को उपलब्ध करना हो, तो मुमुक्षा से जुड़ना होगा। उस चिंतन और मनन के लिए, जिसका संबंध आत्मवोध, आत्मज्ञान और संबोधि के साथ है, उस मुमुक्षा को गहरा करें। भोगों के प्रति रहने वाली आसक्ति का त्याग ही वैराग्य है। अष्टावक्र ने पांच सोपान बताए हैं-क्षमा, आर्जव, दया, संतोष और सत्य । पहला सोपान है क्षमा-क्षमा अमृत है और क्रोध विप है; दूसरा सोपान है आर्जव अर्थात सरलता-सरलता अमृत है. कुटिलता विप है; तीसरा सोपान है दया-दया अमृत है, तो क्रूरता विष है; चौथा सोपान है संतोष-संतोप अमृत है, तो संग्रह विप; पांचवां सोपान है सत्य-सत्य अमृत है, तो झूठ विप है। क्रोध, कुटिलता, क्रूरता, संग्रह और झूठ-ये तुम्हारे जहर हैं। ये पांच जहर पीने का अभ्यास छोड़ो और अमृत का सेवन करो। अगर तुम अमृत होना चाहते हो, चिन्मय होना चाहते हो, तो मृण्मय से बाहर आओ; अगर ज्योति होना चाहते हो, तो दीये के मोह को छोड़ो; जिसकी दृष्टि दीये पर अटक गई, वह मिट्टी था और मिट्टी हो गया और जिसकी दृष्टि लो पर जाकर टिक गई, वह स्वयं ज्योतिर्मय हो गया। 14 For Personal & Private Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगला सूत्र है न पृथिवी न जलं नाग्निर्न, वायुॉर्न वा भवान् । एषां साक्षिणमात्माम, चिद्रूपं विद्धि मुक्तये ॥ अष्टावक्र कहते हैं-तू न पृथ्वी है, न जल है, न अग्नि है, न आकाश है और न वायु है। मुक्ति के लिए अपने आपको इन सबका साक्षी-रूप चैतन्य जान। ध्यान और योग में गहरे उतरने का यह एक बेहतरीन सूत्र है। किसी भी व्यक्ति को यदि ध्यान करना है, तो वह केवल इतना-सा जाने कि मैं न पृथ्वी हूं, न जल हूं, न आकाश हूं, न अग्नि हूं और न ही पवन। मैं इन पंचमहाभूतों से भिन्न केवल साक्षी चैतन्य आत्मा हूं। जब तुम पृथ्वी नहीं हो, तो पृथ्वी पर पैदा होने वाला अनाज तुम्हारा कैसे हो गया; पृथ्वी की सारी संपदाएं तुम्हारी कैसे हो सकती हैं। परिवार-समाज में व्याप्त संबंध तुम्हारे कैसे हो सकते हैं? पिता को अहंकार है कि यह मेरा बेटा है। वह यह मानने को तैयार नहीं है कि वह तो केवल माध्यम भर है। भला आत्मा को कोई जन्म दे पाया है ? तुम देह को जन्म दे सकते हो, आत्मा को नहीं। मेरा कहकर तुम केवल ममत्व-बुद्धि को आरोपित कर रहे हो। आदमी सांसारिक, भौतिक जगत में उलझा रहता है। उसकी स्थिति अपने घर में बने मकड़जाल में उलझी हुई मकड़ी-सी होती है। वह मकड़जाल तुम्हारे लिए पहला शास्त्र, पहला आगम है, वशर्ते तुम उसे पढ़ पाओ। न पृथ्वी है, न वायु है, न जल है, तो तू क्या है? क्या देह तुम्हारी है? तुम्हारी है, तो इसे श्मशान में फूंकने क्यों जाते हो, जिस पर तुम्हें इतना नाज है? एक छोटी-सी हड्डी टूट जाए, तो उसे जुड़ने में छः महीने लग जाते हैं, मगर प्रकृति को देखो कि जब पंचमहाभूत आपस में मिलते हैं, तो मात्र नौ महीनों में हड्डियों का एक ऐसा ढांचा खड़ा हो जाता है कि कौतूहल पैदा करता है। वह ढांचा, वह काया बनती है, फिर बिखर जाती है। ठीक ऐसे ही कि जैसे माटी का दीया पहले माटी था, सिमटा, दीया हुआ, ज्योत जली और फिर माटी माटी में समा गई। ज्योति तो तमस् की भी साक्षी ही रहती है। अष्टावक्र कहते हैं कि अपने आपको साक्षी चैतन्य रूप ही जान! अपने साक्षित्व को, अपने आत्मभाव को, अपने दृष्टाभाव को हम प्रकट करते चले जाएं और देखते चले जाएं कि देह मुझसे भिन्न है। अपने आपको सबसे अलग देखने का नाम ही सजगता है, साक्षित्व है। पहला चरण है-शरीर । शरीर के भीतर विचार, विचारों की गहराई में भाव और भावों की गहराई में हमारी अपनी आत्मा, अपनी चेतना रहती है। चेतना पर सूक्ष्म एवं स्थूल परतें चढ़ी हुई हैं। भावों, अनुभावों, विचारों, विकल्पों, वृत्तियों की परतों पर अंतिम 15 For Personal & Private Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पटल है-काया के प्रति ममत्व की। तुम किस-किस से उभरोगे, किस-किस को त्याग पाओगे? त्याग के नाम पर एक समय का भोजन और कुछ धन का त्याग कर देने मात्र से बात नहीं बनेगी। अपने आपको केवल बाह्य क्रिया-कांडों में मत उलझाओ, क्योंकि ये सब चीजें चर्मदृष्टि हैं और आत्मदृष्टि में तो केवल एक ही सूत्र काम आता है-मैं ये सब कुछ नहीं हूं। जब मैं ये सब चीजें हूं ही नहीं, तो फिर किसका त्याग करूं, किसे ग्रहण करूं! या तो सारा संसार मेरा है या फिर संसार का कोई भी तत्त्व मेरा नहीं है। संत तोयो के जीवन की एक बहुत प्यारी सी घटना है। घटना उनके बचपन की है, जब वे संत मुकराई के शिष्य थे। संत मुकुराई के पास कई दिग्गज विद्वान-शिष्य पढ़ने के लिए आया करते थे। वे वहां ध्यान-योग, मुक्ति-वैराग्य का अभ्यास करते। एक दिन बाल संत तोयो ने अपने गुरु मुकुराई से कहा-भंते, मैं भी उस समाधि को पाना चाहता हूं, जिसका ज्ञान आप दूसरों को दिया करते हैं। मुकुराई ने कहा-तोयो, अभी तुम बहुत छोटे हो । थोड़े बड़े हो जाओ, फिर बताऊंगा, मगर तोयो ने अत्यंत आग्रह किया कि भंते, मुझे भी इस महामार्ग पर चलने का अवसर दें, तब संत मुकुराई ने अंततः स्वीकृति दे दी। अगले दिन तोयो अपने गुरु के कक्ष में पहुंचा और प्रणाम करके शालीनतापूर्वक मौन होकर बैठ गया। मुकुराई ने चुप्पी तोड़ी और कहा-तोयो, तुमने अब तक उस ताली की आवाज तो सुनी होगी, जो दोनों हाथों के संयोग से ही बजती है। अब तुम खोज करो, उस ताली की जो एक हाथ से बजती हो, एक हाथ से उत्पन्न आवाज! तोयो यह सुनकर चकित था, फिर भी उसने सहर्ष स्वीकृति दे दी और वहां से चला गया। तोयो अपने कक्ष में पहुंचा, तो उसे वाद्ययंत्र का स्वर सुनाई दिया। यह एक हाथ से बजने वाला वाद्ययंत्र था। उसके चेहरे पर खुशी छलक आई। उसे उम्मीद नहीं थी कि अपनी समस्या का समाधान इतनी जल्दी मिल जाएगा। अगले दिन वह गुरु के पास पहुंचा और वह वाद्ययंत्र बजाकर सुनाया। गुरु ने कहा-नहीं, वाद्ययंत्र नहीं। और खोज करो। तोयो नए उत्साह से फिर उसी काम में जुट गया। तोयो ध्यान में बैठा था। तभी उसे कहीं से पानी की बूंदों के टपकने की आवाज सुनाई दी। वह दौड़ा-दौड़ा गुरु के पास पहुंचा और वृत्तांत बताया, मगर गुरु ने इंकार कर दिया। फिर उसने हवा की सरसराहट, टिड्डी-समूह के उड़ने से उत्पन्न आवाज और भी न जाने कितनी-कितनी आवाजों की जानकारी गुरु मुकुराई को दी, लेकिन हर बार गुरु ने मना कर दिया। 16 For Personal & Private Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक हाथ से उत्पन्न आवाज! अब तोयो को यह बात असंभव लगने लगी थी। उन्हीं क्षणों में शायद संत मुकुराई ने तोयो से कोई सूत्र कहा, जैसे अष्टावक्र ने जनक से कहा था-न तू पृथ्वी है, न जल है, न वायु है, न अग्नि है और न आकाश है। तू अपने आपको केवल साक्षी चैतन्य-रूप जान और तब पौ फटने से पहले ध्यानस्थ तोयो को वह आंतरिक प्रकाश, वह स्वर-रहित स्वर उपलब्ध हो चुका था। उसने जान ही लिया कि यही आवाज ही वह आवाज है, जिसकी कोई आवाज नहीं। ओह. मैं केवल साक्षी चैतन्य भर हूं। शेष, सबके बीच रहते हए, सबसे निःशेष हूं। प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति नहीं करता। इतना गहरा सूत्र! जब मैंने इस सूत्र को पढ़ा, मेरा रोम-रोम रोमांचित हो उठा, आनंद से अभिभूत हो उठा। हां, मैं कुछ नहीं, कुछ नहीं। संपूर्णतः शून्य, परिपूर्ण चेतना। अष्टावक्र-गीता मार्ग-रहित मार्ग है, द्वार-रहित द्वार है, सरोवर-रहित सरोवर है। मृत्यु के भय से छूटने के लिए, सत्य का बोध और आनंद का वरदान पाने के लिए यह शास्त्रों में पूर्णिमा का चांद है। नीले आकाश में खिला पूर्णिमा का चांद! अंतर-हृदय के द्वार खोलें और उन्मुक्त हृदय से नहाएं इस चांदनी में, शांत-सानंद दशा में। 17 For Personal & Private Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेद-विज्ञान की पहल अष्टावक्र-गीता आत्मा से आत्मा के बीच का सार्थक संवाद है। जिस तरह प्यासी धरती की प्यास बुझाने आसमान से बादल बरसते हैं; रात के अंधकार को हरने के लिए तारे प्रकाश बिखेरते हैं, वैसे ही अंतस् की प्यास बुझाने के लिए अष्टावक्र-गीता है। प्रकाश की प्यास ही ज्योति से ज्योति के संस्पर्श का कारण बनती है, ऐसा ही अष्टावक्र का आत्मसंवाद है। यह वह संवाद है, जिसको सुनते-सुनते जनक आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए; जिसको पढ़ने मात्र से ही एक अलग तरह की खुमारी छा जाती है। वस्तुतः ये सारे संवाद आत्मप्रकाश को उपलब्ध करवाने वाले छोटे-छोटे प्रकाश पुंज हैं, लघु संकेतक हैं। ये संवाद हम सभी के लिए बादल से बरसी हुई फुहारें हैं, जल-बूंदें हैं। बूंद की सार्थकता तभी है, जब वह उचित स्थान पर गिरे, सही पात्र का स्पर्श प्राप्त करे। यदि धरती पर गिरती है, तो धल में मिल जाती है; केले के पत्ते पर गिरकर कपूर को उत्पन्न करती है; गरम लोहे पर गिरकर अपना अस्तित्व मिटा डालती है; सर्प के मुंह में गिरकर विष बन जाती है; सर्प के मस्तक पर गिरकर मणि का रूप धारण कर लेती है। वही बूंद कमल की पंखुड़ी पर गिरकर ओस का रूप धर लेती है; सीप के मुख में समाकर मोती बन जाती है; समंदर में मिल विराट सागर का रूप ले लेती है। ये आप पर निर्भर है कि आप किस तरह की पात्रता करते हैं। जो केवल मोती तक रुक गया, वह संसार में आया और यहीं अटक गया, किंतु जो विराट सागर की ओर बढ़ गया, वह स्वयं सागर हो गया। जैसी हमारी पात्रता होगी, बूंदें वैसा ही सार्थक-निरर्थक परिणाम देंगी। ‘अष्टावक्र-गीता' के संदेश इस बात की पहचान करवाना चाहते हैं कि तुम कौन हो? तुम्हारे जीवन का मूल स्रोत क्या है ? तुम्हारा वर्तमान क्या है और तुम्हारा अतीत क्या रहा? क्या तुम अपने भविष्य में अतीत की पुनरावृत्ति चाहते हो अथवा प्रकाश से आप्लावित होना चाहते हो? आदमी निश्चय ही अज्ञान के सघन आवरण से घिरा है, जिसके कारण वह इन मूलभूत प्रश्नों से अनजाना है। तभी तो वह नहीं जानता कि वह कौन है, कहां से आया है? आज आप प्रौढ़ हैं, तो कभी युवा 18 For Personal & Private Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और बालक भी रहे होंगे, लेकिन शिशु रूप से पहले क्या थे? क्या मृत्यु ही जीवन का समापन है? जिनकी दृष्टि मृत है, उन लोगों के लिए मृत्यु के साथ जीवन का समापन हो जाता है; शरीर के जलने के साथ जीवन की लीला खत्म हो जाती है। जिन्हें अन्तर्दृष्टि उपलब्ध है, वे जानते हैं कि मृत्यु तो जीवन का एक पड़ाव है, एक पटाक्षेप है । जिस तरह नाटक के दृश्यान्तरण के लिए कुछ क्षणों के लिए पर्दा गिरा दिया जाता है, उसी तरह मृत्यु भी 'परदे का गिरना' ही है । सांप सैकड़ों दफ़ा केंचुली बदलता होगा, लेकिन इससे वह स्वयं नहीं बदल जाता । मनुष्य अमृतधर्मा सत्य का स्वामी है, चिर नूतन यात्री है, जो दुनिया के हजारों-हजार परिवर्तनों के बावजूद अपरिवर्तित रहता है। जो नहीं बदलता है, वह मैं हूं। मैं वह हूं, जिसको सौ-सौ बार चिता पर जला दिया जाए, मगर फिर भी नहीं जलता; सैकड़ों दफ़ा जल में डूबो दिया जाए, तो भी नहीं डूबता । T 'अष्टावक्र गीता' न किसी क्रिया के अनुपालना की प्रेरणा देती है और न ही किसी समाधि के अनुष्ठान का संदेश देती है । इसके पास केवल एक ही संदेश है-ज्ञान का। यह जानने का, बोध, मुक्ति और चैतन्यता का मूलमंत्र देती है । क्रियाओं का कोई गंतव्य नहीं होगा । क्रियाओं में उलझा आदमी कोल्हू के बैल की तरह है, जो मीलों चलकर भी वहीं का वहीं है । व्रत, जप, तप, करोड़ों का दान करके भी आदमी के मन की आसक्ति, चित्त में क्रोध- कषाय की ग्रंथियां यथावत कायम हैं। राग-द्वेषमूलक तंतु अब भी टूटे नहीं हैं । अष्टावक्र कहते हैं - बात सधेगी ज्ञान से, बोध से । बच्चे को समझाओ कि बेटा, आग को हाथ मत लगाना, मगर बच्चे के समझ में नहीं आता । जबकि उसकी अंगुली भूल से आग का स्पर्श कर ले, तो वह आजीवन उस अनुभव को याद रखता है । अनुभव - दशा में उतरने के लिए 'अष्टावक्र गीता' के सूत्र कल्याणकारी होंगे। आज का सूत्र है 1 यदि देहं पृथक्कृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि । अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥ अर्थात यदि तू देह को पृथक् कर चैतन्य में विश्राम कर स्थित हो जाएगा, तो अभी ही सुखी, शांत और बन्ध-मुक्त हो जाएगा । जनक ने अष्टावक्र से तीन प्रश्न किए - ज्ञान कैसे होता है ? वैराग्य कैसे होता है ? और मुक्ति कैसे होती है ? समाधान-रूप में अष्टावक्र द्वारा कहा गया हर सूत्र अनुपम है। अष्टावक्र कहते हैं - प्रश्न न सुख का है, न शांति का है और न मुक्ति का है। प्रश्न तुम्हारी देह से मुक्ति का है। देह तो प्रकृति से प्राप्त अनुपम उपहार है । इसे पाकर घमंड और अभिमान मत कर। जब तक देह को अपने से भिन्न देखते रहोगे, तब तक तुम्हारे पास तुम्हारा साक्षित्व रहेगा और जैसे ही देह और 19 For Personal & Private Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मा के बीच तादात्म्य भंग हुआ, हम देह में रहते हुए भी विदेह हो जाएंगे। देह मृण्मयधर्मा रह जाएगी, मगर चेतना अमृतधर्मा हो जाएगी। कृष्ण तो गीता में कहते हैं- नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न तुम काटे जा सकते हो, न तुम जलाए जा सकते हो; न तुम्हारा जन्म है, न मृत्यु। किसी की मृत्यु पर अज्ञानी आदमी कहता है कि वह मर गया, मगर ज्ञानी आदमी की दृष्टि में न कोई जन्मता है और न ही कोई मरता है, केवल दृश्यों का परिवर्तन भर होता है। देह को देह मानो इसमें कोई हर्ज नहीं, मगर इसके प्रति आसक्ति किसी भी रूप में अनुचित है। देह के प्रति आसक्त कोई भी व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता। तुम धर्म के मार्ग पर भी कदम रखोगे, तो वहां भी देह की रागात्मक वृत्ति के कारण संसार की ही कामना करोगे। तभी तो अष्टावक्र आवाह्न करते हैं कि यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो विषयों को विष के समान छोड़ दो। देह के साथ चलो, मगर ऐसे चलो कि यह न लगे कि मैं चल रहा हूं, बल्कि यह लगे कि देह चल रही है, मैं तो देह के चलने के बावजूद स्थिर हूं। बोलता हूं, तो वाणी बोलती है, मैं तो मौन हूं। भूख लगती है, तो शरीर को लगती है, मैं भूखा थोड़े ही हूं। मैं इन सबका साक्षी भर हूं। महावीर ने ध्यान की एक बहुत अच्छी पद्धति दी, जिसको उन्होंने कायोत्सर्ग कहा। कायोत्सर्ग का इतना ही अर्थ है कि काया का उत्सर्ग कर देना, काया के भाव का त्याग कर देना और आत्मस्थिर हो जाना। अगर कोई महावीर के कायोत्सर्ग को समझना चाहता है, तो केवल अष्टावक्र के सूत्र को समझ ले कि यदि तू देह को अपने से पृथक कर चैतन्य में विश्राम कर स्थिर है, तो तू अभी भी सुखी, शांत व बंधन-मुक्त है। जीसस को सलीब पर लटकाया गया, मंसूर के हाथ काट दिए गए, सुकरात को जहर दे दिया गया। अगर इन सभी में देह का भाव होता, तो ये सब इन कष्टों को, इन पीड़ाओं को नहीं सह पाते। इसलिए दुनिया में अगर कोई छोड़ने जैसी चीज है, तो वह देह के प्रति राग, देह की आसक्ति है और ग्रहण करने योग्य चीज तुम्हारी अपनी आत्मा, अपनी चेतना है। केवल दो बातें सदैव स्मरण रखो-अपने आपको देह से पृथक देखो और चेतना में विश्राम करो, मगर ऐसा होता नहीं। आदमी जन्म लेता है, मरता है, फिर जन्म लेता है, फिर मरता है। यह सिलसिला चलता रहता है। हर जन्म में काम की उलझन उसे उलझाए रखती है; काम के संस्कार छूट नहीं पाते। ___ निष्काम वह है, जो देह-भाव से उपरत होने में सफल हुआ। देह-भाव को जो जीत पाया, वह जिनत्व की ओर, जितेन्द्रियता की ओर बढ़ा। अध्यात्म का, 20 For Personal & Private Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्म-विज्ञान का यही सार है कि प्रथम दृष्टया देह-भाव से मुक्ति और दूसरे चरण में आत्मभाव में स्थिति । स्वयं की शांत-सौम्य मनःस्थिति में ही आत्मभाव की स्थिति संभावित है। इस आत्मभाव को प्राप्त व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं। कहते हैं- भगवान बुद्ध जंगल के बीच से गुजर रहे थे। वे बीच जंगल में पहुंचे, तो पहाड़ी पर चढ़ा हुआ डाकू अंगुलीमाल चिल्लाया-ऐ भिक्षु, एक कदम भी आगे मत बढ़ाना। मैंने संकल्प किया है कि मैं एक हजार अंगुलियां काटकर देवी को उसकी माला चढ़ाऊंगा। अब मुझे केवल एक ही आदमी की जरूरत है। अंगुलीमाल की बात सुनकर बुद्ध मुस्कराए और आगे बढ़ गए। अंगुलीमाल ने पास आते हुए फिर चेतावनी दी-ठहर जा भिक्षु। बुद्ध ने कहा-मैं तो ठहरा हुआ ही हूं। तू बता, तू कब ठहरेगा। आत्म की गहराई से निकले बुद्ध के शब्दों ने अंगुलीमाल की चेतना को झनझना के रख दिया। उसने नजर ऊपर उठाई, बुद्ध की आंखों में झांका, कैसा अद्भुत सम्मोहन था कि उसने जो तलवार बुद्ध को मारने के लिए उठाई थी, वह बुद्ध के चरणों में सौंप दी। अंगुलीमाल डाकू न रहा, भिक्षु अंगुलीमाल हो चुका था। जीवन में साधुता का जन्म हो चुका था। व्यक्ति जिनत्व और समर्पण की ओर अपना कदम बढ़ा चुका था। बुद्ध ने मानो अष्टावक्र के सूत्र को स्वयं में पुनरुज्जीवित किया था। यह सूत्र आज फिर हमारे जीवन में चरितार्थ होना चाहिए-एक और बुद्ध के जन्म के लिए। अगला सूत्र है एको दृष्टोसि सर्वस्य, मुक्तप्रायोसि सर्वदा। अयमेव हि ते बन्धो, दृष्टारं पश्यसीतरम् ॥ अर्थात तू एक सबका दृष्टा है। सर्वदा मुक्त है। तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़कर दूसरे को दृष्टा देखता है। जनक पूछना चाहते हैं, बंधन क्या है और संबोधि को कैसे उपलब्ध हुआ जाए? प्रत्युत्तर में अष्टावक्र यह नहीं कहते कि तुम्हारा परिवार तुम्हारे लिए बंधन है। वे यह भी नहीं कहते कि तुम्हारा संसार, जमीन-जायदाद, राजमहल तुम्हारे बंधन हैं। वे तो कहते हैं कि तुम्हारा बंधन यही है कि तुम अपने को छोड़कर दूसरे को अपने दृष्टा के रूप में देखते हो। आदमी सोचता है, दूसरे लोग मुझे देख रहे हैं; वे मुझे क्या कहेंगे; वे मेरे बारे में क्या सोचते होंगे? नतीजतन भीतर की दमित वृत्तियां भीतर-ही-भीतर दबती चली जाती हैं। फ्रायड कहता है कि दमन ही दुख का कारण है। दुनिया के पास देने के नाम पर केवल आलोचनाएं हैं। तुम दुनिया के कहे अनुसार अपने जीवन की आधारशिलाएं मत रखो। दुनिया को तो जब तक तुमसे स्वार्थ होगा, तब तक गलत को भी सही ही कहेगी। यह दुनिया तो उस बंदरिया की तरह है, जो अपने बच्चे को अपने कंधे पर बिठाए रखती है और जब पानी 21 For Personal & Private Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी नाक तक आ जाता है, तो वह बच्चे को पानी में फेंककर स्वयं उस पर खड़ी हो जाती है। बेहतर होगा, आदमी अपना दृष्टा खुद बने। मनुष्य मात्र की मनोस्थिति तो यह है कि कोई भी दृष्टा होना नहीं चाहता, बस दृश्य होना चाहता है, अपने आपको सजा-संवार कर रखना चाहता है। क्षण-प्रतिक्षण मृत्यु करीब आती जा रही है, मगर आदमी इससे बेपरवाह है, जीवन-घट बूंद-बूंद कर रिसता चला जा रहा है, मगर आदमी को कोई सुध नहीं है। बीस साल का तरुण और अस्सी साल का वृद्ध समान रूप से विकृत हैं, कोई बोध नहीं। मैंने सुना है कि दशरथ के सिर में एक बाल सफेद आ गया, तो वे वैराग्यवासित हो गए। यहां तो सारे-के-सारे बाल सफेद हो जाएं, तो भी चिंता की हलकी-सी शिकन भी चेहरे पर नहीं; वही बेहोशी, वही मूर्छा। __ एक आदमी अपने हाथों से कई-कई दफा लाशों को जलाकर आ चुका है, मगर उसे तो अब भी लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं। वह अपने मौलिक दृष्टाभाव को उपलब्ध नहीं हो पाता। उसके पास तो स्वयं भगवान भी आ जाएं, तो वे भी उसे जगाने में नाकाम रहेंगे। दूसरी तरफ बुद्ध थे, जो सूक्ष्मता में निहित सत्य को ढूंढ लेते हैं। एक गर्भवती स्त्री को देखकर जन्म लेने की पीड़ा उन्हें दहला देती हैं, रोगी और वृद्ध व्यक्ति को देखकर वे करुणा और फिर भय से भर उठते हैं और एक मृत व्यक्ति की अर्थी से इस तरह विचलित होते हैं कि राज्य, सत्ता और सभी भोग-विलासों को तत्काल त्याग कर उस सत्य की खोज में निकल पड़ते हैं, जहां न दुख है, न जरा है, न मृत्यु । अष्टावक्र कहते हैं कि तुम दर्शक नहीं, दृष्टा बनो। दर्शक वह है, जो दूसरों को देखता है और दृष्टा वह है, जो स्वयं अपने आपको निहारता है। जब व्यक्ति की दृष्टि दूसरे से हटकर स्वयं पर केंद्रित होती है, तो व्यक्ति दृष्टाभाव को उपलब्ध होता है, यही ध्यान है। देखने वाले को देखना ही ध्यान है, उसे उपलब्ध होना ही मुक्ति है। मैं कर्ता नहीं, दृष्टा हूं; विमल विशुद्ध बोध हूं, साक्षी चैतन्य भर! बस, यह सजग दशा पर्याप्त है। ___ अष्टावक्र हमें वह संदेश, वह संकेत देना चाहते हैं, जिसके जरिये आदमी बोधदशा को उपलब्ध होता है। इसी का नाम 'संबोधि-ध्यान' है। सम्यक् बोधपूर्वक जीना ही संबोधि-ध्यान है। तुम जीवन में ऐसे जीयो कि देह चले, मगर तुम स्थितप्रज्ञ रहो। नतीजा यह होगा कि अगर तुम्हारे जीवन में परम वेदना के क्षण भी आएंगे, तो तुम उनसे भी अपने आपको अलग देखोगे। तब तुम्हारे शरीर के द्वारा भोग-उपभोग भी होगा, तो तुम उससे अलग रहोगे; तुम अनासक्त जीवन को जीओगे, ठीक ऐसे ही जैसे कीचड़ में कमल की पंखुड़ियां खिला करती हैं। भगवान करे कमल घर-घर खिले, घर-घर कमल की सुवास फैले। आज के लिए इतना ही निवेदन है। 22 For Personal & Private Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मज्ञान का अहोभाव हर्षि अष्टावक्र को अपने सुपात्र शिष्य के लिए जितना कुछ अपूर्व घटित करना । था, वे अपनी ओर से घटित कर गए। आत्मबोधि और आत्मस्मृति से पूर्ण वह स्वर्णिम और प्रसाद से भरा हुआ ऐसा अनुपम अवसर था कि सम्राट जनक आत्मज्ञान की आभा से अभिमंडित हो गए। उनकी आंखों से आत्मज्ञान की आभा अभिव्यक्त होने लगी। किरणों के रथ पर चलकर रोज सूरज आता है, मगर आज के सूर्योदय में बात कुछ अलग थी। चांद की चांदनी भी कहीं अधिक दूधिया, कहीं अधिक शीतल थी। कुछ ऐसी खुमारी थी कि किसी को दो बूंद पानी की जरूरत हो और उसे पूरी भागीरथी ही उतरती दिखाई दे। जैसे राह भटके राहगीर को अचानक मंजिल नजर आ जाए। __ आदमी जन्म-जन्म तक पुण्यों की सौगात पाता है, तब कहीं जाकर किसी सद्गुरु का संयोग मिलता है। जन्म-जन्म तक किसी पात्र में उंडेलने का प्रयास हो, तो जनक जैसा सुपात्र मिलता है। सुपात्र, यानी जो पात्र रिक्त है और अपात्र, यानी जो पात्र पूरित है, भरा हुआ है। अहंकारी व्यक्ति कभी सुपात्र नहीं हो सकता। अहंकार के शिखर पर बैठा इनसान किसी पेड़ का ठूठ हो सकता है, शीतल छांव देने वाला तरुवर नहीं। वह व्यक्ति गड्ढा हो सकता है, सरोवर नहीं। आत्म-रूपांतरण घटित हो चुका है। अब तो जनक ऐसे ही नाच उठे हैं, जैसे कभी मीरा नाची थी; जैसे कभी चैतन्य महाप्रभु के पांव थिरके थे। अब तक उन्हें किसी गुरु के रूप में आईने की तलाश थी और आज आईना मिल गया। अब तो लगता है कि अष्टावक्र नहीं बोलेंगे, वरन् जनक के भीतर का गुरु-तत्त्व बोलेगा; जनक की वीणा होगी, मगर झंकार अष्टावक्र की होगी। पात्र खाली हो, तो उसे भरा जा सकता है, मगर पात्र पूरी तरह भरा हो, तो उसमें और नहीं उंडेला जा सकता। पहाड़ों पर बरसा पानी पहाड़ों पर नहीं थमता। पानी तो वहीं ठहरता है, जहां शून्य होता है। ठीक वैसे ही अष्टावक्र का आत्मज्ञान जनक के अंतःकरण में जाकर स्थित हुआ और जनक ‘महर्षि जनक' होकर मोह, वासना, तृष्णा-सबसे उपरत हो गए, आत्मज्ञान के प्रकाश से ओत-प्रोत हो गए। 23 For Personal & Private Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनक के जीवन से असत् का, अज्ञान का, आसक्ति का संसार स्वतः विलीन हो गया। अंधकार स्वतः तिरोहित हो गया। स्वयं में समाहित ज्ञान का दीप जल उठा। वे प्रतिष्ठित हो गए स्वयं की आत्म-सत्ता में। मोह-ममता, अहं-आकांक्षा वैसे ही दूर हो गए, जैसे किसी का भ्रम दूर हो जाता है, जैसे किसी की आंख खुल जाती है, जैसे किसी चातक की प्यास पूरित हो जाती है। जैसे कोई ओनामी जाग उठता है। ___ओनामी अपने समय का एक शक्तिशाली पहलवान! जब वह अपने अखाड़े में उतरता, तो अपने गुरुओं को भी पछाड़ देता, जिनसे उसने कुश्ती के दांव-पेच सीखे थे, लेकिन दंगल में उतरता, तो अपने ही शिष्यों से शिकस्त खा जाता। वह उलझन में फंस गया। ओनामी अपने ही समय के ज़ेन संत हाकुजू से मिला। हाकुजू ने कहा-तुम तो सागर में उठती महातरंग हो। आओ, मेरे साथ बैठो और ध्यान में उतरो। ध्यान में उतरकर तुम अपने आप को महातरंग के रूप में देखो। ओनामी ने वैसा ही किया। वह ध्यान में उतरा। पहले पहल तो मन कुछ और सोचता रहा, मगर जैसे-जैसे उसका ध्यान स्थिर होता चला गया, वैसे-वैसे उसने देखा कि उसके भीतर एक महान् तरंग उठ रही है। उसने देखा कि जिस मंदिर में वह बैठा है, उसकी प्रतिमा भी उसी महान तरंग की चपेट में आ गई और उसको भी वह महातरंग अपने साथ बहा ले गई। तरंग उठती चली गई। सारा संसार उसी तरंग की चपेट में आ रहा है और यह तरंग ऐसे ही सबको लीलती चली जा रही है। सागर में उठने वाली तरंग, जो बड़े-बड़े जहाजों को निगल जाया करती है, उससे भी कहीं अधिक भयावह थी यह महातरंग। अगली सुबह जब हाकुजू ने ओनामी को देखा, तो लगा कि उसके चेहरे पर एक अलग ही आभा है, एक अलग ही मुस्कान है, आत्मविश्वास से भरी मुस्कान। उसे यह जानते देर नहीं लगी कि ओनामी का ध्यान सध गया है। उस दिन के बाद तो पूरे जापान में ओनामी के मुकाबले का कोई दूसरा पहलवान नहीं हुआ। जैसे ओनामी की महातरंग में बड़े-बड़े सूरमा परास्त हो गए, वैसे ही जनक के जीवन में जब आत्मज्ञान की महातरंग आविर्भूत हुई, तो संस्कारों और वासनाओं के जहाजों को ऐसे लील गई, जैसे कुछ था ही नहीं। जब कोई व्यक्ति आत्मज्ञान की संपदा से अभिभूत हो जाता है, तो उसके आनंद की कोई सीमा नहीं रहती। जो व्यक्ति सीमा के भीतर असीम को देख ले, क्षण के भीतर शाश्वतता को निहार ले, काया के भीतर कायनात का दर्शन कर ले, उसकी खुशी का अंदाजा लगाया जा सकता है? रोम-रोम रस झरेगा, अंग-अंग से आत्मज्ञान की आभा फूटेगी। ऐसे ही असीम आनंद से जनक ओत-प्रोत हो 24 For Personal & Private Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गए हैं। वे अहोभाव से, कृतज्ञता से अभिभूत हैं। आंखों में उनके आर्द्रता है। हृदय में नीरवता और आनंद-दशा है। वे बोध-दशा में निमग्न हैं। उनके भीतर जो कुछ हुआ, कैसे हुआ, यह वे भी नहीं जानते। जो हुआ गुरु की सन्निधि से हुआ। पत्ता भी नहीं हिला और विस्फोट हो गया। घाव भी नहीं हुआ और शल्य-क्रिया पूर्ण हो गई। मोह-माया से वैसे ही मुक्त हो गए, मानो किसी ने पुराने कपड़े उतार दिए हों, सांप से केंचुली उतार दी हो। राजर्षि तो आत्म-विभोर दशा में हैं। आज के संदेश अष्टावक्र के संदेश नहीं हैं, वे तो जनक की प्राप्त की गई अनुभूतियां हैं। इन अनुभूतियों के बाद जो शब्द फूटे, जो उन्मनी अवस्था उभरी, ये सूत्र उन्हीं के संकेत हैं। आज का सूत्र है अहो निरंजनः शान्तो, बोधोहं प्रकृतेः परः। एतावन्तमहं कालं, मोहेनैव विडंबितः ॥ जनक कहते हैं-अहो मैं निरंजन हूं, निर्दोष हूं, शांत हूं, बोध हूं, प्रकृति से परे हूं, किंतु आश्चर्य है कि मैं इतने काल तक मोह द्वारा ठगा गया। एक मुमुक्षु आत्मा को जब अपना आत्मबोध होता है, आत्मबोध की निर्मल निर्झरिणी उमड़ती है, तो वह उसमें नहाकर खिल उठती है। तब आदमी के जन्म-जन्मांतर के संस्कार क्षण में तिरोहित हो जाते हैं। इसी आनंद में भीगकर एक मुमुक्षु आत्मा कह रही है कि मैं निर्दोष, बोध और शांत हूं; मैं प्रकृति से भी परे हूं। एक आश्चर्य भी है कि मैं लगातार मोह के द्वारा ठगा जाता रहा। जब तक अज्ञान था, अबोध-दशा थी, तब तक तो जानते थे मैं अशांत हूं, दोष और पापों से भरा हूं। तब तक लगता था कि मैं शरीरधर्मा हूं, लेकिन जैसे ही ज्ञान का प्रकाश फूटा, सारा अंधकार कहीं दुबक गया। अंधकार कितना भी सघन क्यों न हो, प्रकाश के आगे वह टिक नहीं पाता। जैसे-जैसे आदमी ज्ञान के प्रकाश के साथ आगे बढ़ता है, जीवन का तमस् अपने आप दूर होता चला जाता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि एक ज्ञानी आदमी अपने ज्ञान से जान रहा है कि मैं तो पूरी तरह शांत, पवित्र और शुद्ध रहा, मगर मोह की उलझन मुझे उलझाए रही। माया की गांठ ही कुछ ऐसी थी, आसक्ति के बंधन ही कुछ ऐसे थे कि मैं अपने आपको नहीं जान पाया। जाना, अब तक औरों को जाना। उस जानने को जानना कैसे कहें, जहां व्यक्ति सबको जानते हुए भी स्वयं को न जान पाए। स्वयं ही अनजाना, अनदेखा है। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, अपने आपको देखें, अपने आपसे पलायन न करें। अगर लगता है कि भीतर पशु बैठा है, तो उसको पहचानें और लगता है कि भीतर इनसान है, ईश्वर है, तो उसे भी पहचानें। 25 For Personal & Private Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम्हें लगता है कि तुम्हारे भीतर क्रोध, अहंकार और द्वेष की ग्रथियां हैं, वासना और विकार की ग्रंथियां तुम्हें परेशान करती हैं, तो तुम कब तक पलायन करते रहोगे? जब भी भीतर झांकोगे, यह सब प्रतिबिंबित होगा ही। बहुत हो गया बाहरी पढ़ना। अब तो हमें अपनी ही आत्मकथा पढ़नी होगी। ध्यान में बैठकर अपने ही भीतर देखो कि हमारे विचारों में क्या-क्या कचरा उमड़कर आता है। अच्छा या बुरा-जो भी विचार मन में आए उसे एक पन्ने पर लिखते जाओ। ईमानदारी से दो सप्ताह तक यह लिखते जाओ। फिर पंद्रह दिन बाद अपनी इस आत्मकथा को पढ़ो। वह आत्मकथा गांधी की आत्मकथा से कहीं अधिक उपयोगी साबित होगी। वह तुम्हारे जीवन में नवीन क्रांति का सूत्रपात करेगी, परिवर्तनों की पुरवाई लेकर आएगी। नए जीवन का सूत्रपात होगा। यह मत समझो कि अष्टावक्र वक्ता थे, तो जनक वहां केवल श्रोता भर थे। सुनने वाले तो अष्टावक्र को बहतेरे मिले होंगे, बहुतेरे मिल जाते, क्योंकि श्रोताओं की कमी न तब थी और न अब है। श्रोता कई किस्म के होते हैं-एक, जो सुनते-सुनते सोते हैं; दूसरे, जो सुनते-सुनते सरोते-सा व्यवहार करते हैं कि कब-कैसे-किस बात को काटा जाए; तीसरे, जो वास्तव में सुनते हैं, लेकिन सुनते भर हैं; चौथे, जो सुनने के साथ-साथ मनन भी करते हैं और पांचवें, वे श्रोता, जो सुनते-सुनते उसको भी सुनने लग जाते हैं, जो सुनने वाला है और जनक ऐसे ही श्रोता थे। मुक्त भाव से ग्रहण करने वाले ऐसे सुपात्र श्रोता दुर्लभ हैं, तो मुक्त हृदय से देने वाले अष्टावक्र जैसे ब्रह्मर्षि भी नसीब से मिलते हैं। यह अनूठा संयोग, अनुपम उपक्रम हुआ और राजा जनक ने कहा-अहो, मैं निरंजन हूं; निर्दोष हूं। __आदमी दोषी तभी तक है, जब तक वह स्वयं को दोषों से युक्त मानता है। जिस पल यह आत्मबोध जग गया कि मैं निर्दोष हूं, तो फिर पाप तुम्हें स्पर्श नहीं कर पाएंगे। जब तक आत्मबोध नहीं जगा, तब तक पाप हैं, प्रायश्चित है, पापों की पुनरावृत्ति है। फिर यहां निष्पाप कौन है! कौन है, जिसने कभी पाप नहीं किया! जीसस के सामने एक महिला को पीटते हुए भीड़ पहुंची तो जनता ने जीसस से कहा कि इस महिला ने व्यभिचार किया है। इसे मारने का आदेश दीजिए। जीसस ने केवल इतना ही कहा कि इस महिला को मारने का अधिकार हर उस व्यक्ति को है, जिसने कभी पाप न किया हो। केवल वही आदमी आगे आए और इस महिला पर पत्थर फेंके। कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा, जिसने मन में भी कभी पाप न आचरा हो, लेकिन हम केवल अपने जीवन में पापों का प्रायश्चित न करें। सीधा-सा सूत्र है, अंधकार को दूर करना। अंधकार, जो कभी अंधकार से दूर नहीं होगा। अंधकार हमेशा प्रकाश से ही दूर होगा। अंधेरे में एक जलता चिराग चाहिए। जीवन में 26 For Personal & Private Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे-जैसे निरंजन का भाव उमड़ता चला जाएगा, वैसे-वैसे हमारे भीतर का कल्मष स्वतः धुलता चला जाएगा । आदमी अज्ञान की अवस्था में पाप करता है, ज्ञान की अवस्था में कोई आदमी पाप नहीं करता । अज्ञान अवस्था में रखा गया गलत कदम ही पाप है | ज्ञान-दशा में रखा गया सही कदम ही पुण्य है। अगर कोई आदमी जानता है कि नशा करना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है, फिर भी नशा करता है, तो यह उसकी मूर्च्छा है । जानना अलग बात है और उससे छूट जाना अलग बात है। पढ़ लेने भर से ज्ञान उपलब्ध नहीं होता। ज्ञान तो वह है, जो अनुभव से मिले । आत्मज्ञान का उदय हो जाने के बाद जीवन में कभी - कोई पाप नहीं होता । भले ही किसी की नजर में ज्ञानी द्वारा किया जाने वाला कृत्य अनुचित हो, लेकिन ज्ञानी के लिए तो वह भी एक पुण्य कृत्य है । ऐसा नहीं कि आत्मज्ञान पाने के बाद जनक ने राजमहलों में दिन न बिताए, राजरानियों के बीच न रहे । आत्मज्ञान पाने के बाद अनासक्ति आविर्भूत होती है, वीतराग - विज्ञान घटित हो जाती है, जिसके बाद कमल रहता तो कीचड़ में है, मगर फिर भी दोनों के बीच एक फासला कायम हो जाता है। इसी दूरी का नाम निर्लिप्तता है, साधना है। ज्ञान में पाप भी पुण्य हो जाता है और अज्ञान में पुण्य भी पाप हो जाता है । हजारों वर्षों तक अज्ञान - अवस्था में किए गए पाप, पाप रहते हैं, लेकिन जाग्रत अवस्था में किया गया थोड़ा-सा पुण्य ही हजारों वर्षों में किए गए पापों को धो डालता है । डाकू अंगुलीमाल के जीवन की घटना है। कहा जाता है कि अंगुलीमाल भगवान बुद्ध के सामीप्य से भिक्षु हो गया। डाकू रूप में उसने सैकड़ों लोगों को मारा था और उनकी अंगुलियों की माला बनाई थी, इसलिए स्वाभाविक था कि उसके उतने ही शत्रु होंगे । अंगुलीमाल बुद्ध के सान्निध्य में बैठा था । उनके पास और भी कई शिष्य आसीन थे। तभी सम्राट प्रसेनजित का आगमन हुआ । सम्राट ने प्रणाम किया और शिष्यों के बगल में बैठ गया । उसने बुद्ध से पूछा- भंते, मैंने सुना है कि कल आपकी डाकू अंगुलीमाल से भेंट हुई ! बुद्ध ने कहा- हां वत्स, कल मेरा उससे मिलना हुआ था। 'तो क्या उसने आप पर तलवार नहीं उठाई ?' प्रसेनजित ने पूछा । बुद्ध ने कहा- हां, उसने मुझ पर तलवार उठाई। राजा ने फिर पूछा- तो क्या आप पर प्रहार भी किया? बुद्ध मुस्कराए और कहने लगे-उसने चेष्टा तो की थी, मगर उसका प्रहार उसी पर जा लगा। 'तो क्या वह अब डाकू नहीं रहा?' राजा ने पूछा । बुद्ध ने जवाब दिया-हां राजन, अब वह डाकू नहीं रहा, भिक्षु हो गया है। जो ठीक मेरी बगल में बैठा है, वही है भिक्षु अंगुलीमाल । इस बात की चर्चा सारे शहर में फैल गई कि डाकू अंगुलीमाल भिक्षु हो गया है । 27 For Personal & Private Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहारचर्या का समय आया। अंगुलीमाल ने भगवान से कहा-भंते, आहारचर्या का समय हो गया है। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं आहार ले आऊं। बुद्ध ने उसे देखा और कहा-तुम्हें अनुमति है, मगर स्मरण रहे कि आज का दिन तुम्हारे लिए मुनित्व की कसौटी का दिन है। जिस स्थिति में तुमने इस विहार में प्रवेश किया था, वह बरकरार रहे; काया चलती रहे, मगर तुम स्थितप्रज्ञ बने रहना। ___अंगुलीमाल ने आहारचर्या के लिए प्रस्थान किया। सारे शहर में बात फैल चुकी थी। लोगों ने देखा कि भिक्षु अंगुलीमाल पूर्णतः निहत्था है। जब अंगुलीमाल बीच चौगान में पहुंचा, तो लोगों ने उस पर पत्थरों की बारिश कर दी। उसके शरीर से खून बहने लगा, मगर उसने नजर उठाकर भी लोगों की तरफ नहीं देखा। वह अर्द्ध-मूर्छित होकर रास्ते में गिर पड़ा। अंगुलीमाल ने आंखें खोलीं, तो उसने सिर पर किसी के कोमल हाथों का स्पर्श पाया। बुद्ध उसके पास बैठे उसके सिर को सहला रहे थे। बुद्ध ने पूछा-कहो वत्स, इस समय तुम्हारे मन में क्या चल रहा है? अंगुलीमाल ने कहा-भंते, आप और मुझसे पूछते हैं! आप तो सब कुछ जानते हैं। मैं यह सोच रहा हूं प्रभु, कि ये लोग कितने अच्छे हैं, जिन्होंने मुझे अपने जीवन भर के किए गए सारे पापों को धोने का इतनी जल्दी अवसर दे दिया। मेरे मन में इन सब लोगों के प्रति क्षमा, प्रेम और करुणा की भावना है। यह कहते-कहते ही अंगुलीमाल की सांसें रुक गईं। वह बुद्ध की गोद से नीचे लुढ़क गया। बुद्ध खड़े हुए और उसे प्रणाम किया। बुद्ध ने कहा-अंगुलीमाल, तुमने भले ही डाकू का जीवन जीआ, मगर तुम्हारी मृत्यु अरिहन्त-सी हुई। ___आत्मज्ञान की अपूर्व घटना घटते ही जीवन भर के सारे पाप अपने आप दूर हो जाते हैं। ज्यों-ज्यों प्याज की परतें उतारते जाएं, त्यों-त्यों वह लघु रूप ग्रहण करता जाएगा और अंततः शून्य शेष रहेगा। ध्यान भी ऐसा ही एक शून्य है, जो परत-दर-परत हटने के बाद प्रकट होता है। आत्मज्ञान उपलब्ध हआ, तो मैंने जाना कि मैं निर्दोष ही नहीं, शांत भी हूं। अब तक केवल अशांति-ही-अशांति अनुभव की। मन में तो जैसे कोलाहल मचा हुआ है, शोर-ही-शोर। पत्नी नहीं थी, तो अशांति। पत्नी आ गई, तो अशांति। बेटा नहीं था, तो अशांति । धन नहीं था, तो अशांति। दोनों मिल गए, तो भी अशांति। मन के पास अशांति का अनुभव करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। किसी भी चक्र में संपूर्ण चक्र गतिशील रहता है, मगर उसकी धुरी स्थिर बनी रहती है। मनुष्य का मन भी चक्र के समान है। सारा कोलाहल, सारा शोर मन की परिधि पर है। मन की धुरी, मन का केंद्र तो सदा-सदा शांत रहता है। जो इस रहस्य से रू-ब-रू हो गया, वही कह पाता है कि मैं शांत हूं। 28 For Personal & Private Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बोध हुआ, तो जाना कि मैं 'साक्षी का - बोध' भर हूं। अब तक मूर्च्छा के कारण भटकता रहा। अब बोध हुआ, तो मूर्च्छा ऐसे बिखर गई जैसे बरसों से भेड़ों के टोले में रह रहे सिंह को अपने सिंहत्व का बोध होने पर उसके द्वारा की गई गर्जना से भेड़ें तितर-बितर हो जाती हैं। सिंह निजता को उपलब्ध हुआ; एक मुमुक्षु आत्मा अपने आत्मज्ञान को उपलब्ध हुई । मोह, माया, विकृतियां, संस्कार क्षण भर में हवा हो गए। मूर्च्छा टूटी, तो जाना कि यह परिवार, यह जमीन, यह जायदाद, जिसको मैं अपना समझता रहा, एक ख्वाब निकला, एक सपना साबित हुआ। सपने कितने अपने होते हैं। मुझे याद है - एक सम्राट का बेटा बीमार हो गया। राजवैद्यों ने जवाब दे दिया । राजा, रानियां, वैद्य - सभी उसके इर्द-गिर्द बैठे थे। सोचते-सोचते राजा की आंख लग गई। नींद में एक सपना देखा कि बहुत दूर सोने से बने सात-सात राजमहल हैं; सात राजरानियां हैं; सात ही राजकुमार हैं। सारे राजपुत्र युद्ध-विद्या में इतने पारंगत हो गए कि एक अकेला पुत्र शत्रु की सेना को परास्त कर सकता था । पिता प्रसन्न था कि उसके सभी सातों पुत्र सुयोग्य, चतुर और निष्णात थे । उसने अपने बेटों को गले लगा लिया, तभी राजमाता चिल्लाई - युवराज मर गया। इसी चीख के साथ सपना टूट गया । सम्राट अनमने भाव से इधर-उधर टहलने लगा । राजमाता ने सोचा- बेटा चला गया और बाप की आंख में एक भी आंसू नहीं। मां ने कहा- बेटा, देख तेरा बेटा चला गया है। तू अपने लिए नहीं तो लोगों के लिए ही सही, दो आंसू दुलका ले। राजा ने कहा- मां, तुम तो रोने की बात कह रही हो, मुझे तो विस्मय हो रहा है। बताओ मैं किस-किस राजकुमार के लिए रोऊं ? उन सात राजकुमारों के लिए या इस एक राजकुमार के लिए ? मां ने पूछा- बेटा, क्या तूने कोई सपना तो नहीं देखा? राजा ने कहा- हां, मैंने एक सपना देखा है 1 सम्राट की बात सुनकर मां को क्रोध आ गया। उसने कहा- बेवकूफ, वह तो सपना था और यह हकीकत है। सम्राट ने जवाब दिया- मां, कल तक यह हकीकत थी, मगर आज यह भी सपना है । वह बंद आंखों का सपना था और यह खुली आंखों का सपना है। राजा की मूर्च्छा टूट चुकी थी । वह संन्यास के मार्ग पर बढ़ चला । मोह-मूर्च्छा उससे वैसे ही छूट गए, जैसे किसी के हाथ से कांच का बर्तन । जनक कहते हैं कि मैं प्रकृति से परे हूं; मैं अब कोई प्रकृति नहीं हूं । प्रकृति शरीर की होती है; प्रकृति मन और विचारों की होती है। प्रकृति यानी जो परिवर्तनशील है। मैं तो अपरिवर्तनीय हूं। मेरे लिए न कोई छोटा, न कोई बड़ा है; न कोई सुंदर, 29 For Personal & Private Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न कोई कुरूप है; न कोई ऊंचा, न कोई नीचा है। न विकार है, न निर्विकार; न सुवास है न स्पर्श । देह-धर्म की प्रकृति स्वतः विलीन हो गई। मैं जीवन-जगत् की इन सारी प्रकृतियों से अलग, मैं तो एक चैतन्य आत्मा हूं। योगी आनंदघन ने बहुत प्यारा गीत गुनगुनाया था अवधु नाम हमारो राखे, सो परम महारस चाखे ॥ नहीं हम पुरुषा नहीं हम नारी, वर्णन भांति हमारी। नहीं हम जाति नहीं हम पांति नहीं हम लघु नहीं भारी ॥ नहीं हम ताते नहीं हम सीरे, नहीं दीरघ नहीं छोटा। नहीं हम भाई नहीं हम भगिनी, नहीं हम वाप, न बेटा ॥ नहीं हम मनसा, नहीं हम शब्दा, नहीं हम तन की धरणी। नहीं हम भेख, भेखधर नाही, नहीं हम कर्त्ता-करणी। नहीं हम परसन नहीं हम दर्शन, रस न गंध कछु नाहीं। आनंदघन चेतनमय मूरति, सेवक जन बली जाहीं ॥ आनंदघन कहते हैं कि जो मेरा वास्तविक नाम ढूंढ़ लेगा, वही व्यक्ति असली महारस का रसास्वादन कर पाएगा। यहां माता-पिता द्वारा आरोपित नाम की नहीं, 'गुमनाम' के असली नाम की तलाश है। वे कहते हैं कि न तो मैं पुरुष हूं, न मैं नारी हूं। ये सारे आकार तो शरीर के हैं। जब मैं शरीर ही नहीं रहा, तो फिर मैं पुरुष और नारी कहां से हो गया! नहीं जांति, नहीं पांति; न साधु, न साधक; नहीं हम लघु, नहीं हम भारी; न ही मैं छोटा, न ही बड़ा हूं। मैं तो इस सबसे भिन्न हूं। आनंदघन ने कहा-न मैं भाई हूं, न बहिन हूं; न मैं बाप हूं, न मैं वेटा हूं; न मैं गरम हूं, न ठंडा हूं; न मैं शब्द हूं, न मन हूं; न मैं कर्ता हूं, न मैं कारण हूं और 30 For Personal & Private Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न ही मैं वेश हूं, न वेश को धारण करने वाला। मैं रस, स्पर्श, दर्शन से भिन्न कोई और हूं। इसी 'और' को आज मैंने पहचाना है। ___ मैं अब तक मोह, माया, प्रवंचना और आसक्ति से ठगा जाता रहा हूं। अपनों के लिए औरों को ठगा, मगर अपनों ने ही मुझे ठग लिया। ठगा भी बड़े सलीके से। ममता-बुद्धि से ऐसा लुटा कि कह भी नहीं पाता कि मैं लुट गया। यह अहसास, यह आत्मानुभूति तब हुई, जब मैं आत्मबोध को उपलब्ध हुआ। अब तो मैं शांत, निरंजन, बोध हूं; प्रकृति से परे हूं। जिस साधक को यह अनुभूति हो गई वह आत्मस्थिति में स्थित है, आत्मस्वरूप है। जनक कहते हैं कि मुझे तो अब अपने में और विश्व में कहीं कोई फर्क नजर ही नहीं आता। इस संपूर्ण विश्व में भी मैं मुझे ही देख रहा हूं। द्वैत मिट गया, भेद जाता रहा। सब अद्वैत हो गया, एक हो गया। मुझे तो सारा संसार अपना ही लगता है। या तो सारा संसार मेरा है अथवा कहीं कुछ नहीं। सारा संसार आत्मा से ही निष्पन्न हुआ है। जो भिन्नता दिखाई देती है, वह बिल्कुल वैसी ही है, जैसे जल से तरंग भी पैदा होती है, फेन भी पैदा होता है और बुदबुदे भी उठते हैं, पर अलग-अलग रूप नजर आने के बावजूद जल से भिन्न नहीं हैं, आत्म-अज्ञान के कारण ही संसार प्रतिभाषित होता है, आत्मा का ज्ञान होने पर संसार कहां भासता है, मैं तो प्रकाश स्वरूप हूं। प्रकाश मेरा निज स्वरूप है। यह संसार आत्मा के प्रकाश से ही आलोकित है। ___मैं ज्ञान, पुरुषार्थ और आनंद का संगम हूं। जो मैंने अपना स्वरूप जाना है। 'अहो अहं नमो मह्यं' मैं आश्चर्यमय हूं। मुझको ही मेरा नमस्कार है। आज तो ब्रह्मर्षि, इच्छा होती है कि मैं अपने ही चरण चूम लूं। अपने आपको ही बलिहारी है। मैं कृतकृत्य हुआ। मैं अविनाशी; ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सारे जगत् का भी नाश हो जाए, तब भी मेरा नाश नहीं है। अहो अहं नमो मह्यं, विनाशी यस्य नास्ति मे। ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्तं, जगन्नाशेपि तिष्ठतः ॥ जनक कहते हैं- 'अहो अहं नमो मां'। जब संपूर्ण सत्ता का, अस्तित्व का आधार मैं आत्मा ही हूं, तो मैं और किसे नमस्कार करूं। मेरा मुझको ही नमस्कार है। आत्मा ही ब्रह्म है, वही विष्णु और वही महेश। आत्मा को किसी ने नहीं बनाया, वरन् सब इसी से बने हैं। जगत् तो नाशवान् है। जिसका निर्माण हुआ है, उसका विलय तो होगा ही। इन्द्र-देवेन्द्र भी अपने रूप से स्खलित और च्युत होंगे ही। मेरा कोई विलय नहीं 31 For Personal & Private Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, कोई स्खलन और च्यवन नहीं है । ये सब गुण-धर्म तो देह में होते हैं । मैं देह नहीं, विदेह हूं, देहातीत हूं। मुझ चैतन्य को मेरा नमस्कार ! यह देह, साम्राज्य और विश्व भी, मेरे साथ संबद्ध होने के बावजूद मैं इन सबसे स्वयं को असंबद्ध देखता हूं। मेरा न बंधन है, न मोक्ष । मेरा तो सब कुछ शांत हो गया है। मौन हो गया है, यह शरीर, स्वर्ग, नरक, भय, ये सब मेरे लिए कल्पना भर हैं। मुझे इन सबसे क्या प्रयोजन! अगर अब तक मेरे लिए स्वर्ग-नरक, बंध-मोक्ष, देह और मूर्च्छा रही है, तो इसलिए, क्योंकि मेरी जीने में इच्छा थी । अब सब कुछ शांत है। मन और चित्त की हवाएं थम चुकी हैं। मैं मौन हूं । प्रभु, अब मैं मुक्त हूं। मुझे मेरा नमस्कार ! नमस्तुभ्यं, नमस्मद्यं । तुभ्यम् मह्यम् नमो नमः ॥ तुम्हें भी नमस्कार; मुझे भी नमस्कार। तुमको, मुझको दोनों को ही मेरा नमस्कार । सबको मेरा नमस्कार। संपूर्ण अस्तित्व को नमस्कार । अस्तित्व की आत्मा को नमस्कार । उस प्रेमी जीवन की जय हो ॥ जो पीता हो विष का प्याला, समझ अनूठी मादक हाला । जन्म-मरण की भवबाधा से, जिसकी आत्मा अमर - अभय हो, उस प्रेमी जीवन की जय हो ॥ जो दीपक पर प्राण होमकर, सोता हो सुख की समाधि पर । जिस पर चढ़े हुए फूलों से, यह धरती सुरभित मधुमय हो, उस प्रेमी जीवन की जय हो ॥ जय हो राजर्षि, तुम्हारी जय हो, ब्रह्मर्षि तुम्हारी जय हो, तुम अभय हुए, अमर हुए। चिर समाधि को उपलब्ध हुए। तुम जैसे पुण्य - पुरुषों से ही यह धरती सुरभित है, मधुमय है । तुम्हारी जय, तुम्हें हमारे नमन हैं 1 32 For Personal & Private Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंतर्दृष्टि की कसौटी जैसे किसी जलते हुए दीये को देखकर बुझे हुए दीये को ज्योतिबोध हो जाए, जैसे किसी खिले हुए फूल को देखकर हृदय की कलियां खिल उठें, जैसे किसी आकाश को देखकर भीतर का आकाश साकार हो जाए, कुछ ऐसी ही स्थिति जनक की हुई है-अष्टावक्र के साहचर्य से, आत्मज्ञानी के संसर्ग से। किसी जलते हए दीये को देखकर बझे हए दीये को ज्योतिबोध हो आया है, मुमुक्षु आत्मा जग गई है। अष्टावक्र जैसे सद्गुरु का संयोग पाकर माटी का एक दीया प्रज्वलित हो उठा है और उसने जन्म-जन्मांतर से आत्मा को घेरे हुए अंधकार के आवरण को, घटाटोप कालुष्य को पल में हर लिया है। अंधकार कितना ही सघन क्यों न हो, उसे मिटाने के लिए एक छोटा-सा चिराग ही काफी होता है। भले ही आज हमें कोई चिंगारी छोटी लगे, मगर वह अपने कदम विराटता की ओर बढ़ा ले, तो दावानल को जन्म दे सकती है। बीज चाहे कितना भी छोटा क्यों न हो, अंकुरित हो जाए, तो विशाल बरगद का रूप ले सकता है। वर्षा की छोटी-छोटी बूंदें बाढ़ का रूप धारण कर लेती हैं। मुख से निकला एक वाक्य व्यक्ति और इतिहास की दिशा बदल सकता है। हम किसी चीज को छोटी कहकर उसकी उपेक्षा नहीं कर सकते। अगर छोटा-सा चिराग हमारे जन्म-जन्म के कालुष्य को मिटा डाले, तो वह छोटा कहां! जनक ने जान लिया है कि अब तक मेरे इर्द-गिर्द मोह और मूर्छा के ही आवरण रहे। परिणाम यह निकला कि मैं जन्म-जन्म तक भटकता रहा। आज जब आत्मज्ञान की आभा प्रकट हुई है, तो मोह की विडम्बना के लिए आंखों से आंसू टपक रहे हैं-ओह, मैं इस स्वरूप का स्वामी और मेरे साथ अब तक यह छलावा! मेरे भीतर सिंहत्व छिपा हुआ था, लेकिन मैं भेड़ों के टोले में इस प्रकार खोया रहा! जब आत्मज्ञान का प्रसाद बरसता है, तो उसके आगे दुनिया की बड़ी से बड़ी संपदा भी त्याज्य है। अगर एक तरफ स्वर्ग का सिंहासन हो और दूसरी तरफ आत्मज्ञान की रोशनी हो, तो उस रोशनी को पा लेना ज्यादा सार्थक है। तभी तो कोई विश्वामित्र 33 For Personal & Private Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्ष की साधना के मार्ग पर चल पड़ता है, तो देवेन्द्र का आसन कंपित हो जाता है । वह भेज ही देता है किसी मेनका को कि जाओ और उसे रोको, जो आत्मज्ञान के रास्ते पर निकल पड़ा है। अगर वह स्वर्ग के सिंहासन की तरफ बढ़ रहा है, तो उसे डिगाने की कोई आवश्यकता नहीं है। बस, वह आत्मबोधि उपलब्ध नहीं कर पाए । मोह विगलित हो गया; मलीन मूर्च्छा ध्वस्त हो गई, मन में उठने वाली विषय-वासनाओं की तरंगें पूरी तरह से शांत हो गईं । जनक की स्थिति निष्कंप जलते हुए दीपक-सी हो गई। तभी तो वे घोषणा करते हैं कि मेरा मोह विगलित हो गया; आज सारा संसार ही मेरा हो गया । अगर तुम मानते हो कि संसार का कोई अस्तित्व है, तो सारा संसार तुम्हारा है और अगर मानते हो कि सारा संसार क्षण-भंगुर है, तो यहां कुछ भी नहीं है । जनक विचार करते हैं, अब यह शरीर ही नहीं, वरन् स्वर्ग और नरक, बंध और मोक्ष - ये सब मुझे कल्पनाएं लगती हैं। मुझ चैतन्य आत्मा को अब स्वर्ग और नरक से क्या प्रयोजन ! जो आदमी स्वर्ग और नरक दोनों के भाव से मुक्त हो चुका है, उसे अगर नरक में भी ढकेल दिया जाए, तो वह नरक को भी स्वर्ग बना देगा | जीवन को अगर स्वर्ग बनाने की कला नहीं आती, तो वह स्वर्ग को भी नरक का रूप दे बैठेगा। जीवन के उत्थान की रोशनी मिल जाए, तो चाहे नरक भी हमारे द्वार पर स्वागत करने को आए, हम नरक के सलीब को भी स्वर्ग का सिंहासन बनाने का उपक्रम कर लेंगे। साक्षी-भाव सघन हो चुका है, आत्मज्ञान की रोशनी घनीभूत हो गई है। ऐसे में जनक अपने भीतर उठ रही तरंगों को स्पष्टतः देख रहे हैं। वे तरंगें अपने स्वभाव में स्वतः विलीन हो रही हैं । साक्षित्व का सूरज उग आए, तो मन में चाहे जैसे धर्म-विधर्म उठें, व्यक्ति उन सबसे अलग, उन सबसे निस्पृह रहता है । तब व्यक्ति भोग के द्वार से गुजरकर आए, तो भी वैसी ही निर्लिप्तता बनी रहती है। आज जब आत्मज्ञान का अहोभाव बरस रहा है, तो केवल यही इच्छा नहीं होती कि उस परमात्मा को धन्यवाद दें अथवा अष्टावक्र को प्रणाम करें, जिसके सान्निध्य से आत्मज्ञान उपलब्ध हुआ, वरन् आज तो स्वयं को प्रणाम करने की इच्छा हो रही है । निःसंदेह हमें औरों के द्वारा मिलने वाले सहयोग के कारण उनके प्रति आभारी होना चाहिए, लेकिन आज तो धन्यवाद हम अपने आपको देंगे कि जो अब तक असंभव लगता था, आज वह संभव हुआ। यह केवल परमात्मा की अनुकंपा या अष्टावक्र के ज्ञान-संदेश के कारण ही नहीं, स्वयं की पात्रता की बदौलत भी मुमकिन हुआ। अगर इस मंदिर में कोई पूजा करने वाला न आए, तो मंदिर का क्या मूल्य होगा? आज तो स्वयं को प्रणाम है, क्योंकि आज जाना मैं कौन हूं? " 34 For Personal & Private Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाता है, जब संत होशीन मृत्यु- शय्या पर पड़े थे, तो उनके एक शिष्य ने कहा- गुरुवर, आप हमें एक जवाब देते जाइए। यह जवाब ही हमारा मार्गदर्शक होगा। होशीन ने कहा - पूछो, क्या पूछना चाहते हो ? शिष्यों ने कहा- आप कौन हैं? आप मूलतः कहां से आए हैं? तब होशीन ने जो जवाब दिया वह स्वर्णाक्षरों में अंकित करने योग्य है। संत होशीन ने कहा कि मैं एक अद्भुत दैदीप्यमान लोक से आया हूं, यही मेरा परिचय है । शिष्यों ने पूछा-भगवन, आप यहां से जाएंगे कहां? होशीन मुस्कराए और कहा - मैं जिस दैदीप्यमान लोक से आया हूं, वहीं लौट रहा हूं। शिष्य ने कहा- भगवन, मैं आपका आशय नहीं समझ पाया । आप क्या कहना चाहते हैं? जवाब देने के लिए तब तक गुरु नहीं रुके। उनके प्राण पखेरू उड़ गए। वे दैदीप्यमान लोक की यात्रा पर निकल पड़े। 1 संत होशीन का शिष्य जीवन-भर उस पहेली को नहीं समझ पाया । शायद आपके लिए भी यह एक अबूझ पहेली ही हो । होशीन जीवन के यथार्थ को ही स्पर्श कर रहे थे। उनके कहने का आशय यही था कि तुम्हें दैदीप्यता में ही अपनी पहचान करनी है । अष्टावक्र आज एक नई व्यवस्था देना चाहते हैं । वे आत्मज्ञानी को भीतर से टटोल लेना चाहते हैं कि आत्मज्ञान उपलब्ध होने के बाद भी उसके भीतर कहीं जन्म-जन्म का कालुष्य बचा हुआ तो नहीं है, आसक्ति का अवशेष तो नहीं है। तब अष्टावक्र जनक से सवाल करते हैं। सूत्र है अविनाशिनमात्मानम्, एकं विज्ञाय तत्त्वतः । तवात्मज्ञस्य धीरस्य कथमर्थार्जने रतिः ॥ अष्टावक्र कहते हैं- आत्मा को तत्त्वतः एक और अविनाशी जानकर भी तुझ आत्मज्ञानी धीर को धन के अर्जन में क्यों आसक्ति है? अष्टावक्र देखना चाहते हैं कि जनक के भीतर कहीं सांसारिक वृत्तियों-मोह, माया, वासना आदि की कोई दबी हुई चिंगारी तो नहीं है । जनक से पूछते हैं-जनक, आत्मा को एक ओर अविनाशी जानने के बाद भी तुम्हारे भीतर धन के अर्जन की आसक्ति है। ‘आत्मा को एक ओर अविनाशी जानकर' यही तो एकमात्र ऐसा तत्त्व है, जो अनेक के बीच भी एकता को स्थापित करता है। यही तो वह तत्त्व है, जो व्यक्ति को यह बोध करवाता है कि जहां एक है, वहां सब है, लेकिन जहां सब हैं, वहां एक नहीं है, वहां कुछ भी नहीं है । इसी कारण महावीर ने कहा था- जो एक को जान लेता है, वह सबको जान लेता है, लेकिन जो एक से अनभिज्ञ रह जाता है, वह सबसे ही अनभिज्ञ रह जाता है । 1 35 For Personal & Private Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा जाता है कि सम्राट नमि किसी संक्रामक रोग से पीड़ित हो गए। बहुत इलाज किया गया, लेकिन कोई भी इलाज कारगर नहीं हुआ। अंत में किसी दूसरे देश से आए वैद्य ने सलाह दी कि अगर राजा को उनकी राजरानियां लाल चंदन घिसकर उनके बदन पर लगाएं, तो वे शीघ्र स्वस्थ हो सकते हैं। राजरानियां चंदन घिसने लगीं। उनके कंगन की खनखनाहट इतनी अधिक थी कि राजा तिलमिला उठा। राजा ने उस आवाज को बंद करने का आदेश दिया। कुछ देर बाद राजरानियां चंदन घिसकर राजा के सामने पहुंचीं। राजा ने विस्मयपूर्वक कहा-क्या यह चंदन तुमने घिसा है? राजरानियों ने सिर हिलाकर सहमति दी। राजा ने पूछा-पहले तो कंगनों की आवाज आ रही थी, बाद में क्यों नहीं आई? रानियों ने कहा-राजन, पहले हाथों में कई कंगन थे, सो उनके टकराने से आवाज आ रही थी। __राजा की जिज्ञासा बढ़ती जा रही थी। राजा ने पूछा-तो क्या तुम लोगों ने अपने-अपने कंगन उतार दिए? रानियों ने कहा-नहीं राजन, हमने कंगनों में से एक-एक सौभाग्य सूचक कंगन रखकर शेष सभी उतार दिए। इसी वजह से आवाज नहीं आई। राजा चौंके, मानो कोई महान् सूत्र हाथ लग गया हो। न जाने कहां से शक्ति उमड़ी और वे उठ खड़े हो गए। चिंतन करने लगे-ओह, तो जहां एक है, वहां शांति है और जहां अनेक हैं, वहां कोलाहल है। जैसे ही निजता में छिपी शांति की पहचान हुई कि उठ खड़े हुए और राजमहलों से निकलकर आत्मसाधना और आत्म-आराधना के मार्ग पर चल पड़े। ___ अष्टावक्र कहते हैं कि यह बात निश्चित है कि जहां एक है, वहां शांति है। जनक, आज तूने जाना है कि तू एक है, अविनाशी है। विनाश शरीर का होता है, शरीर के पर्यायों का होता है। व्यक्ति बंधा है मकान से, धन से। इनके नष्ट होने पर वह रोता है, लेकिन हमारी मृत्यु पर न वे शोकाकुल होते हैं, न आंसू बहाते हैं। पुराने दौर में राजाओं के प्राण उनमें नहीं रहते थे। वे कहीं अटकाकर रख दिए जाते थे। राजा को सौ तीर मार लो, मगर राजा नहीं मरता, किंतु जिस किसी पशु-पक्षी में राजा के प्राण होते थे, उसे मारते ही राजा के प्राण पखेरू उड़ जाते थे। अब प्रतीक बदल गए हैं। अब राजाओं का स्थान धनवानों ने ले लिया है और तोतों का स्थान तिजोरियों ने ले लिया है। अब तिजोरियां साफ हो जाएं, तो आदमी मर जाता है। धन आना था, सो आ गया, जाना था, सो चला गया; शरीर को उत्पन्न होना था, सो हो गया, नष्ट होना था, सो हो गया। तू तो अविनाशी है। तेरे भीतर तो सदा-सदा यह बोध बना हुआ रहे कि मैं अविनाशी हूं। आज तक देह जली है, संयोग जला है। टूटेगा, तो संयोग टूटेगा। तुम तो मेरे प्रिय आत्मन्, उस आत्मा 36 For Personal & Private Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के स्वामी हो, जिसको एक बार नहीं, सौ-सौ बार भी चिता पर जला दिया जाए, लेकिन वह नहीं जलती। पांच फुट की यह काया मिट्टी से बनी है और मिट्टी में मिलकर मिट्टी हो जानी है। शायद आप लोगों को पता हो कि महात्मा गांधी की हत्या की गई, तो कोहराम-सा मच गया था। भले ही हत्या जायज नहीं थी, लेकिन हत्यारे गोडसे की नजर में कुछ भी नाजायज नहीं था। महात्मा गांधी का बेटा गोडसे के पास जेल में गया और उससे कहा कि वह नहीं चाहता है कि अहिंसक व्यक्ति की हत्या करने वाले को हिंसक तरीके से फांसी दी जाए, इसलिए तुम न्यायाधीश के समक्ष अपनी गलती कबूल कर लो, तो मैं पूरी कोशिश करूंगा कि तुम्हें फांसी की सजा न हो। निवेदन के प्रत्युत्तर में गोडसे ने कहा-मुझे नहीं लगता कि तुम गांधी के निकटस्थ हो। मेरे मारने से न गांधी मरा है और न मुझे फांसी लगने से मैं मरूंगा। केवल देह धराशायी होगी, देह जलेगी। गांधी कल जीवित था और आने वाले कल को भी जीवित रहेगा। जिस काया से इंसाफ और नाइंसाफ का खेल खेला जा रहा था, मैंने मात्र उस काया को गिराया है। वह काया गिर जानी चाहिए। यह जीवन का परम सत्य है कि काया गिरती है, तुम थोड़े ही गिरते हो। इसीलिए अष्टावक्र हमको कुरेदकर पूछना चाहते हैं कि आत्मा को अविनाशी-अजन्मा जानने के बावजूद तुझ धीर-पुरुष को धन में आसक्ति क्यों हो रही है? मनुष्य के मन की तृष्णाओं में, आसक्तियों में दो मुख्य हैं-पहली, धन की और दूसरी काम की। आदमी अपने जीवन में केवल दो ही चीजों के इंतजाम में लगा रहता है, धन और वासना-पूर्ति के साधन में। काम का संबंध है, तन से और धन का संबंध है, मन से। जो आदमी दिन-रात धन के पीछे लगा हुआ है, वह मन के बहाव में बह रहा है और जो आदमी काम की तरंगों में घिरा है, वह निश्चित तौर पर तन का होकर जी रहा है। अष्टावक्र यह बोध देना चाहते हैं कि न तुम तन हो, न मन हो, तो फिर धन और काम तुम्हारा कहां से हो जाएगा? धन संग्रह के लिए नहीं है, उपयोग के लिए है। यह तो जीविकोपार्जन का साधन है। इसके पीछे पागल बने मत घूमो। धन कमाने के चक्कर में आदमी सुबह से शाम तक लगा रहता है, धोबी के गधे की तरह घर से घाट और घाट से घर तक। इतना पैसा कि चैन की नींद भी नसीब नहीं होगी। कुछ तो सीमा बांधो, कुछ तो संयम बरतो। उतना ही कमाओ, जितना जीते-जी उपयोग कर सको, सात पीढ़ियों की चिंता छोड़ दो। ___धन उपभोग की वस्तु है, उसका उपभोग करो। जीवन में जो करना चाहते हो, अगर धन उसमें सहायक हो, तो धन का उपयोग कर लिया जाए। धन कतई 37 For Personal & Private Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाप नहीं है, पाप है मूर्च्छा, पाप है आसक्ति । अनासक्त सदा पुण्य में जीता है। अनासक्त धन का उपयोग करते हुए भी, सिंहासन पर आसीन रहकर भी मुक्त है। एक ज़ेन संत हुए- जेस्सीन । जेस्सीन पेंटिंग किया करते और उसके एवज में मोटी रकम लिया करते थे । वे समर्पित पेशेवर पेंटर थे। एक बार एक युवती उनके पास पहुंची और कहने लगी- मुझे चित्र बनवाना है, मगर शर्त यह है कि आपको वह चित्र मेरे सामने बनाना पड़ेगा। जेस्सीन ने कहा- ठीक है, मुझे कोई दिक्कत नहीं । उन्होंने एक दिन तय किया और उस दिन जेस्सीन ने चित्र बनाना शुरू कर दिया। जैसा चित्र वह चाहती थी, वैसा चित्र बनाकर दे दिया गया और बदले में वांछित राशि ले ली। राशि देकर युवती आगे बढ़ गई। कुछ दूर जाकर वह पलटी और जेस्सीन के पास आकर कहा- पेंटर, तुम्हारी कला में तो दम है, लेकिन हो तुम लालची व्यक्ति । तुम पैसे के लिए पेंटिंग करते हो, यही सबसे बड़ी खामी है । फिर न जाने उसने क्या सोचा और अपना स्कर्ट खोलकर जेस्सीन की तरफ फैंक दिया और कहा- तुम इस पर पेटिंग बनाओ, तो जानूं। जेस्सीन ने युवती की चुनौती बड़ी विनम्रता से स्वीकारते हुए कहा- मुझे इस पर भी पेंटिंग करने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन इसकी राशि अभी जितनी दी है, उससे आठ गुना होगी। युवती तैयार हो गई । जेस्सीन ने कुछ ही पलों में पेंटिंग बनाकर स्कर्ट उसे सौंप दिया। युवती राशि पटक कर घृणित भाव से वहां से चली गई । युवती बाजार में पहुंची, तो उसे जेस्सीन के बारे में चर्चा सुनने को मिली। उसे जो जानने को मिला, उसकी उसने कल्पना भी नहीं की थी। उसने जाना कि जेस्सीन केवल धन के लिए ही पेंटिंग करता है, मगर वह धन स्वयं के लिए नहीं कमाता । उसकी धन कमाने की तीन वजहें हैं- पहली, जहां वह रहता है, वहां अन्न का बहुत बड़ा भंडार है, जिसका उपयोग वह असहाय - गरीबों के लिए करता है । इस अन्न-भंडार का संचालन इसी पेंटिंग के पैसे से होता है । दूसरी, वह अपनी पेंटिंग की कमाई से जापान के सबसे बड़े मंदिर तक पक्का रास्ता बनवा रहा है। और तीसरी वजह यह है कि वह अपने स्वर्गीय गुरु की इच्छा के अनुरूप एक मंदिर बनवाना चाहता है। कहा जाता है कि जिस दिन उसकी तीनों इच्छाएं पूरी हो गईं, वह जंगलों में चला गया, उसे किसी ने पेंटिंग करते नहीं देखा । जीवन में जो कुछ करना था, धन का उसके लिए उपयोग किया गया । आत्मसमृद्ध व्यक्ति हीरे - कंकड़ के जोड़-तोड़ में नहीं लगता । जो भीतर से दरिद्र है, वही बाह्य वस्तुओं के संग्रह में रस लेता है । वही धन, पद, प्रतिष्ठा, मान, सम्मान की फिराक में रहता है। संतोषी और अनासक्त व्यक्ति धन का वैसा ही उपयोग और वितरण 38 For Personal & Private Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर देता है, जैसा कि बचपन में आपने एक कहानी सुनी होगी कि एक आदमी चार आने कमाता था। एक आना माता-पिता के लिए, एक आना बच्चे और पत्नी के लिए, एक आना बचत के लिए और एक आना परमार्थ के लिए। क्या हम ऐसा करते हैं? नहीं, क्योंकि हम आसक्तियों में इतने उलझे हैं कि चार आने तो क्या, हमारे लिए तो चार लाख भी कम हैं। इसीलिए अष्टावक्र जनक से कहते हैं-जनक, अगर तू धन के अर्जन में ही लगा रहा, तो तेरे जीवन में पाया हुआ आत्मज्ञान भी व्यर्थ चला जाएगा, सारी शिक्षाएं व्यर्थ हो जाएंगी।" वस्तुतः दुनिया में कोई भी आदमी गरीब नहीं है। गरीब तो वे हैं, जो धन के प्रति आसक्त बने रहते हैं और इसीलिए जनक को यह चेताया जा रहा है कि आत्मा को तत्त्वतः एक और अविनाशी जानकर भी तुझ आत्मज्ञानी धीर-पुरुष को धन कमाने में क्यों आसक्ति है? वे केवल धन के प्रति ही सावचेत नहीं कर रहे हैं, वरन आसक्ति की और भी संभावनाएं हैं, इसलिए एक सूत्र और कह देना चाहते हैं। सूत्र है आस्थितः परमाद्वैतं, मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः। आश्चर्यं कामवशगो, विकलः केलिशिक्षया ॥ अर्थात परम अद्वैत में स्थित हुआ और मोक्ष के लिए उद्यत हुआ पुरुष काम के वशीभूत होकर क्रीड़ा के अभ्यास से व्याकुल होता है, यही आश्चर्य है। आदमी की दो मुख्य आसक्तियां होती हैं। एक आसक्ति का संबंध तन से होता है और दूसरी आसक्ति का संबंध मन से। मन का संबंध धन से है और तन का संबंध काम से होता है। आत्मज्ञान तो आज हुआ है, काम का अभ्यास तो जीवन-भर से, जन्म-जन्म से रहा है। तुम आत्मज्ञान तो पा लोगे, पर पता नहीं कल वापस उसी छिछलेदारी में पड़ जाओ। विश्वामित्र जैसे आत्मज्ञानी भी फिसल पड़े। आदतें सरलता से नहीं छूटतीं। खुजली के रोगी को कितना ही क्यों न समझा दो कि खुजलाने से पीड़ा और बढ़ेगी, मगर जैसे ही खुजली उठती है, आदमी खुजलाने लग जाता है। जनक ने अवश्य ही आत्मज्ञान अर्जित किया है, किंतु इसका मतलब यह नहीं कि वे निर्वाण को उपलब्ध हो गए। उन्हें समाधि सधी है, पर सविकल्प समाधि सधी है। यह आत्मज्ञान की स्थिति है। आत्मज्ञान से अस्तित्व और आत्मा का भेद मिट जाता है, किंतु यह समाधि की वह स्थिति है, जिसमें विकल्प बना रहता है। अतीत के संस्कार, मन, बुद्धि, चित्त बीज रूप में बचे रहते हैं। निर्विकल्प समाधि, निर्वाण तब है, जब ये बीज भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए अष्टावक्र कुरेद रहे हैं उन बीजों को, पूर्व की जड़ों को। Fo___39 For Personal & Private Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनक कहते हैं कि या तो सारा संसार मेरा है अथवा मेरा कोई नहीं है। तुम्हें संसार से प्रेम करने का पूरा अधिकार है, मगर तुम्हारे प्रेम में संकीर्णता न हो, संकुचितता न हो। अपने प्रेम को विस्तार दो, प्रेम को सदा सार्वजनिक रखो। जब भी प्रेम को गोपनीय रखोगे, प्रेम पाप हो जाएगा। मुझे याद है, एक साध्वी हुई है, नाम था ईशून। वह इतनी सुंदर थी कि उसको देखकर साधारण व्यक्ति तो क्या आत्मज्ञानी भी फिसल जाए और ऐसा ही हुआ। विचलन की काई एक युवा संत के पैरों के नीचे आ ही गई। उसने ईशून को पत्र लिखा। पत्र में उसने साध्वी के प्रति प्रेम जतलाया और एक निजी बैठक की मांग की। ईशून ने युवा संत के पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। निर्धारित दिन, जिस दिन संत ने समय मांगा था, अपने गुरु का संदेश पूरा होने के बाद साध्वी ईशून खड़ी हुई और उसने उस संत की तरफ संकेत करते हुए कहा-अगर तुम मुझसे प्रेम करते हो, तो आओ और सबके बीच मुझे आलिंगनबद्ध करो। युवा संत नजरें झुकाए बैठा रहा। __तुम्हारे प्रेम में इतना साहस ही कहां! प्रेम हमारा विराट हो जाए-सबके लिए, सबके प्रति। अगर ऐसा नहीं होगा, तो आत्मबोधि को उपलब्ध करने के बाद भी संभव है कि पैरों तले काई आ जाए। वह व्यक्ति धन्य है, जो कंचन और कामिनी से सदा अनासक्त रहता है। वह व्यक्ति धरती का जीवंत परमेश्वर है। अष्टावक्र भी ऐसे ही कोई भगवान रहे; जनक में भी ऐसी ही कोई भगवत्ता फटी, तो अष्टावक्र ने जान लिया कि अब जनक में न धन की आसक्ति रही, न काम की; तो अंतिम सूत्र कहा। सूत्र है अंतस्त्यक्त कषायस्य, निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः। यदृच्छयागतो भोगो, न दुःखाय न तुष्टये ॥ अर्थात जिसने अंतःकरण के कषायों को त्याग दिया है और जो द्वंद्वरहित, आशा रहित है, ऐसे पुरुष को दैव-योग से प्राप्त भोगों में न दुख है, न सुख है। जब अंतःकरण कषाय-मुक्त हो गया है, सौम्य और सरल हो गया है, तो बाहर चाहे जैसा वातावरण बने, इससे क्या फर्क पड़ता है, बाहर का वातावरण तुम्हें प्रभावित करता है, तो इसका अर्थ है, अपने अंतर्मन का अन्वेषण करो। जैन धर्म में प्रव्रजित होने के बाद मुझे पता चला कि जैन संत नारी का स्पर्श नहीं करते। मैं चौंका कि संतों से महिलाएं घबराती हैं या महिलाओं से संत घबराते हैं? संत के लिए तो दोनों ही समान हैं, क्या स्त्री, क्या पुरुष! लिंग-भेद के गिरने 40 For Personal & Private Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से ही संन्यास घटित हो पाता है, संत की तो अंतरदृष्टि, आत्मदृष्टि होती है । अगर देह-दृष्टि बची रही, तो संतत्व का जन्म ही कहां हुआ ! साधना-पथ पर कदम ही कहां बढ़ा ! धर्म में अगर निषेध हो, तो स्त्री और पुरुष दोनों का हो, प्रवेश की अनुमति हो, तो दोनों को हो और फिर निषेध और विधेय के नियम भला औरों पर क्यों लादे जाएं? विरक्त को अपने फिसलने का भय हो, तो पहले वैराग्य को प्रौढ़ और परिपक्व हो जाने दो, पश्चात् संन्यास की सोचो। संत के लिए अमीर-गरीब का, क्रोध-क्षमा का, सोने-माटी का, स्त्री-पुरुष का, निंदा-स्तुति का भाव गिर जाना चाहिए। जिसका अंतःकरण निर्द्वन्द्व, निष्कषाय, निर्मल हुआ, उसे भोगों से, निमित्तों से, स्थितियों से न सुख होता है, न दुख । जिस व्यक्ति ने अंतःकरण के कषायों को त्याग दिया है, उसे न सुख का अहसास है, न दुख की ही प्रतीति होती है । वह दोनों में स्थितप्रज्ञ बना रहता है । निर्द्वन्द्व और निरासक्त बना रहता है। वह सुख-दुख के पार सदा चिर आनंद में स्थित रहता है । वह चहुं ओर उल्लसित रहता है उसका हर दिन उज्ज्वल होता है। हर क्षण उसका हृदय पुलक से भरा रहता 1 वह उस चिर मुस्कान का स्वामी होता है - जैसी मुस्कान महावीर के थी, बुद्ध के थी, जीसस और सुकरात के थी । 1 1 अंतर्मन जितना निष्कषाय, जितना सौम्य और जितना स्वार्थमुक्त होगा, अंतर्मन उतना ही स्वर्गमय होगा, मुक्ति के माधुर्य को जी पाएगा। हम अंतर्मन के मंदिर की ओर बढ़ें और आत्मपुलक का दीप प्रज्वलित करें। स्वयं ज्योतिर्मय हों, औरों को ज्योति की सौगात प्रदान करें । नमस्कार । 41 For Personal & Private Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोग भी, योग भी यात्म-स्मरण से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और आत्म-विस्मरण से बढ़कर कोई जापाप नहीं; आत्मज्ञान से बढ़कर कोई उपलब्धि नहीं और आत्म-अज्ञान से बढ़कर कोई दारिद्रय नहीं। अपने आपको पाना जीवन की सबसे बड़ी समृद्धि है, अपने आपको खो बैठना जीवन की सबसे बड़ी गरीबी है। जिस किसी ने दुर्जेय संग्राम के हजारों योद्धाओं को जीता हो और अगर वही विजेता अपने आपसे हार चुका हो, तो उसकी जीत को पराजय ही कहा जाएगा। आत्म-विजय से बढ़कर कोई विजय नहीं है। अपने चित्त की वृत्तियों के प्रति होने वाला सम्यक् जागरण जीवन की विजय का परम सूत्र है। सद्प्रवृत्तियों में स्थित हमारी अपनी आत्मा ही हमारी सबसे प्यारी मित्र है और दुष्प्रवृत्तियों की ओर गतिशील हमारी अपनी आत्मा ही हमारी सबसे बड़ी शत्रु है। मनुष्य के एक ओर मित्र हैं और दूसरे पार्श्व में शत्रु हैं। दुनिया में मित्र के निमित्त कोई और होते हैं तथा शत्रु के निमित्त भी कोई और होते हैं, लेकिन अष्टावक्र तुम्हें जिस धरातल पर ले जाना चाहते हैं, उस पर तुम्ही तुम्हारे मित्र हो और तुम्ही तुम्हारे शत्रु; तुम्ही तुम्हारे जीवन का स्वर्ग बनाते हो और तुम्हीं तुम्हारे जीवन का नरक। तुम्हारे जीवन की मुक्ति की आधारशिलाएं तुम्ही हो। अष्टावक्र का दिव्य सान्निध्य मिला और जनक ने जाना-मैं कौन हूं; अब तक मेरे जीवन में जन्म-जन्मांतर में कौन-सी विडंबनाएं मेरे साथ रहीं? जनक ने अपने बंधन और मोक्ष को जान लिया है, आत्मज्ञान की संपदा को उपलब्ध कर लिया है, तो अष्टावक्र यह भी पुष्टि कर लेना चाहते हैं कि कहीं राख में कोई अंगारा तो दबा हुआ नहीं रह गया है, क्योंकि अकसर ऐसा होता है कि ऊपर-ऊपर दिखाई देने वाली राख में धधकते अंगारे दबे रह जाते हैं और जिस क्षण हमारी नियति का, हमारी कर्म-प्रकृति का कोई झोंका आता है, तो राख उड़ जाती है और वे सुलग पड़ते हैं। ___ एक आत्मज्ञानी व्यक्ति भी अंगारों की धधक से सुलग सकता है, इसीलिए अष्टावक्र ने पड़ताल प्रारंभ कर दी है। वे खोज रहे हैं कि कहीं तुम्हारे मन में 42 For Personal & Private Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धन के प्रति कोई आसक्ति तो नहीं है, कहीं तुम्हारे मन में काम के प्रति मूर्छा तो नहीं है; साम्राज्य के प्रति मोह तो नहीं है। ___ अष्टावक्र के आह्वान से जनक चौंक पड़े। वे कहने लगे--प्रभु, आप और मुझसे यह सवाल करते हैं? कोई और व्यक्ति मेरे प्रति संदेह करता तो बात लाजमी थी, पर आपने मेरे पर संदेह किया! एक आत्मज्ञानी ही आत्मज्ञानी के प्रति संदेह कर रहा है। पूज्यवर, अगर धन होगा भी तो मैं धन से निःशेष रहूंगा, निर्धन रहूंगा। वह व्यक्ति निर्धन नहीं है, जिसके पास पैसा है, निर्धन तो वह व्यक्ति है, जिसकी धन के प्रति आसक्ति टूट गई है। हम लोगों ने 'निर्धन' शब्द का अर्थ बड़े गिरे हुए अर्थों में किया है। निर्धन होना तो सौभाग्य की बात है। हां, दरिद्र होना पाप और अभिशाप का सूचक है। भगवत-कृपा हुई, मैं निर्धन हुआ। बाहर से निर्धन और भीतर से समृद्ध, अपना स्वयं का सम्राट। __ कहा जाता है भगवान बुद्ध के पास उनका शिष्य पहुंचा और कहने लगा-भंते, मैं अंग-बंग-कलिंग देशों में जाकर धर्म और शांति के आपके विचारों को आगे से आगे फैलाना चाहता हूं। भगवान ने कहा-वत्स, तू जाना चाहता है, यह अच्छी बात है, मगर यह भी ध्यान रख कि वहां के लोग साधुओं और भिक्षुओं के प्रति बड़े ही निर्दयी और उपद्रवी हैं। जाने से पहले मेरे एक सवाल का जवाब देता जा। मेरा सवाल यह है कि अगर तू अंग-बंग-कलिंग देशों में गया और वहां के लोगों ने तुम्हें गालियां दी, तो तुम्हारे मन में क्या होगा? शिष्य ने बुद्ध के प्रश्न को सुना और बड़े शांत भाव से कहा-तब मेरे मन में यह होगा प्रभु, कि ये लोग कितने अच्छे हैं जो केवल गालियां देते हैं, चांटा तो नहीं लगाते। बुद्ध ने कहा-चांटा मारें तो? तो मेरे मन में यह होगा कि ये लोग कितने सहयोगी हैं, जो केवल चांटा ही मारते हैं, डंडे से नहीं पीटते। शिष्य का जवाब पाकर बुद्ध चौंके। बुद्ध ने कहा-वत्स, मान लो उन लोगों ने तुम्हें डंडों से पीटा, तो तुम क्या करोगे? शिष्य ने कहा-प्रभु, तब मेरे मन में यह होगा कि ये लोग कितने उदार हैं, जो डंडों से ही पीट रहे हैं, तलवार से तो नहीं काटते। बुद्ध ने कहा-मेरी अंतिम जिज्ञासा यह है कि अगर उन लोगों ने तुम्हारे सिरधड़ को तलवार से अलग कर दिया तो? बुद्ध शिष्य से अपने अंतिम प्रश्न का उत्तर पाने को उत्सुक थे। शिष्य ने कहा-पूज्यवर, तब मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझूगा कि मेरी देह धर्म के काम आई; मैं शांति का संवाहक बना। भंते, मेरे मन में ऐसा ही होगा। तथागत ने कहा-वत्स, तू जहां जाना चाहता है, वहां जा। तुम्हारे लिए राष्ट्र और सीमाएं महत्वहीन हैं, सारी पृथ्वी तुम्हारी अपनी है। तू शांति दूत है। 43 For Personal & Private Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसी ही स्थिति जनक के सम्मुख आई और जनक ने भी कहा कि भंते, आप और मुझसे यह सवाल करते हैं। मेरे मन में धन और काम के प्रति कोई आसक्ति नहीं है। प्रभु, मेरा तो यह कहना है हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य, खेलतो भोगलीलया। न हि संसारवाहीकैमूढैः सह समानतः ॥ जनक ने कहा- हन्त, भोग-लीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीर पुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ पुरुषों के साथ कैसे की जा सकती है? जनक ने संबोधन ही दिया-हन्त। हन्त यानी हनन करनेवाला, मार गिराने वाला, अपने भीतर के शत्रुओं को परास्त कर देने वाला। जनक कहते हैं-भोग लीला में खेलते हए आत्मज्ञानी धीर पुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ पुरुषों के साथ कैसे की जा सकती है? भगवन् एक आत्मज्ञानी और एक संसारी पुरुष में कुछ तो फर्क करोगे। मैं समझ गया हूं कि आत्मज्ञान पाना सहज है, यह अनुभूत है। आत्मज्ञान की घटना मनुष्य में ध्यान के द्वारा, साधना के द्वारा आज-इसी क्षण घटित हो सकती है, मगर जन्म-जन्म से सिंचित किए जा रहे कर्म इसी क्षण काट पाना संभव नहीं है। कर्म केवल दो ही तरीकों से काटे जा सकते हैं-या तो तुम कर्मों को काटने के लिए पुरुषार्थ करो या फिर जब कर्म उदय में आए, तो उसे होशपूर्वक भोगकर उससे छुटकारा पा लो। पुरुषार्थ करना हर किसी के बस की बात नहीं है, लेकिन उदय में आने वाली वृत्ति या कर्म की स्थिति को सजगतापूर्वक, जागरूकतापूर्वक, बोधपूर्वक भोगते हुए काट देना अपेक्षाकृत सहज है। ____ अष्टावक्र मनुष्य को यह मार्ग देना चाहते हैं कि तुम भले ही गृहस्थ में रहो, मगर गृहस्थ में रहते हुए भी गृहस्थ-संत बनो। संसार में रहना कदापि बुरा नहीं है, संसार को अपने में बसा लेना बुरा है। राजा हो या रंक-वह व्यक्ति धन्य है, जो आत्मबोध को उपलब्ध है। आत्मबोध को प्राप्त व्यक्ति और बेहोशी में जीने वाले आदमी में भारी अंतर होता है। आम महिला खाना पकाने के लिए चूल्हा जलाती है, तो झट से गैस को चाल कर देती है, बगैर देखे-जाने कि गैस के बर्नर पर कोई तिलचट्टा या अन्य कोई कीट तो नहीं बैठा है। पानी लेना है, तो उसे इस बात का ध्यान नहीं रहता है कि बर्तन में कहीं कोई छिपकली तो नहीं गिरी हुई है; पानी में कोई कीट-पतंगा तो नहीं है। भोजन बनाने में भी कर्मों की निर्जरा हो सकती है, कर्मों का बंधन हो सकता है और चित्त को भारभूत किया जा सकता है। 44 For Personal & Private Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसान अगर खेत जोतता है, तो झट से चाबुक चला देता है। आत्मज्ञानी व्यक्ति ऐसी भूल नहीं करता। आत्मज्ञानी जनक भी कृषि-कार्य करते थे। वे जब हल जोतते थे, तो एक तरफ बैल होता था, तो दूसरी तरफ स्वयं जुतते थे। जो व्यक्ति बैल और मुनष्य के भीतर एक समान आत्मा मानता है, वह आत्मज्ञानी व्यक्ति भोग के द्वार पर भी पहुंचकर सदा-सदा निर्लिप्त, निस्पृह और अनासक्त बना रहता है। ऐसा नहीं है कि भोग की प्रकृति उदय में न आएगी, भोगावली कर्म तो उदय में आएंगे ही। एक व्यक्ति भोग-भोगकर उन्हें और पुष्ट करता रहता है, दूसरा इतने होश से, इतने साक्षित्व से भोगता है कि उसके द्वारा प्रवृत्ति होने के बावजूद प्रवृत्ति न हुई कहलाएगी। ज्ञानी का भोग भी कर्म-संस्कार को शिथिल करने वाला होता है। वह कर्ता-भाव से मुक्त होता है। परिणामतः वह कर्म-फल का भोक्ता नहीं होता। एक व्यक्ति वह है, जो वासना एवं भोग की अभिलाषावश भोग के प्रति उद्यत रहता है, दूसरा वह है, जो भोग का द्रष्टा बनकर भोग की वृत्ति से मुक्त हो जाता है। जनक कहते हैं कि ज्ञानी के कार्य की तुलना मूढ़ पुरुष के कार्य के साथ कैसे की जा सकती है। चलने में तो रहट भी चलता है और गन्ना पेरने की चर्बी भी, मगर दोनों के चलने में बड़ा फर्क है। एक तो गन्ने को हरा करता है, दूसरा गन्ने को पेर कर छूतों का ढेर लगा देता है। ज्ञानी-अज्ञानी के कर्म में यही अंतर है। __ ज्ञानी मृत्यु के समय भी हंसता है, अज्ञानी जिंदा रहते हुए भी रोता है। ज्ञानी के पास कुछ न हो, फिर भी पुलकित रहता है, अज्ञानी सब कुछ होते हुए भी चिंतित रहता है। ज्ञानी संसार को नाटक समझता है, अज्ञानी नाटक को भी यथार्थ मान बैठता है। यही तो फर्क है। बस, ज्ञानी की पहचान यही है कि जहां कर्ता-भाव गिर जाए साक्षी-भाव का सर्वोदय हो जाए। जो, जैसी परिस्थिति आ गई, बगैर किसी ननुनच के उससे गुजर गए। विपरीत परिस्थिति में खिन्न न हुए, अनुकूल परिस्थिति में रागासक्त न हुए। जन्म हुआ, तो थालियां न बजीं। मृत्यु हुई, तो छाती न पीटी। मृत्यु का गम नहीं। मृत्यु का भी उसी मुस्कान से स्वागत हो, जैसा कि हमने जन्म का किया था। प्रतिकूलताएं भला किसके जीवन में न आएंगी। नानक हो या कबीर, बुद्ध हो या महावीर, राम हो या रहीम, किंतु जो सदाबहार मुस्कान का स्वामी हो गया, उसे मृत्यु भी बाधित नहीं कर सकती। हर व्यक्ति सदाबहार प्रसन्न रहे। वह कर्म का कर्ता-भोक्ता नहीं, कर्म का साक्षी भर रहता है। वह हर उलटफेर के बीच निश्चित रहता है। वह नियति के हर कृत्य का स्वागत करता है। वह मस्त रहता है, हर हाल में मस्त! जब, जहां, 45 For Personal & Private Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो होना होता है, वह होगा। न तो तुम बीते की चिंता करो और न ही आने वाली सात पीढ़ियों का चिंतन । आज जितना, जो कुछ मिला है, उसे सहजता से जीयो, आनंद और बोध से जीयो । प्रकृति के घर की व्यवस्थाएं इतनी सशक्त हैं कि तुम्हारे जन्म से पहले जीवन की व्यवस्थाएं पूर्ण हो जाती हैं; कोख से धरती पर पांव पड़ने से पहले मां की छाती में दूध तैयार है । फिर किस बात की चिंता ! हमारा जीवन तो आईने की तरह होना चाहिए कि जब उसके सामने गए, तो उसने हमारा चेहरा हमें दिखा दिया और जैसे ही उसके सामने से हटे कि आईना पहले की तरह साफ । एक मशहूर संत हुए-तानज़ेन । तानज़ेन और उनके गुरु दोनों कहीं से लौट रहे थे कि तभी जोरों की बारिश हुई। रास्ता कीचड़ से भर गया, मगर वे चलते रहे। वे नदी के किनारे पहुंचे। वे नदी को पार करने वाले ही थे कि तभी एक युवती की आवाज आई। युवती ने पास आकर कहा- महानुभाव, बरसात का मौसम है। नदी में पानी बढ़ चला है । मैं अकेली हूं । डर रही हूं कि कहीं नदी में डूब न जाऊं । क्यों न आप मेरा हाथ थामकर मुझे नदी पार करा दें। गुरु ने कहा- नहीं - नहीं, हम ऐसा नहीं कर सकते। हम किसी स्त्री का स्पर्श नहीं करते। गुरु तो चल पड़े, मगर तानज़ेन वहीं रुक गए। तानज़ेन ने युवती से कहा - आओ, तुम परेशान मत होओ। चलो, मैं तुम्हें पार लगा देता हूं। उसने उसका हाथ पकड़कर नदी पार करा दी। दोनों अपने गंतव्य की ओर चल पड़े । तानज़ेन और उसके गुरु अपने स्थान पर पहुंचे और सो गए, लेकिन गुरु को रात को नींद नहीं आई। अगले दिन गुरु ने शिष्य को टोका - तुम्हें मालूम है कि हम स्त्री का स्पर्श नहीं करते। इसके बावजूद तुमने उसे नदी से पार कैसे लगा दिया ? तानज़ेन मुस्कराया और कहा- ओह, तो आप उस युवती की बात कर रहे हैं। मैं तो उस युवती को वहीं पर छोड़ आया था, पर आप तो उस युवती को यहां तक ले आए हैं और पूरी रात उसे अपने साथ रखा; विचारों में.... । जनक यही तो कहते हैं - आत्मज्ञानी पुरुष की उस मूढ़ आदमी से तुलना कैसे की जा सकती है, जो कि संसार को अपने सिर पर ढोए चलता है । प्रभु, भोगलीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीर पुरुष की तुलना संसारी व्यक्ति के साथ नहीं की जा सकती। उन्होंने बतौर निवेदन अपने सद्गुरु से कहा तज्ज्ञस्य पुण्यपापाभ्यां स्पर्शो ह्यन्तर्न जायते । न ह्याकाशस्य धूमेन, दृश्यमानाऽपि संगतिः ॥ 46 For Personal & Private Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जनक कहते हैं- उस पद को जानने वाले के अंतःकरण का स्पर्श पुण्य और पाप के साथ वैसे ही नहीं हो सकता, जैसे आकाश का संबंध धुएं के साथ नहीं हो सकता । आत्मज्ञानी व्यक्ति का केवल धन, काम या भोग - परिभोग से ही कोई संबंध नहीं होता, वरन् उसका तो पाप और पुण्य से भी कोई नाता नहीं । ठीक उसी प्रकार जैसे धुआं आकाश की ओर उठता है, तो लगता है कि आकाश और धुंआ एक हो रहे हैं, लेकिन वस्तुतः उनके बीच कोई संबंध नहीं होता । जनक उसी आकाश की भांति अनंत और निस्पृह हैं, जिसमें अब चाहे जैसी बदलियां चलें, चाहे जैसी बिजलियां गरजें, कोई प्रभाव नहीं । ऐसी ही अवस्था इस मुमुक्षु आत्मा की है, जिसका न पाप के साथ संबंध है और न ही पुण्य के साथ । मनुष्य के लिए पाप ही बंधन नहीं है, पुण्य भी बंधन है। महावीर ने कभी अपने शिष्यों से कहा था कि सांकल चाहे लोहे की हो, चाहे सोने की । गले में डालोगे, तो दोनों ही फांसी का फंदा बनेंगी। किसी से धन छीनकर किया गया पाप और किसी को दान देकर कमाया गया पुण्य, दोनों जन्म-मरण के बंधन का कारण बनते हैं । अपरिग्रह की भावना से किया गया दान कभी पुण्य नहीं होगा, वह तो परिग्रह-मुक्ति का शुद्ध आचरण ही है। दान हमेशा अहम् भाव को पुष्ट करता है, कर्ता - भाव को बढ़ाता है। दान हमेशा एक को बड़ा, एक को छोटा दिखाता है । औरों के लिए अपने मन में उदारता लाओ, सहयोग की भावना लाओ, दान की भावना कतई नहीं। मनुष्य मनुष्य को कभी दान नहीं दे सकता, वह सहयोग कर सकता है। मनुष्य परमात्मा को कभी दान नहीं दे सकता। वह परमात्मा और गुरु के प्रति केवल समर्पण कर सकता है । समर्पण और दान में बड़ा फर्क है । दान में कर्ता-भाव रहता है और समर्पण में कर्ता-भाव मिटता है, इसलिए दान नहीं, सहयोग और समर्पण की भावना हमारे मन में आत्मसात् हो । माना हम कर्ण बनकर अपना जीवन कुर्बान नहीं कर सकते, राजा शिवि बनकर अपनी जंघा का मांस काटकर कबूतर की जान नहीं बचा सकते, मगर हम द्वार पर आए याचक की झोली तो भर सकते हैं; गरीब पड़ोसी के बच्चे की साक्षरता का इंतजाम तो कर सकते हैं सबको दो, सबको लुटाओ, मगर देकर भूल जाओ । पाप को तो जीवन से हटा ही दो, पुण्य को भी दरिया में डाल दो। मैं तो दे रहा हूं, क्योंकि देने में आनंद आता है। जहां देने में आनंद है, वहां कौन-सा पाप, कौन-सा पुण्य ! वहां आदमी पाप और पुण्यों से वैसे ही निर्लिप्त है, जैसे आकाश बादलों से निस्पृह और निर्लिप्त 47 For Personal & Private Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रहता है। शून्य बनो, अपने आपको आकाश बनाओ। अपने आपको जितना खाली करोगे, उतने ही पूर्ण होते चले जाओगे। शून्य में ही पूर्ण साकार होता है। जनक ने अहं का त्याग किया, तो जीवन में सर्वम् घटित हुआ। बेहतर होगा आदमी भीतर से स्वयं को निर्लिप्त करता चला जाए। परिवार के बीच जीया, संसार के बीच, लेकिन स्वयं को आध्यात्मिक मार्ग पर रखे। कर्तव्य कर्मों को करते हए भी स्वयं को उनसे निर्लिप्त रखे। ऐसा व्यक्ति कभी मायूसियों से नहीं घिरता, प्रसन्नता सदाबहार रहती है। यह बात जीवन में बार-बार मनन करने के लिए, आचरण के लिए है, उन्मुक्त आकाश में उड़ान भरने के लिए है। जैसे धुआं आकाश को नहीं छू सकता, ऐसे ही हम संसार में जिएं कि संसार हमें छू न पाए। संसार में रहकर भी संसार से अस्पर्शित रहें। अस्पर्श-योग को जीना ही कृष्ण की अनासक्ति है, महावीर की वीतरागता है। कैवल्य और समाधि को जीवन में अंकुरित और पुष्पित करने का सही मार्ग है। आज इतना ही। नमस्कार। 48 For Personal & Private Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग हो देह-भाव का मनुष्य एक दीया है, एक ऐसा दीया, जिसमें माटी भी है और ज्योति भी। मनुष्य । स्वयं एक मंदिर है, एक ऐसा मंदिर, जिसमें पूजागृह भी है और उसका देवता भी। मनुष्य के लिए एक ओर संसार का मार्ग है, दूसरी ओर निर्वाण का मार्ग। जिससे माटी के दीये में केवल माटी दिखाई देती है, उसे संसार के नाम पर केवल माटी ही हाथ लगती है। जिसे केवल मंदिर की कोरनी की सुंदरता ही दिखाई देती है, उसके हाथ मंदिर के नाम पर केवल गारे-मिट्टी से बना ‘मंदिर' ही लगता है। जिसकी अंतर्दृष्टि ज्योति पर जाकर केंद्रित हो जाती है, उसका जीवन अपने आप ही ज्योतिर्मय हो जाता है। जिसकी आंख मंदिर के देवता पर जाकर केंद्रित हो जाती है, उसके जीवन में देवत्व अपने आप अवतरित हो जाता है। अष्टावक्र जैसे महर्षियों को सुनना हमारे लिए तभी सार्थक हो सकता है, जब हमारे भीतर ज्योति की एक अभीप्सा जग जाए, हमारे भीतर देवत्व की प्यास प्रबल हो उठे, अनंत आकाश को देखने की मुमुक्षा जाग्रत हो जाए। ___मैंने माटी को माटी होते देखा है और ज्योति को परम ज्योति में विलीन होते पाया है। इन आंखों ने मिट्टी से बनते दीये को भी देखा है और मिट्टी से बनती काया को भी निहारा है । मिट्टी, मिट्टी से बनी और उसी में समा गई। इस बनने-मिटने के पहले और बाद में जो ध्रुवत्व रहा, जो शाश्वत और निस्सीम रहा, उसे भी अंतस्-चक्षुओं ने निरखा है। यह देह पानी का बुलबुला है, जो बना, थोड़ी देर पानी पर रहा और फिर उसी में सिमट गया। लोग भले ही संसार में बंद मुट्ठी लेकर आते हैं, लेकिन जाते वक्त हाथ पसारे हुए ही जाते हैं, यह जतलाने के लिए कि माटी केवल माटी के लिए ही जी पाई। वह माटी धन्य हो जाती है, जो थोड़ी-सी भी ध्रुव के लिए जी जाती है, आत्मप्रज्ञ होने के लिए स्वयं को बलिदान कर जाती है। माटी की तभी सार्थकता है, जब यह बिखरने से पहले मानवता के काम आ जाए, इसके रक्त की एक बूंद किसी की जान बख्श दे। __ भोग-लीला मनुष्य के अज्ञान की परिणति है और त्याग उसके ज्ञान का सहज परिणाम। जहां अंतर्ज्ञान घटित होता है, वहां त्याग अपने आप चला आता है। 49 For Personal & Private Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्याग ज्ञापन का अनुगामी होता है। बाहर से त्याग हो और भीतर से स्मरण हो, वहां त्याग, त्याग नहीं, आत्म- प्रवंचना है । वह त्याग व्यक्ति को बाहर से सम्मान और यश दिला सकता है, लेकिन भीतर की कुंठा को कम नहीं कर सकता । क्रोध छोड़ो, अभिमान छोड़ो, राग-द्वेष छोड़ो- ये बातें कहना-सुनना बड़ा आसान है। अब तक आप ये बातें कितनी - कितनी बार सुन चुके होंगे, लेकिन आत्मसात नहीं हो पाईं । आत्मसात तभी हो सकती हैं, जब व्यक्ति अपनी मूल जड़ों को पहचाने, उनको झकझोरे, जो केवल आत्मज्ञान से ही संभव है । जब तक व्यक्ति को आत्मज्ञान उपलब्ध नहीं होगा, तब तक अहिंसा, अहिंसा नहीं बन पाती; तब कोई अचौर्य जीवन में घटित नहीं हो सकता; अपरिग्रह जीवन की परछाई और सत्य जीवन का प्रकाश नहीं बन पाता । सत्य, अहिंसा, अचौर्य तो फूल हैं, बीज नहीं हैं। बीज तो आत्मज्ञान है, जिसके अंकुरण से ये फूल खिलेंगे। आत्मज्ञान व्यक्ति के जीवन में त्याग अपने आप ले आता है, कोई प्रयास नहीं करना पड़ता । आत्मज्ञान यानी जीवन की अंतर्प्रतीति, आत्मज्ञान यानी स्वत्व की अनुभूति | अंतर् - अनुभूति त्याग को अनायास अपनी परछाईं की तरह साथ ले जाती है । कहते हैंहैं- राजा भर्तृहरि को किसी आगंतुक ने एक अमृतफल भेंट किया और कहा- राजन्, यह अमृतफल स्वीकार करें। जो कोई इस अमृतफल का सेवन करता है, उसका बुढ़ापा चला जाता है, वह नई ताजगी, नया यौवन पा लेता है । सम्राट ने मन-ही-मन सोचा, मैं तो बहुत जी लिया, मैं क्या खाऊं? क्यों न यह फल राजरानी को दे दूं? उसने मेरे लिए अपने आपको समर्पित किया है। सम्राट ने वह फल राजरानी को दे दिया । राजरानी के संबंध किसी महावत से थे, इसलिए उसने वह फल अनुपम उपहार के रूप में महावत को दे दिया । महावत किसी वेश्या से जुड़ा हुआ था, उसने वह फल वेश्या को सौंप दिया । वेश्या ने सोचा कि मैंने तो जीवन भर पाप-ही- पाप किया है। मैं क्या इस फल को खाऊं ? इस फल को पाने के सच्चे अधिकारी तो मेरे प्राणप्रिय महाराज हैं। यह सोचकर वेश्या राजसभा में वह अमृतफल भेंट करने पहुंची। उसके हाथ में वह अमृतफल देखकर राजा को आश्चर्य हुआ । राजा को वेश्या से और महावत से तफ़सील हासिल हुई। तब राजसभा के बीच विराजमान राजा भर्तृहरि संन्यास की अपूर्व आभा से अभिमंडित हो उठा और कहने 1 लगा यां चिंतयामि सततं मयि सा विरक्ता । मैं जिसके बारे में इतना सोचा करता था, मुझे क्या मालूम था कि वह मुझसे इतनी विरक्त है। 50 For Personal & Private Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदा-सदा स्मरण रखना कि तुम जिसके लिए मरते हो, संभव है, वह तुमसे विरक्त हो। जैसी ही जीवंत प्रतीति होती है, अनुभूति होती है, रूपांतरण स्वतः घटित होता है। रूपांतरण घटित न हो, परिवर्तन न आए, तो समझो वह 'अनुभूति' छलावा ही थी। अगर जीवन में वैराग्य न आया, तो बंदा माटी में जन्मा, माटी पर ही केंद्रित रहा और अंततः उसी माटी में समा गया। जिसकी दृष्टि जग गई, जिसकी आंख खुल गई, वह ज्योति पर स्थिर हो जाता है, ज्योति-पथ पर अपने कदम बढ़ा देता है। तब राजा भर्तृहरि जीवन में राजर्षि भर्तृहरि हो जाते हैं; तब फिर से कोई जनक यह उद्घोषणा कर देते हैं कि भोग-लीलाओं के बीच खेलते हुए भी मैं वैसे ही निर्लिप्त रहता हूं, जैसे कीचड़ में खिला कोई कमल। अष्टावक्र स्थूल को तो गिरा ही चुके हैं, अब सूक्ष्म को भी गिरा देना चाहते हैं। वे कहते हैं न ते संगोऽस्ति केनापि, किं शुद्धस्त्यक्तु मिच्छसि। संघातविलयं कुर्वन्नेवमेव लयं व्रज ॥ अर्थात तेरा किसी से संग नहीं है, तू शुद्ध है, फिर तू किसको त्यागना चाहता है? तू देहाभिमान का त्याग कर, मोक्ष को प्राप्त हो। अष्टावक्र कहते हैं कि जब तुम भोग-लीलाओं के बीच खेलते हुए भी उनसे अलिप्त खड़े हो, तो वत्स! तुम्हारा किसी से भी संग नहीं है, किसी से भी गठजोड़ नहीं है। ये जो संग-साथ तुम देख रहे हो, ये संग-साथ तो बस, जब तक हैं, तब तक है। सारे संग-साथ सांयोगिक हैं। हम संयोग को संयोग भर मान लें, तो तत्क्षण तुम अपने आपको एकत्व के द्वार पर खड़ा पाओगे। यही स्थिति तो बुद्धत्त्व है। बुद्ध जिस दिन इस सत्य को समझ गए, उनके सारे बंधन खुद-ब-खुद छूट गए। वे स्याह अंधेरे में अपनी पत्नी और पुत्र को सोते हुए छोड़कर, राजमहलों को छोड़कर निकल पड़े। जीवन में जब ज्ञान जग चुका और त्याग घटित हो गया, तो आदमी आगे-पीछे की नहीं विचारता। चिंता छूट गई, चिंतन प्रकट हो गया। अष्टावक्र जन-जन को यही संदेश देना चाहते हैं कि तू त्याग करना ही चाहता है, तो देह का, देह के अभिमान का त्याग कर, ताकि त्याग भी सार्थक और गौरवान्वित हो सके। जिसका देह का अभिमान छूट गया, राग छूट गया, उसके मन में व्याधि रहते हुए भी समाधि रहती है। तन चाहे जिस द्वार से गुजरता चला जाए, मगर उसकी साधना और समाधि को खंडित नहीं किया जा सकता। वह मंदिर के अखंड दीपक की तरह ज्योतिर्मय रहता है। 51 For Personal & Private Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगर त्याग ही करना है, तो देहाभिमान का त्याग करो। छिट-पुट त्यागों से क्या होगा! केवल मन को तसल्ली भर मिलेगी कि हां, मैंने त्याग के नाम पर कुछ त्याग किया। तुम त्याग का आश्वासन भर ही पा सकोगे। चेतना में त्याग का सौंदर्य प्रकट न हो पाएगा। देहाभिमान के त्याग में सारे त्याग समा जाते हैं, जैसे सागर में सारी नदियां समा जाती हैं, ऐसे ही देह-भाव के त्याग में सारे त्याग निमज्जित हो जाते हैं। त्याग हो ऐसा, जो हमें देहातीत कर दे, विदेह मुक्ति प्रदान कर दे। आदमी मच्छित है, दखी और पीड़ित है, क्यों? क्योंकि आदमी मानता है, यह मेरा शरीर, यह मेरा परिवार। इस ममत्व के आरोपण के कारण ही आदमी दुखी है। आदमी का अपनी देह के प्रति असीम अनुराग है, तभी तो वह एक छोटा-सा कांटा चुभने से ही बेचैन हो उठता है। ____ एक छोटे से कांटे की व्याधि भी वह बरदाश्त नहीं कर पाता। देह का एक छोटा-सा संवेग भी उसे बहा ले जाता है। देह की कामुकता उसे कामुक बना डालती है। देह की भूख उसे शैतान बना देती है। हम केवल देही हो गए हैं। देह में कोई देवता रहता है, उस ओर हमारा ध्यान ही नहीं है। हम दीये की माटी की सजावट और उसके सौंदर्य पर ही, उसके सुख पर ही अटक गए। हमारा यह अटकाव ही चेतना के भटकाव का कारण बन गया है। आसक्ति का लंगर बन गया है। कहते हैं-राजकुमार मेघ ने संन्यास लिया। राजकुमार जैसे सैकड़ों शिष्य और थे। स्वाभाविक है कि जो नया होगा, उसका स्थान दरवाजे तक पहुंचेगा ही, सो संत मेघ को भी रात को सोने के लिए वहीं जगह मिली। पेशाब की निवृत्ति के लिए बड़े-बूढ़े संत बार-बार आ-जा रहे थे। उनके पैरों की आहट और ठोकर जब-तब संत मेघ को जगा जाती। मेघ तिलमिला उठा। वह सोचने लगा कि मुझे अगर यह पता होता कि संन्यास में इतनी तकलीफें हैं, तो मैं कदापि संन्यास नहीं लेता। अब भी क्या बीता है। मैं तो राजकुमार रहा ही हूं। कल वापस राजमहलों में चला जाऊंगा और पिताजी से कह दूंगा कि मुझे ऐसा संन्यास नहीं जीना। संत मेघ के मन में रात भर उधेड़-बुन चलती रही, ऊहापोह मची रही। अगले दिन जैसे ही उसने आश्रम को छोड़कर राजमहल के लिए कदम बढ़ाए कि भीतर से सद्गुरु ने पुकारा-मेघ, इतनी जल्दी ही मार्ग से विचलित हो गए। वह चौंका, सोचने लगा-सद्गुरु ने मुझे कैसे पहचाना? सद्गुरु ने कहा-मेघ, मैंने तुम्हारे मन की तरंगों को पढ़ लिया है। आज तुम दो-चार वृद्ध संतों के पांवों की ठोकर से इतने विचलित हो गए। तुम्हारा अपनी देह से इतना राग! जरा स्मरण कर कि आज से पहले तू कौन था, कहां से आया, किस पुण्य के बल पर राजकुमार हुआ? 52 For Personal & Private Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सद्गुरु संत मेघ को उसके पूर्वजन्म के बारे में बताने लगे-मेघ, तू पूर्वजन्म में हाथी था। एक बार जंगल में आग लग गई, तो तुमने सब जीवों की रक्षा के लिए पेड़ों को उखाड़-उखाड़ कर एक मैदान बनाया। जंगल के सारे जानवर उसमें इकट्ठे हो गए। तभी तुमने खुजली मिटाने के लिए अपना एक पांव ऊपर उठाया। खाली जगह की तलाश में एक खरगोश चला आया। जहां तेरा पांव पहले रखा हुआ था, उसने वहां शरण ले ली। जैसे ही तुम अपना पांव नीचे रखने को हुए कि तुमने सोचा-यह बेचारा शरण में आया है। मुझे क्या फर्क पड़ेगा, अगर मैं शेष पांवों पर ही खड़ा रह लूंगा। आग बड़ी भयानक थी। तीन रात तक आग जलती रही और जब आग बझी तो खरगोश निकल भागा। तुमने अपना पांव नीचे करना चाहा, तो वह इतना जकड़ चुका था कि नीचे नहीं कर पाए। जमीन पर धड़ाम से आ गिरे और मर गए। मेरे प्रिय मेघ, जरा यह सोच कि तू एक हाथी था, एक जानवर था, फिर भी अपनी देह की पीड़ा को इस तरह सहन कर गया। संत-जीवन में आकर तू देह-राग के कारण इतना विचलित हो गया? सद्गुरु ने उसे संबोधि दी, मार्ग दिखाया। इस आत्मज्ञान की दिशा को उपलब्ध कर मेघ ने अपनी काया अपने लिए नहीं जी। उसने सारा जीवन संतों की सेवा-सुश्रूषा में समर्पित कर दिया। अपनी देह को औरों के लिए जीकर वह सदा विदेह, सदा मुक्त रहा। देह का अगर राग टूट जाए, तो तुम देह में रहते हुए भी ऐसे जीओगे, जैसे कीचड़ के बीच कमल रहता है। तुम देह में जीते हुए भी देह से अलग बने हुए रहोगे; देह का साक्षित्व सदा-सदा तुम्हारे साथ रहेगा। इसलिए अष्टावक्र कहना चाहते हैं कि अगर तू त्याग करना ही चाहता है, तो देह के अभिमान का त्याग कर, देह के राग का त्याग कर, देह का पोषण करने की तुम्हारे भीतर जो ममत्व-बुद्धि है, उसका त्याग कर। भोजन कीजिए, पर प्रेमपूर्वक। कड़वी या फीकी, जैसी भी मिली है, उसे ग्रहण करें। यह आपके जीवन में समत्व-योग होगा, सामायिक का आचरण होगा। भोजन करते हुए भी हम साधना को अपने जीवन में जी जाएंगे। जनक परमज्ञानी तो थे ही, अष्टावक्र का सान्निध्य पाकर आत्मज्ञान भी मिल गया। वे अष्टावक्र के संदेश को सुनकर जवाब देते हैं आकाश वदनन्तोऽहं, घटवत् प्राकृतं जगत्। इति ज्ञानं तथैतस्य, न त्यागो न ग्रहो लयः ॥ जनक कहते हैं- भगवन, मैं तो आकाश की भांति अनंत हूं, यह संसार घड़े की तरह प्रकृतिजन्य है, ऐसा ज्ञान है, इसलिए न इसका त्याग है, न ग्रहण है और न लय है। 53 For Personal & Private Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संभवतः अध्यात्म का इससे सूक्ष्म ज्ञान और कोई न होगा, जहां कहा गया है कि मैं आकाश की भांति अनंत हूं और यह सारा संसार प्रकृतिजन्य है। सारा संसार बनता है, मिटता है, पर मैं न बनता हूं, न मिटता हूं। मैं तो उस आकाश की भांति अनंत हूं, जिसमें न जाने कितने पंछी उड़ते हैं, जाने कितने चांद और सितारे दमकते हैं, न जाने कितनी बिजलियां चमकती हैं, बादल गरजते हैं, फिर भी मुझमें कुछ भी नहीं होता। मैं तो मिटने और बनने के कालचक्र से अलिप्त खड़ा हूं। आप भी उसी आकाश पर नजरें जमाइए, एकटक देखते जाइए। पलकें अपने आप बंद होती चली जाएंगी और जिस आकाश को तुम बाहर देख रहे थे, वही भीतर दिखाई देने लगता है; आकाश हमारे भीतर घटित होने लगता है। भीतर के शून्य आकाश को उपलब्ध हो जाना, स्वयं को उपलब्ध हो जाना है। बनना और मिटना तो आकारों का होता है, शरीर के पर्यायों का होता है। आकार के भीतर रहने वाले शून्य-आकाश को अगर तुम ढूंढ़ लेते हो, तो आकार गिर जाता है और निराकार नाच उठता है। तब निराकार के साथ हम ऐसे एकाकार हो जाते हैं, जैसे आंख और आकाश एकाकार-एकलय हो रहे हैं। तब बाहर भी आकाश है और भीतर भी आकाश। फलतः आकाश, आकाश में समा जाता है; ज्योति, ज्योति में तद्रूप हो जाती है। तब जीवन ज्योतिर्मय हो उठता है; मन की अराजकता-पागलपन स्वतः शांत और तिरोहित हो जाता है। तब तुम कमल की भांति अनासक्त-निर्लिप्त हो जाते हो। तुम संसार में रहते हो, जीते हो, मगर अपने आपको उससे ऐसे ही अलिप्त खड़ा पाओगे, जैसे सागर के किनारे खड़ा पथिक, दलदल से अलिप्त अरविंद। 54 For Personal & Private Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थितप्रज्ञ की स्थिति मनुष्य का जीवन ऐसा हो, जैसे धरती पर खिला हुआ कोई गुलाब का फूल। । जो केवल फूलों के आकार-प्रकार और रंग-रूप से ही मोहब्बत करते हैं, उनके लिए तो कागज के फूल ही पर्याप्त होते हैं। कागज के फूल दिखने में असली फूलों जैसे ही होते हैं, किंतु उनके पार केवल वे ही होते हैं। धरती पर खिले हुए किसी फूल को निहारो, तो केवल फूल ही दिखाई नहीं देता, वरन् फूलों के पार जो अदृश्य है, वह भी दृष्टिगत होता है। वह अदृश्य ही फूलों का मूल प्राण है। जहां व्यक्ति अपने प्राणों के जरिए फूलों के प्राणों को निहारता है, वहां प्राण केवल प्राण नहीं रहते, प्राण भी महाप्राण बन जाते हैं। कागज के फूल तो बाजारू हैं, लेकिन धरती पर खिले फूल तो मां की गोद में खेलते मासूम बच्चे की तरह हैं। __ आज का इन्सान कागज के फूलों की तरह है। आकार-प्रकार से वह पूर्ण मनुष्य दिखाई देता है, लेकिन उसके भीतर सुवास और कोमलता नजर नहीं आती। उस मंदिर का मूल्य ही क्या, जिसका भगवान उसमें नहीं रहता हो। मस्जिद के फानूस और चर्च की मोमबत्ती का प्रकाश तो आख़िर बाहर से जलाया गया प्रकाश है। प्रकाश तो वह है, जो फानूस और मोमबत्ती के बुझ जाने पर भी, चांद और सूरज के डूब जाने पर भी आदमी की आंखों में सदा-सदा बना रहे। घुप अंधेरे में भी तुम्हारी अंतरात्मा का प्रकाश तुम्हें अपनी पहचान करवा ही देगा, तुम्हें दिग्दर्शन करवा ही देगा। अष्टावक्र उसी प्रकाश की बात करना चाहते हैं, जो दुनिया भर के घटाटोप अंधकार के बीच भी तुम्हें राह दिखा दे। स्वयं के भीतर के इस प्रकाश का बोध तुम नहीं कर पाए, तो तुम्हारी आत्मा तुम्हें कभी माफ नहीं करेगी। तुम हजारों-हजार दीये क्यों न जला लो, अपना एक दीया अनबुझा रह गया, तो बाहरी दीये भी क्या अर्थ रख पाएंगे! गधे की पीठ पर अगर चंदन भी ढो लो, तब भी उसके लिए तो वह केवल भार ही है। अगर स्वयं के जीवन में स्वयं की सुवास नहीं है, तो जीवन कागज का फूल ही होगा। 55 For Personal & Private Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वही पुष्प हमारे सिर का शृंगार हो सकेगा, हमारी आंखों का आकर्षण हो सकेगा, हमारे हृदय में स्थान पा सकेगा, जिसमें अपनी कोई सुवास है, जिसकी अपनी प्राणवत्ता है। कागज के फूलों से परहेज रखते हुए असली फूलों की तरफ अपनी नजर उठाओ, ताकि चेतना का नया गीत फूट सके, नया अध्याय आरंभ हो सके, चेतना के संसार का सृजन हो सके। मनुष्य के लिए उसका जीवन ही भारतभूत हो गया है। प्राणों की उसे खबर नहीं है, प्रकाश का उसे पता नहीं है, सुवास का कोई संदेश नहीं है। मनुष्य ने अपने आपको बाहर के ज्ञान से, शिक्षाओं से, पांडित्य से इतना अधिक भर लिया है कि आदमी के पास जीवन के ज्ञान के नाम पर केवल कल्पनाएं हैं, कोरी धारणाएं, स्मृतियां और चिंताएं हैं। जीवन के प्रति प्यास और अभीप्सा किसी में नहीं है, वह अखंड जीवन, जहां न जन्म है, न मृत्यु है। जहां केवल जीवन है। जो आज जीवित है, वह मृत्यु के द्वार से गुजरने पर भी जीवित रहेगा। बीते हुए की याद करके कोई बीते हुए को लौटाकर नहीं ला सकता, भविष्य की कल्पनाएं करके उसे आज में परिणित नहीं कर सकता। जैसा है, वैसा जीओ। न अतीत की चिंता हो और न भविष्य की कल्पना। जहां आदमी केवल वर्तमान का होकर रहता है, वहां जीवन में अंतरात्मा प्रवर्तमान रहती है। साधु तो बहुत हो जाते हैं, लेकिन उनमें साधुता के, साधना के फल नहीं खिल पाते। वे कहलाने भर को साधु हैं। उनके जीवन से साधना पूर्णतः गायब है। फिर तो साधु एक स्वांग हो गया, बहुरूपिया हो गया; फिर तो धर्म भी प्रदर्शन का रूप ले बैठेगा, प्रलोभन बन जाएगा। धर्म व्यक्ति की धारणा नहीं बने, वह व्यक्ति-व्यक्ति को धारण करने वाला बने। धर्म में न प्रलोभन हो, न प्रदर्शन हो, केवल शुद्धता की बात हो। धर्म के मर्म की ओर वे ही बढ़ पाते हैं, जो अंधेरे में खड़े हुए प्रकाश के लिए प्रतीक्षारत हैं। इस प्रांगण में भी सुनने के लिए वे लोग ही आ रहे हैं, जो यथार्थ में यह अनुभव करते हैं कि जीवन में कहीं अंधकार है। जहां साधना, योग और आचरण न होगा, वहां केवल नौटंकी और मजमेबाजी होगी। जीवन भी रामलीला का मात्र अभिनय होगा, राम को आचरण में उतारने का प्रयास नहीं होगा। कोई राम के वेश में होगा, कोई रावण की शक्ल में । धर्म अभिनय अथवा अभिनय का उपकरण नहीं है। वह तो आदमी को अनंत आकाश की ओर ले जाता है; उस मौलिक आत्मस्वरूप की ओर ले जाता है, जहां कि अष्टावक्र हम सबको ले जाने के आकांक्षी हैं। यह मनुष्य की बहुत बड़ी विडंबना रही है कि उसका अवतार आकाश से हुआ है, पर उसका स्वयं का आकाश उसके हाथ से 56 For Personal & Private Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं छिटक गया है। मनुष्य को बाहर का आकाश ही दिखाई देता है। उसका भीतर का आकाश न जाने कैसे आच्छादित हो गया है। उसके पास उसका शून्य आकाश न बचा। जिस दिन आदमी को यह शून्य आकाश उपलब्ध हो जाता है, उस दिन वह उस अनंत को उपलब्ध हो जाता है, जिसके सामने दुनिया भर की संपदाएं तुच्छ और नगण्य होती हैं। कहते हैं-एक बड़े पवित्र और आत्मबोधि को उपलब्ध संत हुए, जिनका नाम था-बालशेम । बालशेम प्रतिदिन पौ फटने से पहले झील किनारे जाते, वहां जाकर वे झील को देखते। कुछ न करते, जल में उठने वाली तरंगों को शांतभाव से निहारा करते। मानो लहरों को देखना ही उनके जीवन की अंतर्दृष्टि हो। एक पहरेदार उनको रोज सवेरे अंधेरे-अंधेरे नदी की तरफ जाते देखता। वह सशंकित था। एक दिन पहरेदार ने बालशेम का पीछा किया। पहरेदार आश्चर्यचकित था कि संत नदी किनारे जाकर लहरों को एकटक क्यों देखा करते हैं? आखिर पहरेदार से रहा नहीं गया। उसने बालशेम को रोका और पूछा-महानुभाव, आप कौन हैं ? बालशेम इस प्रश्न से चौंके। उन्होंने कहा-जो प्रश्न तुमने मुझसे किया है, वही प्रश्न तो मैं अपने आप से पूछा करता हूं। मैं जवाब दूं, इससे पहले क्यों न तुम अपना परिचय दो। उसने कहा-मैं तो पहरेदार हूं। बालशेम मुस्कराए और कहा-मैं भी अपना नाम ढूंढ़ रहा था, पहरेदार से बेहतरीन नाम और क्या हो सकता है। भाई, मैं भी पहरेदार हूं। बालशेम का जवाब पाकर पहरेदार और उत्सुक हो उठा। उसे समझते देर न लगी कि वे सामान्य संत नहीं हैं। पहरेदार ने कहा-प्रभु, मैं आपकी बात को पूरी तरह नहीं समझ पाया। मुझे विस्तार से समझाएं। बालशेम ने कहा-तुम पहरा देते हो, मैं भी पहरा देता हूं। तुम मकान के बाहर गुजरने वालों पर नजर रखते हो और मैं मकान के भीतर रहने वालों का पहरा देता हूं। पहरेदार ने कहा-ठीक है, आप भी पहरा देते होंगे, पर इसके बदले में आपको मिलता क्या है, क्योंकि मुझे तो अपने इस काम का मेहनताना मिलता है। बालशेम ने कहा-मेरे द्वारा इस पहरेदारी के बदले में जो मेहनताना, जो पुरस्कार मिलता है, उसके आगे तो दुनिया भर की सारी संपदाएं नगण्य और तुच्छ हैं। मैं उस अनंत संपदा का स्वामी बन रहा हूं, जिसके स्वामी कभी कोई जनक बने, कभी कोई भरत बने। पहरेदार ने पूछा-क्या मैं भी यह पुरस्कार पा सकता हूं? बालशेम ने कहा-अवश्य, हर कोई इस अनंत संपदा का स्वामी हो सकता है। तुम तो पहरेदार हो ही। तुम्हें तो बस दिशा-परिवर्तन भर की जरूरत है। तब तुम जिस चेतना के स्वामी बनोगे, उससे तुम कृतपुण्य हो जाओगे; आनंद की रिमझिम बौछारें तुम पर बरसेंगी। 57 For Personal & Private Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अगला सूत्र है मय्यनन्तमहाम्भोधौ, जगद् वीचिः स्वभावतः। उदेतु वास्तमायातु, न मे वृद्धिः न च क्षति ॥ जनक कहते हैं-मुझ अंतहीन महासमुद्र में जगतरूपी लहर स्वभाव से उदय हो, चाहे मिटे। मेरी न वृद्धि है, न हानि। जनक कहते हैं कि 'मुझ अंतहीन महासमुद्र में'। कोई पता थोड़े ही है कि तुम्हारा महासमुद्र कितना विस्तृत और विराट है। भले ही आपको लगता होगा कि आपका शरीर पांच या छः फीट का है, पर हकीकत यह है कि इसका वास्तविक विस्तार आंकना मुश्किल है। अपने मुंह से निकला एक-एक शब्द अनंत में व्याप्त हो रहा है। यह मत सोचना कि मैं जो बोल रहा हूं, वह इस प्रांगण में ही या आपके अंतःकरण तक ही यह बात पहुंच रही है। ये शब्द अखिल ब्रह्मांड तक पहुंच रहे हैं। आप टेलीविजन देखते हैं, जो तरंगों के माध्यम से ही संचालित होता है। ये तरंगें अखिल ब्रह्मांड तक प्रसारित होती हैं। इस रूप में तुम शब्द और मन के द्वारा महासमुद्र हो; तुम एक पल में यहां हो तो अगले ही पल दुनिया के उस छोर पर। स्वाभाविक है कि एक ज्ञानी व्यक्ति के भीतर भी जगत की कोई तरंग उठ जाए। आत्मज्ञान तो बहुत भीतर की घटना है। चित्त की वृत्ति, तरंग तो फिर भी उठ सकती है, इसीलिए मैंने कहा कि आत्मज्ञान पाना आदमी के लिए सरल है, चित्त पर जमी हुई वृत्ति की परतों को, संस्कारों की चट्टानों को हटाना ज्यादा कठिन है। आत्मज्ञान उपलब्ध हो जाए और चित्त की शुद्धि न हो, तो जगतरूपी लहर के पैदा होने की संभावनाएं प्रबल रहती हैं। जिसने जाना है स्वयं को, स्वयं में समाहित त्रैकालिक सत्य को, वह जगत् की तरंग का द्रष्टा-भर रहता है। वह देह को, देह के धर्म को देखता है, मन को, मन के धर्म को देखता है, पर वह केवल द्रष्टा ही बना रहता है। देह और देह के धर्म अपना काम करते हैं और द्रष्टा हर हाल में अलिप्त बना रहता है। जनक के जीवन की एक घटना है। कहते हैं-ऋषि याज्ञवल्क्य अपना प्रवचन शुरू करने वाले थे। सभागृह खचाखच भर गया था, लेकिन सम्राट जनक सभा में उपस्थित नहीं हो पाए थे। लोगों में कानाफूसी होने लगी कि महर्षि हो गए, तो क्या हुआ, राजा की जरूरत तो इन्हें भी है। कानाफूसी याज्ञवल्क्य के अंतर्केन्द्र में प्रतिबिंबित हुई। थोड़ी ही देर में जनक आ गए। तब महर्षि याज्ञवल्क्य ने प्रवचन प्रारंभ किया। प्रवचन पूरा ही नहीं हुआ था कि तभी एक घटना घटी, एक माया रची गई। कोई व्यक्ति शहर से दौड़ता हुआ आया और कहने लगा कि मिथिलानगरी 58 For Personal & Private Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में आग लग चुकी है, दौड़ो-दौड़ो! यह सुनते ही सारे लोग दौड़ पड़े। संत भी दौड़े, गृहस्थ भी दौड़े, सभी दौड़े, पर याज्ञवल्क्य और जनक टस से मस नहीं हुए। उनको देखकर लगता था कि कुछ हुआ ही नहीं। याज्ञवल्क्य ने जनक से कहा-जनक, तुम मिथिलानगरी की तरफ क्यों नहीं जाते? तुम्हारे भी महल जल रहे होंगे; सारी संपत्ति स्वाहा हो रही होगी। जनक मुस्कराए और कहा-भंते, जहां जाकर मैं स्थित हूं, वहां न कोई आग है और न उसे बुझाने का कोई प्रयत्न है। यह मिथिलानगरी जलती है, तो इसमें मेरा क्या जलता है? जहां इतनी गहरी सोच है, वहां निस्संदेह द्रष्टा-भाव है। इस भाव में जीने वाला व्यक्ति तो कहेगा कि चित्त में विकार की तरंग उठती है, तो उठती है, इसमें मेरा क्या जाता है, इस शरीर में भोग की कोई कामना जगती है, तो जगती है, यह शरीर का धर्म है। मैं थोड़े ही कामोत्तेजित होता हूं, मैं थोड़े ही विकृत होता हूं। जहां आदमी संसार से, शरीर से, विचारों से, मन से स्वयं को अलग रखता है, अलग देखता है, अलग जानता है, वह व्यक्ति संसार में सदा आत्मज्ञानी की तरह, अद्वैत आत्मा की तरह जीता है। वह आनंद के संसार में जीता है, जहां न जन्म है, न मृत्यु है, जहां व्यक्ति स्वयं है। अगला सूत्र है नात्मा भावेषु नो भावः तत्रानन्ते निरंजने। इत्यसक्तोऽस्पृहः शान्त, एतदेवाहमास्थितः ॥ जनक कहते हैं-आत्मा विषयों में नहीं है और विषय आत्मा में नहीं हैं। इस प्रकार मैं अनासक्त हूं, स्पृहामुक्त हूं और इसी अवस्था में स्थित हूं। जनक अपने गुरु को यह विश्वास दिलाना चाहते हैं कि मनुष्य अगर वासनाओं, विकारों, विषयों में अपने आत्मिक सुखों की तलाश करता है, तो यह कदम ही गलत राह पर है विषयों में आत्मा नहीं है और आत्मा में विषय नहीं हैं। जहां मैं हूं, वहां शरीर नहीं है और जहां शरीर है, वहां मैं नहीं हूं। जिस साधक को इस बात का बोध हो चुका है, उसके लिए तो चाहे स्वभाव में जगत की तरंग उठे या मिटे, उसे कोई प्रयोजन नहीं। वह तो चैतन्य में विश्राम करता है। किसी भी बात में उसका हस्तक्षेप नहीं। उसने तो अपनी नौका के लंगर खोल दिए हैं। वह कहता है कि अब नौका जिधर ले जाना चाहे, ले जाए। मैं तो हवा के झोंकों और नियति की अनंत रेखाओं के उद्यम का साथी भर हूं। स्थितप्रज्ञ आदमी कहता है कि चित्त के धर्म जहां जाना चाहते हैं, वहां जाएं, मैं थोड़े ही जाता हूं। जहां आदमी होनी में हस्तक्षेप नहीं करता, वहीं नियति का अमृत-प्रसाद, नियति के आशीष उस पर बरसते हैं; उसके कर्मों की निर्जरा होती 59 For Personal & Private Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है। जैसे पतझड़ आने पर पीले-पीले पत्ते अपने आप झड़ जाते हैं, वैसे ही आदमी के संस्कारों के बंधन, कर्म-प्रकृतियों के बंधन अपने आप छिटक जाते हैं। न आदमी भोग करके पार लग सका है, न त्याग करके पार लग पाया है। अगर भोगने को ही मुक्ति का उपाय समझ लिया जाए, तो एक बात की आशंका हमेशा बनी रहती है कि आदमी अगली मर्तबा इस भोग से अपने आपको कैसे बचा पाएगा? वह आदमी फिर-फिर उसी खुजली को खुजलाना चाहेगा, उसी गलती को दोहराना चाहेगा। अगर आदमी त्याग के मार्ग को पकड़ लेगा, तो नतीजा यह होगा कि त्याग तो बाहर से हो जाएगा, मगर मन की पकड़ उससे अलग नहीं हो पाएगी। त्याग तब तक त्याग होता ही नहीं है, जब तक भीतर से पकड़ न छूटे। पकड़ के छूट जाने का नाम ही त्याग है। यही अनासक्ति है, अपरिग्रह है, मूर्छा का विलीनीकरण है। जहां पकड़ है, वहीं बंधन है। कहते हैं-बायजीद अपने शिष्यों के साथ रास्ते से गुजर रहे थे कि तभी देखा एक व्यक्ति अपने बैल की रस्सी थामे उसके आगे-आगे चल रहा था। बायजीद ने अपने शिष्यों से कहा-बताओ, बैल और इस व्यक्ति में से मालिक कौन है ? शिष्य बायजीद के प्रश्न को सुनकर चौंके । चौंकना स्वाभाविक था, क्योंकि किसान ही बैल का मालिक था। शिष्यों ने कहा-गुरुवर, आप यह क्या पूछ रहे हैं? सीधी-सादी बात है कि इनमें किसान ही बैल का मालिक है, क्योंकि जो जिसके आगे चले, वह उसी का मालिक। शायद बायजीद यही सुनना चाहते थे। उन्होंने झट से चाकू उठाया और रस्सी को काट दिया। रस्सी के कटते ही बैल दौड़ने लगा, पीछे-पीछे आदमी भागने लगा। बायजीद ने कहा-बताओ, अब कौन-किसका मालिक है? शिष्य मुस्करा दिए। अगर तुम विषयों के पीछे चलते हो, तो तुम्हारे मालिक विषय हो गए और जहां विषय तुम्हारे पीछे चलें, तो तुम विषयों के मालिक हो गए। जहां विषयों के अधीन हम हुए, वहां आत्मा खो गई और जहां विषय हमारे अधीन हुए, वहां व्यक्ति आत्मवान हुआ। अष्टावक्र का इतना ही सार-संदेश है कि हर व्यक्ति आत्मवान बने। अष्टावक्र आत्मवान होने का छोटा-सा सूत्र देना चाहते हैं कि अपनी इंद्रियों को अपने अधीन रखो। ऐसा नहीं कि इंद्रियों के अधीन तुम हो जाओ। किसी ने अगर कड़वा शब्द कह दिया, तो इतनी मिलकियत रखो कि उसको हजम कर सको । अगर खाने में सब्जी कड़वी आ गई है, तो अपनी इंद्रियों पर इतना स्वामित्व रखो कि उस सब्जी को आप बड़े प्रेम और आदर के साथ स्वीकार कर सको। छोटी-सी उपेक्षा तो हमसे सहन होती नहीं है और सोचते हैं मीरां की तरह जहर तक का प्याला पी लेंगे, अपनी इंद्रियों को, अपने कषायों को जीतो । यही विजय परम विजय कहलाएगी। 60 For Personal & Private Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम अपने चैतन्य में विश्राम करो, यही ज्ञान है, यही मुक्ति और निर्वाण है। ऊपर-ऊपर धर्म का दिखावा और भीतर में अधर्म का पोषण न हो। बाहर हो सौंदर्य, शीतलता, पर भीतर हो दाहकता, भीतर जलती हो अंगीठी, तो जीवन विरोधाभासमय कहलाएगा। __ मुझे याद है-एक व्यक्ति गुरु की तलाश में ठेठ हिमालय की कंदराओं तक पहुंचा। उसने एक वीतराग' संत की तलाश की। उसने सोचा कि यह मेरा गुरु होने के काबिल है अथवा नहीं, यह भी तो परख लूं । उसने कहा-भगवन्, मैं नीचे तलहटी से यहां आया हूं। मुझे बहुत ठंड लग रही है। आप थोड़ी-सी आग मुझे प्रदान कर दीजिए। संत ने कहा-हम लोग आग नहीं रखते, हमारे पास आग नहीं है। व्यक्ति ने कहा-भगवन्, ज्यादा नहीं, थोड़ी-सी आग दे दो। संत ने पुनः वही बात दोहराई। आदमी ने फिर आग मांगी। संत झुंझला उठा। संत ने कहा-तू कब से आग-आग चिल्ला रहा है। अगर इतनी ही आग चाहिए, तो अभिशाप दे दूंगा। आग में झुलसते रहना। संत की बात सुनकर आदमी व्यंग्यपूर्वक मुस्कराया। उसने कहा-संतप्रवर, आप कहते हैं कि मेरे पास आग नहीं है, तो फिर ये चिंगारियां कहां से आ रही हैं? संत ने पूछा-कौन-सी चिंगारियां ? व्यक्ति ने कहा-आपकी झंझलाहट, आपका क्रोध, ये ही तो आग की चिंगारियां हैं। हिमालय में आकर बैठ गए, साधु हो गए, तो क्या हुआ, साधुता नहीं आई। जनक अष्टावक्र से इतना ही निवेदन करना चाहते हैं कि मैं चैतन्य में स्थित हूं, चैतन्य में विश्राम कर रहा हूं। चाहे स्वभाव में जगत बने या मिटे, इससे मुझे न तो हानि है, न लाभ है। मैं तो हर जलन से, हर आग से अतीत, सदा-सर्वदा मुक्त और आत्मस्थित हूं। अहो चिन्मात्रमेवाहमिन्द्रजालोपमं जगत्। अतो मम कथं कुत्र, हेयोपादयेकल्पना ॥ अहो, मैं चैतन्यमात्र हूं, संसार इंद्रजाल की भांति है। तब मेरी हेय और उपादेय की कल्पना किसमें हो? अहो चिन्मात्रं! केवल इतना ही बोध पर्याप्त है। मैं तो केवल साक्षी चैतन्य मात्र हूं, इस तथ्य का सतत स्मरण और बोध बनाए रखना ही ध्यान है, मुक्ति है। अष्टावक्र सीधा हमें चैतन्य-बोध से भर रहे हैं। वे नकार नहीं रहे, वे स्वीकार को महत्त्व दे रहे हैं। वे यह नहीं कहते कि मैं देह नहीं हूं, विचार या मन नहीं हूं; मैं बस, चैतन्य हूं, यह बोध और स्वीकार ही मूल्यवान है। __ शुरुआत है 'अहो' से, आश्चर्य से, आनंद से। मैं चैतन्य मात्र हूं, अहो! आज मैंने जाना सद्गुरु तुम्हारी सन्निधि से कि मैं तो चैतन्य मात्र हूं। मुझे आश्चर्य 61 For Personal & Private Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है इस बात से कि मैं अब तक अपने आपको क्या-क्या समझता रहा! गीता में कृष्ण कहते हैं कि तू यह मानना ही छोड़ दे कि जिनसे तू युद्ध कर रहा है, वे तेरे चाचा, मामा, ताऊ या पितामह हैं। तू अपने आपको देह मानता ही क्यों है? देह मानेगा, तो स्वाभाविक है कि ये लोग भी तुझे चाचा, मामा, ताऊ नजर आएंगे। तू तो अपने आपको मेरा स्वरूप और आत्मा-मात्र समझ। कृष्ण ने अर्जुन से जो कहा, आखिर जब उसने भगवान का वास्तविक रूप देखा, तो वह भी कह उठा, कि अहो! आश्चर्य है, मैं केवल चैतन्य मात्र हूं! रास्ते से गुजर रहे संत पर जब किसी ने लाठी का प्रहार किया, तो उसके हाथ से लाठी गिर पड़ी। संत ने लाठी उठाई और वापस लौटानी चाही। मारने वाला व्यक्ति चकित हो उठा। क्या मारने वाले के प्रति यों साधुवाद! संत ने कहा, मैं जिस पेड़ के नीचे से गुजर रहा हूं, अगर उसकी टहनी मुझ पर गिर पड़ती तो! वह संयोग ही तो कहलाएगा। टहनी और लाठी, दोनों को ही जहां संयोग मान लिया जाता है, वहां मुक्ति तो स्वतः जियी जा रही है उसके लिए हेय और उपादेय, त्याज्य और भोग्य जैसा भेद बचता नहीं है। पानी से भरे कूडे में दिखते चांद के प्रतिबिम्ब को हम चांद मान बैठते हैं, पर अगर मिट्टी का वह कूडा फूट जाए, तो न पानी रहता है, न चांद। केवल शून्य भर बचा रहता है। ___ अहो, चिन्मानं! इतना ही बोध पर्याप्त है। तुम इस सूत्र को अंतरंग में उतरने दो और लीन हो जाओ अपने में, अंतरलीन। संसार स्वयं ही इंद्रजाल की भांति तिरोहित हो जाएगा। तुम देह से विदेह और जन्म-मरण से उपरत हो जाओगे। 62 For Personal & Private Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार में खिले समाधि के फूल अष्टावक्र-गीता उन लोगों के लिए अमृत वरदान है, जिनके अंतःकरण में आत्मज्ञान की तीव्र अभिलाषा है। यह गीता उनके लिए पवित्र सौगात है, जिनके अंतःकरण में मोक्ष की मुमुक्षा है। यह गीता उनके लिए प्रकाश-स्तंभ है, जो अपने आंतरिक प्रकाश को उपलब्ध होना चाहते हैं। इस गीता का परम लक्ष्य यही है कि हर व्यक्ति आंतरिक प्रकाश, आंतरिक स्वास्थ्य और आंतरिक आकाश को उपलब्ध हो। अंतर्जगत का अपना स्वाद है; अपना प्रकाश और सुवास है। मनुष्य की अंतर्यात्रा में कोई तत्त्व बाधक बनता है, तो वह मनुष्य का अपना ही मन है। मनुष्य का मन एक सराय की तरह है, जिसमें न जाने कितने वांछित और अवांछित यात्री आते हैं, जाते हैं। इसमें विचारों और विकल्पों के यात्री, कल्पनाओं तथा धारणाओं के अतिथि पल-प्रतिपल आते हैं, चले जाते हैं। अगर व्यक्ति को स्वयं का गृहस्वामी बनना है, तो निश्चित तौर पर इन आने-जाने वाले यात्रियों पर अंकुश लगाना होगा। मनुष्य के मन में बड़ी अराजकता है, बड़ा पागलपन है; मनुष्य का मन बड़ा चंचल और गंदला है। जिनमें आत्मज्ञान की अभीप्सा और मोक्ष की मुमुक्षा है, वे व्यक्ति तब तक आत्मज्ञान की रोशनी को उपलबध नहीं कर पाएंगे, जब तक उसके मन की बाधाएं, दुविधाएं नीचे नहीं गिर जातीं। मनुष्य का मन ही उसके लिए संसार का और निर्वाण का साधन बनता है। मनुष्य के मन में ही बाह्य जगत की तरंगें हैं, उसी के मन में अंतःकरण के निर्वाण का सोपान है। उसी में पाप और पुण्य, बंधन और मोक्ष हैं। हम लोग हमेशा से एक सूत्र सुनते आए हैं-मनएव मनुष्याणां कारणं बंधमोक्षयो। मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है। व्यक्ति के लिए उचित यह होगा कि वह ईमानदारी के साथ अपने मन का, अपने चित्त का निरीक्षण करे। जैसे-जैसे निरीक्षण गहराता जाएगा, त्यों-त्यों मन स्वतः ही विलीन होता चला जाएगा। मन से मुक्त होना ही है, तो पहली कीमिया (सार तत्व) यह है कि मन को जितना साधना चाहेंगे, मन उतना ही चंचल होगा। मन को जितना केंद्रित करोगे, वह उतना ही विकेन्द्रित होगा, उतना ही वर्तुलाकार घूमेगा। मन को साधना 63 For Personal & Private Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कभी भी काम नहीं देता। मन का विसर्जन कर देना ही मन से मुक्त होने का सर्वाधिक सार्थक सूत्र है। कहते हैं कि संत मात्सु अपनी झोपड़ी में बैठकर मन को साधने की साधना किया करते थे। मन को साधते-साधते लंबा अरसा बीत गया। एक दिन मात्सु के गुरु ने उसके मन को पढ़ा और उसकी झोंपड़ी में चले आए। वे लगे ईंट को घिसने। सुबह से शाम हो गई। मात्सु से रहा न गया। उसने पूछा-यह आप क्या कर रहे हैं? गुरु ने जवाब दिया-मैं इस ईंट से आईना बनाने का प्रयत्न कर रहा हूं। मात्सु ने विनम्रतापूर्वक कहा-गुरुवर, क्या ईंट कभी आईना बन पाई है? गुरु ने हंसकर कहा-मात्सु, जो बात तुम मुझसे कह रहे हो, वही मैं तुम्हें समझाने आया हूं। जब ईंट को घिसने से वह आईना नहीं बन सकती, तो फिर मन को साधने से क्या मन से कभी मुक्त हुआ जा सकता है? मन ही तो आत्मदर्पण के प्रकट होने में बाधा है। मन तो उड़ती धूल है, जो आईने पर जम गई है। आत्मदर्पण पर पसरी यह रेत कल्पनाओं, धारणाओं और आग्रहों की रेत है। धूमिल हो गई है मनुष्य की अंतरात्मा। हम अगर अपने कमरे में बैठे हैं और सूरज की रोशनी कमरे में आ रही है, तो हमें उस रोशनी में कुछ उड़ते हुए धूलिकण दिखाई देंगे। ये धूलिकण दरअसल प्रकाश को रोक रहे हैं। यह अलग बात है कि आत्मप्रकाश को धूलिकण न ढंक सकते हैं, न रोक सकते हैं, मगर हमारी आंखें जरूर ढंक देंगे। हम अपनी आंखों से शुद्ध रोशनी को देख नहीं पाते। हमारे सारे प्रयास ईंट को घिसने के प्रयास हो रहे हैं। लोग मालाएं फेरते हैं, सामायिक करते हैं, जप करते हैं, लेकिन सबकी एक ही शिकायत रहती है कि क्या करें किसी में भी मन नहीं लगता। जो न लगे, वही तो मन है। मन को हम जितना लगाना चाहेंगे, वह उतना ही उछलेगा। अगर मन के प्रति सजगता, साक्षी-भाव और द्रष्टा-भाव आ जाए, तो वह स्वतः विलीन हो जाता है। मन को साधने की कोशिश से व्यक्ति बाहर आए और मन के पार रहने वाले तत्त्व को निहारे। इस संदर्भ में अष्टावक्र कुछ देना चाहते हैं। वे कहते हैं तदा बंधो यदा चित्तं, किंचित् वांछति शोचति। किंचित् मुंचति गृहणाति, किंचित् हृष्यति कुप्यति ॥ तदा मुक्तिर्यदा चित्तं, न वांछति न शोचति । न मुंचति गृहणाति, न हृष्यति न कुप्यति ॥ 64 For Personal & Private Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात जब मन कुछ चाहता है, कुछ सोचता है, कुछ त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, सुखी और दुखी होता है, तब बंध है। जब मन न चाह करता है, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है, न सुखी होता है, न दुखी होता है, तब मुक्ति है। जीवन में कभी-कभी जो सूत्र बड़े सरल नजर आते हैं, उनको जीना उतना ही कठिन हो जाता है और जो सूत्र बड़े कठिन नजर आते हैं, उनको जीना उतना ही आसान हो जाता है । अष्टावक्र का यह सूत्र जितना आसान लगता है, उतना ही दुष्कर भी है। जैसे कोई आदमी मझधार के बीच फंसा हुआ हो, तो उस आदमी का किनारे लगना कठिन हो जाता है, वैसे ही जो व्यक्ति अपने मन के अंधे गलियारों में उलझ चुका है, उसके द्वारा मन को पार करना कठिन हो जाता है। मन के द्वारा उठने वाली हर क्रिया बंधन है और जिससे मन का विलीनीकरण होता है, वह हर क्रिया मुक्ति है । जिन क्रियाओं के द्वारा मन गतिशील होता है, वह हर क्रिया मनुष्य के लिए बंधन हैं। अगर ध्यान को भी क्रिया बना लोगे, तो वह भी बंधन है; अगर भक्ति को भी क्रिया बना लोगे, तो वह भी बंधन है, इसीलिए तो रिंझाई ने कहा था कि जब तुम समाधि के मार्ग पर बढ़ते हो और यदि उस मार्ग पर भगवान भी चले आएं, तो उनको भी एक किनारे कर देना । जब तुम अपने आप से मिल रहे हो, अपने से मैत्री हो रही है, आत्मज्ञान की रोशनी से भर रहे हो, तब मन की हर गति तुम्हारे लिए प्रवाह की गति होगी । यह बात गहराई तक समझ लेने की है । आदमी जिंदगी-भर मन को साधने का ध्यान करता है और मन कभी सध नहीं पाता, इसलिए ध्यान भी किया हो, पर ध्यान हुआ नहीं। जहां ध्यान करने जाओगे, वहां ध्यान भी क्रिया बन जाएगा। जहां ध्यान क्रिया बनता है, वहां वह समाधि में बाधक बन जाता है, इसीलिए स्वभाव में आना ही मोक्ष में जीना है और परभाव में चले जाना ही बंधन में चले जाना है । जैसा है, वैसा है - यही भाव स्वभाव है । तटस्थता ही ध्यान है । स्वभाव में जीना ही ध्यान है । न बुरे से परहेज और न अच्छे से मोहब्बत। ' न काहू से दोस्ती, न काहू से वैर' । अष्टावक्र कहते हैं कि जब मन कुछ चाहता है, तब बंधन है । मनुष्य के पास मन नाम की ऐसी शक्ति है, जो हर समय कुछ न कुछ चाहती रहती है I मनुष्य हर समय मानसिक अवसाद से ग्रस्त रहता है । जो मिला है, उसमें तृप्ति नहीं है। अगर गेहुंआ रंग मिल गया, तो साबुन रगड़-रगड़ कर नहाते हो कि थोड़ा-सा कालापन तो मिट जाए। कपिल ब्राह्मण, जो दो तोला सोना मांगने के लिए निकला था, मन के भटकाव में, तृष्णाओं के जाल में फंसकर एक राजा से उसका राज्य ही मांगने के लिए तैयार हो जाता है । मनुष्य का अतृप्त मन दौड़ रहा है। 65 For Personal & Private Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गृहस्थ हो या संत, किसी की भी चाह मिटी नहीं है । गृहस्थ मकान बनाना चाहता है, तो संत मठ बनाने में लगा है। इस गतिशील मन को वही समझ सकता है, जो चैतन्य-तत्त्व की ओर गति करने में भी सक्षम है I कहते हैं - एक बार जीसस नौका से गैलिली झील को पार कर रहे थे। नौका झील के बीच पहुंची, तभी एक भयंकर तूफान उमड़ा। पूरी झील आंदोलित हो उठी, सारे लोगों में कोहराम मच गया। नौका पर सवार अन्य यात्री बचने के लिए जोर-जोर से आवाजें लगाने लगे, लेकिन ताज्जुब कि जीसस नौका के एक कोन में तसल्ली से बैठे थे। लोगों ने जीसस से कहा कि प्रभु, नौका डूब रही है और आप आंख मूंदे बैठे हैं। जीसस ने विस्मय की मुद्रा में पूछा- क्या हो गया ? जवाब मिला- झील में तूफान आ गया है। जीसस ने कहा- मुझसे क्या कहते हो । जाकर तूफान से कहो कि तूफान, शांत हो जा। लोग हंसे, कहने लगे- अगर ऐसा ही है, तो आप ही उठकर कह दो। जीसस झट से खड़े हुए, नौका के दूसरे किनारे पहुंचे और बुलंद स्वर में कहा- शांत, शांत, तूफान शांत हो! बाइबिल कहती है कि गैलिली झील तत्काल शांत हो गई। यह बात शायद अतिशयोक्तिपूर्ण लगे, पर मैं इसे प्रतीक के रूप में लेता हूं । गैलिली झील मनुष्य का अपना मन है, जिसमें विचारों, कल्पनाओं, विकल्पों के न जाने कितने-कितने तूफान उमड़ते रहते है । आदमी के भीतर इतना स्वामित्व हो कि वह मन पर अंकुश लगा सके, कहे - मन शांत और मन शांत हो जाए। अगर मन तुम्हारा कहना मानता है, तो तुम मन के स्वामी हुए और मन के कहे अनुसार तुम चलते हो, तो मन तुम्हारा स्वामी हुआ । अष्टावक्र कुछ और संकेत देना चाहते हैं । वे कहते हैं कि मनुष्य का मन कुछ त्याग या ग्रहण करना चाहता है, तो वह भी बंधन ही है । वे केवल ग्रहण करने को ही बंधन नहीं कहते, वरन् त्याग करने को भी बंधन कहते हैं, क्योंकि उसके साथ क्रिया जुड़ी है। त्याग किया नहीं जाता है, वह तो हमेशा स्वतः हा है। किसी ने तुम्हें नियम दिया कि तुम सिगरेट नहीं पिओगे । तुमने त्याग तो कर दिया, पर ग्रहण का भाव नहीं गया, नतीजतन सिगरेट तो छोड़ दी, पर बार-बार उबासियां लेते रहोगे, बार-बार उसी की याद सताएगी । त्याग वस्तु को छोड़ने का नाम नहीं है। वह तो वस्तु के प्रति रहने वाली मूर्च्छा और स्मृति को छोड़ने का नाम है। त्याग तब कहलाता है, जब ग्रहण का भाव छूट जाता है। 1 आदमी बाहर से त्यागी होता है, भीतर से भोगी होता है । जब तक भीतर की पकड़ न छूटे, तब तक व्यक्ति बाहर में कितना ही त्याग क्यों न कर ले, हिमालय पर भी क्यों न चला जाए, मगर वह गृहस्थी वहां भी बसा लेगा । 66 For Personal & Private Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं - साध्वी राजुल बारिश से घिर गई थी । उसका सारा शरीर बारिश से तरबतर था। ओट पाने के लिए वह किसी गुफा में घुस गई। उसने सोचा कि यहां अंधेरा है, कोई व्यक्ति नहीं है । मैं कपड़ों को उतारकर, निचोड़ लूं, सुखा लूं और वापस पहन लूं । राजुल ने ऐसा ही किया और अपने कपड़े उतारे । तभी बिजली कड़की और उसकी चमक में उसने एक संत को वहां पाया । वह संत कोई और नहीं राजुल का देवर रथनेमि था । उसने राजुल को देख लिया और उसका मन चंचल हो गया। उसने राजुल को पुकारा । राजुल चौंकी और झट से अपने कपड़ों को संभाला। रथनेमि ने राजुल को भोग के लिए आमंत्रित किया। तब राजुल ने रथनेमि को जो संदेश दिया, उससे जैन धर्म के सारे शास्त्र, सारे ग्रंथ भरे पड़े हैं । राजुल ने रथनेमि से कहा- रथेनेमि, अगर तू कुएं पर चलते हुए रहट की तरह अस्थिर हो गया; अगर तू पेड़ पर टिके हुए पत्ते की तरह हवा के साथ चंचल हो गया, तो जरा कल्पना कर कि तू साधना के मार्ग पर किस तरह स्थिर रह पाएगा । निश्चय ही तूने बाहर से त्याग कर दिया है, लेकिन बाहर का त्याग भी तेरे लिए भारभूत बन गया है। त्याग बाहर हुआ, पकड़ भीतर में और मजबूत हो गई । बाहर से व्यक्ति ने मन को साधने की चेष्टा की, पर मन तो उछलता रहा कि कहीं कोई राजुल मिल जाए और मैं अपनी अतृप्ति को शांत कर लूं। यह मनुष्य के मन की विकृत दशा है कि वह बाहर से त्याग कर देता है, लेकिन भीतर में त्याग हो नहीं पाता। चूंकि अष्टावक्र इस बात से वाकिफ हैं, इसीलिए कहा है कि त्याग भी तेरे लिए बंधन है और ग्रहण करना भी तेरे लिए बंधन ही है । जहां व्यक्ति न दुखी होता है और न सुखी होता है, वहीं पर व्यक्ति की मुक्ति होती है। जहां सुख और दुख हैं, वहीं बंधन है । सुख और दुख में हमारी जो समान स्थिति बनी हुई रहती है, उसी का नाम तपस्या है। धूप हो या छांव - दोनों ही स्थितियों में सम रहने वाला व्यक्ति ही तपस्वी हुआ, इसलिए बंधन और मुक्ति का इतना सा सार - संदेश है कि जहां मन क्रियाशील होता है, वहीं बंधन है और जहां साक्षित्व उपलब्ध हो जाता है, केवल द्रष्टाभाव रहता है, वहीं मोक्ष है । जनक के लिए कहा गया यह सूत्र हम सबके लिए मुक्ति का प्यारा-सा संदेश लेकर आया है कि अपने मन पर अंकुश लगाओ, न चाहो, जो मिला है, उसमें तृप्त रहो । न अतीत के बारे में सोचो, न भविष्य के सपने संजोओ। जैसा वर्तमान मिला है, उसे वैसे ही जीओ । व्रत-उपवास जैसे लघु त्याग मत करो। अपनी देह की आसक्ति, मन के अनुराग का ही त्याग कर दो। ग्रहण करना ही है, तो अपनी चेतना को ग्रहण करो । त्याग करना ही है, तो देह-दृष्टि का, चर्म-दृष्टि का त्याग करो। न सुख, न दुख, दोनों ही स्थितियों में जहां व्यक्ति आनंदित रहता है, वहीं वह जीते-जी है 1 मुक्त 67 For Personal & Private Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तदा बंधो यदा चित्तं, सक्तं कास्वपि दृष्टिषु। तदा मोक्षो यदा चित्तमासक्तं सर्वदृष्टिषु ॥ अष्टावक्र कहते हैं-जब चित्त किसी दृष्टि, किसी विषय में लगा है, तब बंध है और चित्त जब सब दृष्टियों से अनासक्त है, तब मोक्ष है। प्रथम चरण में अष्टावक्र ने व्यक्ति को मन के साथ जोड़ा और कहा-मन से अतिरिक्त, मन से विच्छिन्न रहना ही, मन से भिन्न रहना ही मोक्ष है। वे आगे बंधन और मोक्ष को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि जहां व्यक्ति विषयों में आसक्त है, वह आसक्ति ही व्यक्ति के लिए बंधन है। जहां व्यक्ति हर दृष्टि से अनासक्त हो गया, वह व्यक्ति मुक्त है। मनुष्य के मन में पलने वाले आकर्षण का नाम ही आसक्ति है; राग की ग्रंथि का नाम ही आसक्ति है। मनुष्य उन्हीं चीजों को पसंद करता है, जिनके प्रति उसका खिंचाव है, रागात्मक संबंध है। जिस रंग के प्रति हमारी आसक्ति होती है, उसको देखते ही मन प्रफुल्लित हो उठता है। अगर इस आकर्षण से, इस परिग्रह से हम मुक्त होना चाहते हैं, तो संकल्प लें कि हम अपने जीवन में केवल उस एक ही रंग के वस्त्र पहनेंगे। तब हम उस एक रंग में कितनी विविधताएं, कितनी 'वैरायटी' ढूढेंगे? अंततः उस वस्त्र, उस रंग के प्रति रहने वाला राग छूट ही जाएगा। जीभ की जिस सब्जी के प्रति आसक्ति है, वही सब्जी अच्छी लगती है। यह आसक्ति मिट जानी चाहिए। तुम मकान में रहो, मकान के मालिक होकर। कहीं मकान तुम्हारा मालिक न हो जाए, इस बात का ध्यान रखो। एक व्यक्ति ने एक संत को अपने घर पर आमंत्रित किया, ताकि संत उसका मकान देखें, उसकी तारीफ करें और समाज में इस बात का ‘प्रचार' करें। उस व्यक्ति ने संत को पूरा मकान दिखाया, एक-एक चीज दिखाई, पर संत ने कोई तारीफ नहीं की। उसने संत के मन की बात ताड़ने के लिए संत से पूछा-प्रभु, अगर मकान में कुछ कमी-बेशी रह गई है, तो बताएं, ताकि संपूर्णता आ जाए। व्यक्ति की बात को संत ने सुना, पर अनसुना कर दिया। व्यक्ति ने फिर पूछा। अंततः संत ने कहा-बाकी सब तो ठीक है, पर तुमने इसमें दरवाजा क्यों लगवाया? अगर दरवाजा न लगवाता और पूरी तरह बंद मकान ही बनाता, तो तू सदा-सदा इसमें ही रहता। तुझे बाहर निकलने की जरूरत ही नहीं रहती। आदमी ने कहा-अगर मकान के द्वार न होगा, तो घर से बाहर कैसे निकलना होगा? संत ने कहा-जब अनंतः घर से बाहर निकलना तय है, फिर मकान के प्रति आसक्ति क्यों? 68 For Personal & Private Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब चित्त किसी दृष्टि अथवा विषय में लगा है, तब बंध है, चित्त का लगना ही बंध है। चित्त का न लगना ही मोक्ष है। जरा टटोलें कि हमारा चित्त कहां-कहां लगा है, किस-किस से लगा है। चित्त का किसी से लगना ही आसक्ति है। यही राग है। अपने से अपना अतिक्रमण है। चित्त किसी से न लगा, चित्त, चित्त में ही आसीन रहा, तब अनासक्ति है। साफ शब्द में यही मोक्ष है। __ आप संसार में रह रहे हैं, पर ऐसे रहें कि जैसे जल में कमल हो। कार्य और कर्तव्य पूरे करें। कार्य भी हमारी पूजा और प्रार्थना हो जाए, पर अगर कार्य के प्रति आसक्त हो गए, तो वह हमारी पूजा भी हमारे लिए बंधन हो जाएगी। हम मोक्ष को जिएं। अभी और आज जिएं। मरणोपरांत मिलने वाले मोक्ष के बजाए वर्तमान को मोक्ष का पर्याय बनाएं। सबके साथ रहें, पर चित्त से प्रतिक्रिया-शून्य केवल साक्षी चेतना में स्थित रहें। साक्षी चेतना ही मुक्त है। जो निर्लिप्त है, वह संन्यासी है। जो लिप्त है, वह संसारी है। यही अष्टावक्र का आज का संदेश है। 69 For Personal & Private Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्द्वन्द्व होने की कला नैसी हमारी दृष्टि होती है, वैसी ही सृष्टि होती है। महत्त्वपूर्ण यह नहीं है कि सृष्टि कैसी है, वरन् इससे भी ज्यादा अहम् यह है कि हमारी अपनी दृष्टि कैसी है? सृष्टि तो जैसी है, वैसी ही रहती है, लेकिन ज्यों-ज्यों दृष्टि में उतार-चढ़ाव आते हैं, त्यों-त्यों व्यक्ति के लिए सृष्टि भी वैसी ही हो जाती है। स्वस्थ और प्रसन्न दृष्टि के साथ अगर संसार को निहारो, तो संसार स्वयमेव स्वर्ग हो जाता है। उदास और विकृत दृष्टि से अगर संसार को निहारोगे, तो वह तुम्हारे लिए नरक ही होगा। एक बगीचे में अगर सुथार जाएगा, तो उसकी दृष्टि लकड़ी के स्तर पर टिकी रहेगी और कलाकार जाएगा, तो उसकी दृष्टि फूलों की सुकुमारता, उनकी कोमलता पर होगी। महत्त्व सृष्टि का उतना नहीं है, जितना सृष्टि के प्रति रहने वाली दृष्टि का है। ___एक चील आकाश में उड़ती है। वह ऊंचाइयों पर उड़ रही है, पर उसकी दृष्टि जमीन पर पड़े मांस के टुकड़े को ही ढूंढती है। स्वयं ऊंचाई पर, पर दृष्टि कलुषित! केवल मंदिर में चले जाने से यह मत मान लेना कि तुम्हारी दृष्टि में भी मंदिर का वास हो चुका है। जब तक अंतर्दृष्टि उन्नत नहीं होती, कोई चाहे जैसा पद और प्रतिष्ठा पा ले, उसकी अंतरात्मा सदा गिरी हुई ही कहलाएगी। गांधी ने तीन बंदरों का प्रसंग देकर कहा कि बुरा मत देखो, बुरा मत बोलो और बुरा मत सुना। मैं चाहूंगा कि आदमी अपनी दृष्टि में थोड़ा-सा सुधार लाए, वह न केवल बुरा न देखे, बुरा न बोले, बुरा न सुने, वरन् वह अच्छा देखे, अच्छा बोले और अच्छा ही सुने। आप बुराई से दूर हैं, यह अच्छी बात है, पर आप अच्छाई से दूरी रखते हैं, यह अच्छी बात नहीं। बुरा न करना अच्छी बात है, पर अच्छा न करना, यह बुरी बात है। 'अष्टावक्र-गीता' मनुष्य की उस अंतर्दृष्टि को खोलना चाहती है, जहां जाकर आदमी अपने वास्तविक सुख, स्वास्थ्य, आनंद और प्रकाश का स्वामी बनता है। अगर दृष्टि को स्वस्थ बनाना है, तो दृष्टि को स्वच्छ करो, सदा गुणग्राही और सर्वदर्शी 70 For Personal & Private Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बने रहो। एक बात सदा याद रखना कि चाहे धर्म हो या अधर्म, नैतिकता हो या अनैतिकता, प्रामाणिकता हो या बेईमानी-सबका आधार दृष्टि पर टिका हुआ हैं। बाह्य परिवर्तन भर से आदमी के भीतर की आंखें कभी परिवर्तित नहीं होतीं। तुम बाहर से अपने चरित्र और व्यवहार को कितना ही क्यों न बदल लो, वह बाहरी बदलाव भीतर परिवर्तन के बिना अपूर्ण और बेमानी है। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि तुमने इस वर्ष क्रोध न किया, मुख्य बात यह है कि अब भी क्रोध की कोई तरंग तुम्हारे में शेष है या नहीं। एक आदमी मांस खाता है, इसलिए आप उसे हिंसक कहेंगे, जबकि अष्टावक्र की भाषा कुछ भिन्न होगी। वे कहेंगे कि मांस खाने के कारण आदमी हिंसक नहीं है, बल्कि आदमी हिंसक है, इसलिए मांस खाता है। हमने अब तक उसी चरित्र को समझा है, जो बाहर से आरोपित किया जाता है और यहां अष्टावक्र उस चरित्र की प्रेरणा दे रहे हैं, जो हमारे भीतर से निखर कर आ रहा है। आदमी दमन करता है। आदमी के भीतर क्रोध, कषाय, काम, विकार भरे पड़े हैं, लोक-व्यवहार के चलते वह इनको भीतर धकेलता है, बाहर आने से रोकता हैं। इनको अभिव्यक्त करना गलत है, तो भीतरी दमन भी गलत ही है। विचारों की तरह आप अपनी संतान को भी दबाते हैं। आप उन पर अवांछित प्रतिबंध लगाकर उनके नैसर्गिक विकास को ही अवरुद्ध नहीं करते, वरन् उनके भीतर एक आक्रोश को भी जन्म देते हैं। उनकी अंतर्दृष्टि, उनका मानस कैसे परिवर्तित किया जाए, इस ओर हमारा ध्यान नहीं है, इसके प्रति सजगता नहीं है। अंतर्मन के परिवर्तन के बिना ऊपर से लादा गया नियम और तर्क ऊपर-ऊपर ही ठीक है। भीतर का जहर कब उगल आए, पता नहीं चलता। ___मैंने सना है-एक केकडे और बिच्छ के बीच बडी गहरी दोस्ती थी। एक दिन बिच्छू ने केकड़े से कहा-मित्र, आज तो मन में नदिया की सैर करने की इच्छा हो रही है। तुम मुझे इस किनारे से उस किनारे पर ले चलो। केकड़े ने कहा-बिच्छू भाई, मैं रहा केकड़ा और तुम ठहरे विषैले जीव । तेरे और मेरे बीच मित्रता है, यह तो ठीक है, पर मैं तुम्हें उस तट पर कैसे पहुंचाऊंगा। बिच्छू ने कहा-तुम अपनी पीठ पर मुझे बिठा लो और नदिया पार करवा दो। केकड़े ने आशंका जताई कि अगर तू मेरी पीठ पर आकर बैठा और डंक मार दिया तो? बिच्छू ने कहा-मैं और तुम्हें डंक मारूं। अव्वल तो तू मेरा दोस्त है और फिर तेरी मौत मेरी मौत का भी तो कारण बनेगी। केकड़े ने जवाब दिया-बात तुम्हारी तर्कसंगत और व्यावहारिक है। आओ, मेरी पीठ पर बैठ जाओ। 71 For Personal & Private Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केकड़े की पीठ पर सवार होकर बिच्छू सैर को निकला। जब वे मझधार में पहुंचे, तो कहीं से एक लहर आई और उन दोनों को तरंगित कर दिया। उसी तरंग के साथ बिच्छू में भीतर तरंग उठी और उसने सट से केकड़े को डंक मार दिया। केकड़ा कराह उठा। वे दोनों डूबने लगे, क्योंकि केकड़े को जहर चढ़ चुका था और बिच्छू तैरना नहीं जानता था। केकड़े ने डूबते-डूबते ही पूछा-दोस्त, तुम्हारे उस तर्क का क्या हुआ? बिच्छू ने कांपती सांसों से कहा-तुमने केवल तर्क को ही सुना है, प्राणी के स्वभाव को नहीं जाना। वे ज्ञान की बातें थीं और यह मेरा स्वभाव है। जब तक व्यक्ति की अंतर्दृष्टि में ही जहर भरा हुआ है, बाहर से चाहे जितनी चरित्रता और सच्चरित्रता की बातें कर ली जाएं, सब राख के ऊपर लीपा पोती है। आदमी बाहर के आचार-व्यवहार के द्वारा अपनी अंतर्दृष्टि, अंतरात्मा पर जमी धूलिकण की परतों को जन्म-जन्मांतर और मजबूत करता जाता है। वे परतें अंततः सख्त पत्थर में तबदील हो जाती हैं । अष्टावक्र का प्रयास केवल अंतरात्मा का स्वामी बनाना ही नहीं है, वरन् व्यक्ति के भीतर जमे हुए धूलिकण हट जाएं, प्रकाश में घुल-घुलकर आ रहे धूलिकणों के विजातीय तत्त्व छट जाएं। ये उद्देश्य है अष्टावक्र का। आत्मज्ञान के मार्ग पर जिस त्याग और तप की, जिस विशिष्टता की दरकार है, उन्हीं को समेटे आज अष्टावक्र के कुछ सूत्र हम लेंगे। सूत्र है कृताकृते च द्वन्द्वानि, कदा शांतानि कस्य वा। एवं ज्ञात्वेह निर्वेदाद्भव त्यागपरोऽव्रती ॥ अर्थात किया और अनकिया कर्म और द्वंद्व कब-किसके शांत हुए हैं? इस प्रकार निश्चित जानकर संसार में उदासीन और निर्वेद होकर अव्रती और त्यागपरायण हो। ___ हर मुमुक्षु आत्मा को जिसके अंतःकरण में आत्मज्ञान की अभीप्सा पल रही है, यह संबोधन है। यह सामान्य संबोधन नहीं है, वरन् संबोधि-सूत्र है। अष्टावक्र कहते हैं कि कर्म चाहे किया हुआ हो या अनकिया हो, द्वंद्व कब-किसका शांत हुआ है? केवल यह मत समझना कि जो कर्म तुम करते हो, वे ही कर्म हैं। बहुत सारे कर्म ऐसे होते हैं, जो आदमी करता नहीं है, फिर भी कर्म का भार उस पर चढ़ता है। आदमी शरीर के द्वारा उतने कर्म नहीं करता, जितने मन और विचारों के द्वारा करता है। वह वास्तविक जीवन में एक हत्या भी नहीं करता, मगर मन में, विचारों में वह कितनी-कितनी बार हत्याएं कर बैठता है। मन में की गई यह हत्या, यह हिंसा ही पाप हैं, यही पाप असल जिंदगी में दोहराया जाए, तो वही अपराध बन जाता है, जिसकी सजा के लिए अदालतें खड़ी की गई हैं। पाप छिपा हुआ अपराध है और अपराध प्रकट हुआ पाप है। अच्छा होगा व्यक्ति अपने अंतर्मन की ओर सजगता से कदम बढ़ाए, क्योंकि वह हरदम मन के पापों में ही जीता है। 72 For Personal & Private Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र कहते हैं कि किया और अनकिया, कर्म और द्वंद्व कब-किसके शांत हुए हैं? यथार्थ तो यह है कि व्यक्ति का जीवन ही द्वंद्व के सहारे चलता है। व्यक्ति-विशेष का ही नहीं, वरन् संपूर्ण जगत का ही जीवन द्वंद्व मूलक है। द्वंद्व के आधार पर ही संसार की संरचना हुई है। अगर जीवन से द्वंद्व की धारा टूट जाए, निर्द्वन्द्वता का सूर्योदय हो जाए, तो तुम अपने आपको परमात्मा से भरा-पूरा पाओगे। जहां द्वंद्व है, वहीं संसार है और जहां निर्द्वन्द्वता है, वहीं मोक्ष है। द्वंद्व यानी जड़ और चेतन का मिश्रण; द्वंद्व यानी दाएं और बाएं का मिश्रण; द्वंद्व यानी लाभ और हानि का मिश्रण। अगर द्वंद्व गिर जाए, तो मन ही गिर जाएगा। द्वंद्व है, तो संसार के सारे कामकाज चल रहे हैं। आदमी अगर चलता है, तो दो पांवों के सहारे चलता हैं, दोनों पांवों का संतुलन ही द्वंद्व है। जैसे पक्षी दो डैनों के सहारे आकाश में उड़ता है, वैसे ही इन्सान भी द्वंद्व के सहारे संसार में जीता है। जगत की व्यवस्था द्वंद्व पर ही आधारित है, मोक्ष द्वंद्व से, जगत से उपरत हो जाना है। मनुष्य के मन में द्वंद्व पलता है, इसीलिए एक मनुष्य दिन में सौ-सौ बार स्वर्ग और सौ-सौ बार नरक की यात्राएं करता है। आप जितनी देर प्रेम और क्षमा में, दया और करुणा में, विश्व-मैत्री और शांति में जीते हैं, उतनी ही देर आप स्वर्ग में जी रहे हैं। जितनी देर आप क्रोध और कषाय में, काम और कामना में जीते हैं, उतनी ही देर आप नरक की आग में झुलस रहे हैं। दो मिनट में ही आदमी मुस्कराने लगता है और अगले ही पल वह चीखने-चिल्लाने लगता है। वह पल में प्रेत और पल में देव हो उठता है। आदमी के मन में पलने वाला द्वंद्व ही उसे प्रेतात्मा और देवात्मा के झूले में झुलाता है। जहां पर आदमी का द्वंद्व गिर गया, वहीं निर्द्वन्द्वता है और जहां पर निर्द्वन्द्वता है, वहीं पर निर्वाण और मोक्ष है। अष्टावक्र सचेत करते हैं, क्योंकि वे मनुष्य के मन की कमजोरी जानते हैं। वे कहते हैं कि 'इस प्रकार निश्चित जानकर' यानी सुनने से काम न चलेगा, किताबों को पढ़ लेने से काम नहीं चलेगा। काम निश्चयपूर्वक जान लेने से ही चलेगा, तभी सही मर्म हाथ लगेगा। __ अष्टावक्र कहते हैं कि इस संसार में निर्वेद और उदासीन होकर अव्रती और त्यागपरायण बनो। 'उदासीनता' का अर्थ चेहरे को मुरझाए फूल की तरह लटकाना नहीं है। उदासीनता का अर्थ होता है-उत् + आसीन, यानी संसार से अपने आपको ऊपर उठा लेना। कीचड़ में पैदा हुआ कीड़ा कीचड़ में धंसता चला जाता है, जबकि कीचड़ में गिरा बीज कीचड़ से उदासीन हो जाता है, कमल बन कर खिल जाता हैं। कीचड़ में जन्म लेकर एक व्यक्ति उससे उदासीन हो जाता है, वहीं दूसरा व्यक्ति उससे राग कर बैठता है, आसक्त हो जाता है। जहां आसक्ति है, वहीं संसार है, वहीं दलदल है और जहां उदासीन स्थिति है, वहीं पर निर्वाण और मोक्ष है। 73 For Personal & Private Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र सूत्र में कहते हैं 'उदासीन और निर्वेद होकर' । निर्वेद यानी वेद रहित। वेद का अर्थ होता है लिंग, जिनके भेद हैं-स्त्री-वेद, पुरुष-वेद और नपुंसक-वेद। निर्वेद का दृष्टिकोण इतना-सा ही है कि व्यक्ति के मन में रहने वाला यह भाव कि यह पुरुष, यह महिला, यह भेद गिर जाए; यह दुभांत गिर जाए। आत्मा न पुरुष होती है, न स्त्री होती है; मन और विचार न पुरुष होते हैं और न स्त्री होते हैं। स्त्री-पुरुष केवल व्यक्ति का शरीर होता है। यहां तो देह से विदेह जीने की बात है। अष्टावक्र यह प्रेरणा देना चाहते हैं कि तुम्हारे मन में रहने वाला स्त्री-पुरुष का भेद गिर जाना चाहिए। जो भेद है, वह दैहिक है। चेतना के स्तर पर दोनों समान हैं। कहते हैं-शुकदेव और उनके पिता एक गांव की ओर जा रहे थे। उनके बीच काफी फासला था। गांव से पहले एक सरोवर था, जिसमें कुछ महिलाएं नहा रही थीं। महिलाओं ने अपने वस्त्र खोलकर तट पर रख दिए थे। आगे चल रहे शुकदेव के पिता को जब अपनी ओर आते देखा, तो उन्होंने झट से अपने वस्त्र पहन लिए और एक तरफ खड़ी हो गईं। शुकदेव के पिता ने सोचा कि महिलाएं कितनी मर्यादाशील और सौम्य हैं, जो बड़े-बुजुर्गों का इतना अदब-विवेक रखती हैं। ऐसा सोचते हुए वे रास्ते पर आगे बढ़ गए। तालाब को पार कर चुके थे, तभी शुकदेव पीछे आने लगे। इस बार महिलाओं ने कोई वस्त्र नहीं पहने, न सकुचाईं और न एक तरफ खड़ी हुईं। वे निर्वस्त्र ही यथावत नहाती रहीं। शुकदेव ने आंख उठाकर भी न देखा और अपनी ही धुन में आगे बढ़ गए। शुकदेव के पिता इस घटनाक्रम को देख रहे थे। उन्होंने मन-ही-मन सोचा कि मेरी इन महिलाओं के बारे में धारणा गलत थी। ये तो बड़ी निर्लज्ज हैं। जब महिलाएं स्नान कर चुकीं, तो शुकदेव के पिता उनके पास पहुंचे। उन्होंने कहा-मेरी एक जिज्ञासा है। तुमने एक वृद्ध संत को देखकर अपने वस्त्र धारण कर लिए, जबकि एक युवा संत को देखकर तुमने इतनी निर्लज्जता दिखाई, आखिर क्यों? महिलाओं ने कहा-संतप्रवर, जो प्रश्न आपके मन में उठा है, वह तो शुकदेव के मन में उठना चाहिए था, लेकिन शुकदेव के मन में ऐसा कोई प्रश्न नहीं उठा, क्योंकि आप निर्वेद न थे। शुकदेव निर्वेद है, उनके लिए स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं है। उनके लिए तो हम स्त्री होते हुए भी स्त्री नहीं हैं। जो व्यक्ति अपनी दृष्टि में स्त्री और पुरुष के भेद को गिरा देता है, केवल आत्मवत्-दृष्टिकोण रखता है, वही व्यक्ति शुकदेव होता है, निर्वेद होता है। अष्टावक्र कहते हैं-'इस प्रकार निश्चित जानकर संसार में उदासीन और निर्वेद होकर अव्रती और त्यागपरायण हो।' बात थोड़ी-सी विरोधाभास भरी लगेगी, क्योंकि वे अवती होने की बात कह रहे हैं और त्यागपरायण होने पर भी बल दे रहे हैं। 74 For Personal & Private Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या आपने अपने मन को कभी पढ़ा है? आदमी बाहर से तो व्रत ले लेता है, लेकिन त्यागपरायण नहीं हो पाता । त्याग तो व्यक्ति के ज्ञान का प्रकाश है, ज्ञान की परछाईं है। त्याग ज्ञान का सहज परिणाम है। आदमी ने सुन ली किसी संत की बात, प्रेरित हो गए और नियम ले लिया, व्रती हो गए। होता यह है कि आदमी बाहर से तो व्रत ले लेता है, पर भीतर से वह विरत नहीं हो पाता। नतीजतन वह खुद ही नियमों में बंध जाता है । व्यक्ति नियमों में रहे, यह अच्छी बात है, पर उनमें बंध जाना अपने आप में बंधन ही है। आदमी जीए, सजगता से जीए । जब-जिसकी-जो जरूरत पड़े, जब-जैसी - जो चीज प्राप्त हो जाए, तब - वैसा - उस रूप में जी लेना ही सिद्धि को प्राप्त कर लेने का महामंत्र हैं । आदमी त्यागपरायण हो, पर बाहर से नियमों-प्रत्याख्यानों को लेने का आग्रह न रखे, वरन् त्याग भीतर में हो, अंतर्दृष्टि में त्याग हो । अंतस् का परिवर्तन ही जीवन का वास्तविक परिवर्तन है । अगला सूत्र है कोऽसौ कालो वयः किं वा द्वन्द्वानि नो नृणामृ । तान्युपेक्ष्य यथा प्राप्तवर्ती सिद्धिमवाप्नुयात् ॥ अर्थात वह कौन-सा काल है, कौन-सी अवस्था है, जिसमें मनुष्य के द्वंद्व न हों, इसलिए तू उनकी उपेक्षा कर, यथाप्राप्य वस्तुओं में संतोष कर । संतोष करने वाला व्यक्ति ही सिद्धि को प्राप्त होता है। 1 अष्टावक्र कहते हैं - वह कौन-सा काल रहा, जब व्यक्ति के साथ द्वंद्व न रहा हो? ऐसा कोई भी युग नहीं रहा, जिसमें सुख और दुख न हों, पाप और पुण्य न हों, उतार और चढ़ाव न हों। अगर ये सब न हों, तो 'रामायण' का जन्म ही नहीं होता। अगर दुनिया में द्वंद्व न होते, मानसिक उठापटक न होती, तो 'महाभारत' की रचना ही नहीं हो पाती । त्रेता, द्वापर, कलियुग सभी कालखंड एक समान हैं। कोई भी युग अच्छा और बुरा नहीं होता । हमारी अपनी ही दृष्टि उसे 'अच्छा' या 'बुरा' करार देती है । सभी युगों की अपनी-अपनी खासियतें, अपनी-अपनी खामियां रहीं। राम मर्यादा पुरुषोत्तम कहलाए, लेकिन उनकी मर्यादा में भी कैसे-कैसे द्वंद्व रहे। जिस सीता ने अशोक वाटिका में रहकर राम के अतिरिक्त किसी भी पुरुष की वांछा नहीं की, उस सीता को धोबी की एक बात पर राम ने त्याग कर दिया । ता के राम की आंखों में, आंसू का निर्झर पलता था । सीता का आंचल इसीलिए, करुणा से भीगा लगता था । 75 For Personal & Private Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सारा द्वापर ही उलझ गया, नारी के बिखरे बालों में । ज्योति तो कम, पर धुआं बहुत, उठता था जली मशालों में । यह मत सोचो कि महावीर अथवा राम अथवा कृष्ण का युग ही श्रेष्ठ था । यह उनकी इबादत का वक्त नहीं हैं । अब तो खुद महावीर होने ही जरूरत है; राम-राम रटने की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम जीवन में मर्यादाओं को जीकर राम को आत्मसात करें, कृष्ण का कर्मयोग जीवन में उतारें। वह आदमी सच्चा मोक्ष पाने का अधिकारी होता है, जो यथाप्राप्य में शांत और संतुष्ट रहता हैं। जो कल बीत चुका है, उसके बारे में सोचने की जरूरत नहीं है । जो कल अभी तक आया ही नहीं, उसके बारे में चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसा बोध जो आचरित कर लेता है, सदा-सदा प्रसन्न और परितृप्त रहता है । 1 द्वंद्व चित्त का स्वभाव है । द्वंद्व के पार लग जाना ही, द्वंद्वातीत हो जाना ही सदाबहार आनंद को जीना है । अष्टावक्र गीता का एक ही सार है, एक ही लक्ष्य है-आदमी द्वंद्व के पार लगे, द्वंद्वातीत हो जाए। तुम द्वंद्व के निमित्तों के प्रति उदासीन हो जाओ। उसमें निर्लिप्त हो जाओ। सुख-दुख तो रात - दिन की तरह आते और बदलते रहते हैं। तुम ऐसे आकाश में जाओ कि रात-दिन तुम्हारे पास से गुजरें, पर तुम न रात हुए, न दिन । सुख-दुख के निमित्त से न सुखी हुए और न दुखी । प्रकृति जो तुम्हें दे दे, उसी को बड़े प्रेम से स्वीकार कर लो। दुविधा आए, तो भी उसमें मुस्कान और सुविधा आई, तो भी आनंदित । यथाप्राप्त वस्तुओं में संतोष करो। संतोष करो यानी संपूर्ण तुष्ट रहो, तृप्त रहो । पात्र आज भरा हुआ है, तो भी तृप्त, रीता है, तो भी तृप्त । ध्यान किया, कुछ परिणाम आया, तो भी तृप्त; न आया तो भी संतुष्ट । प्रार्थना का परिणाम मिला, तो भी और न मिला तो भी, न कोई शिकवा न शिकायत ! यथाप्राप्त के, यथास्थिति में, यथानियति में हम तो सदा आनंदित । संतोष करने वाला ही सिद्धि को प्राप्त होता है । सिद्धत्व मिला ही उसी को है, जो सदा तुष्ट है, तृप्त है, संतोष में सिद्धि समाई है। सच तो यह है कि संतोष स्वयं सिद्धि है। संतोष स्वयं समाधि है । समाधि का ही व्यावहारिक और प्रकट रूप संतोष है। गोधन गजधन बाजधन, और रतनधन खानि । जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समानि ॥ 76 For Personal & Private Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सब धन धूल के समान है, संतोष-धन के सामने। धन का मूल्य होगा, पर संतोष का धन वह धन है, जो आदमी को सदा धनवान बनाए रखता है। पैसा-टका तो आता-जाता रहता है, संतोषी सदा सुखी। साईं इतना दीजिये, जामें कुटुब समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय ॥ इतना प्राप्त अवश्य हो जाए कि कुटुंब भी पल जाए, मेरी भी पूर्ति हो जाए और गृह-द्वार पर चला आए कोई साधु, कोई अतिथि, वह भी कुछ पाकर जाए, बस, इतना चाहिए। शेष तृप्ति, आनंद! इसी में है सिद्धत्व की सुवास, निर्द्वद्वता का आनंद! अगला सूत्र है वासना एव संसार, इति सर्वा विमुंच ताः। तत्त्यागो वासनात्यागात् स्थितिरद्य यथा तथा ॥ अर्थात वासना ही संसार है, इसलिए वासना का त्याग कर। वासना के त्याग से ही संसार का त्याग है। अब जहां चाहे, वहां रह। अष्टावक्र कहते हैं कि तुझे जहां रहना है, जैसा जीना है, वैसा जी, वैसा रह! केवल इतना-सा जान ले कि वासना ही संसार है। अगर तू इस मायावी संसार से मुक्ति चाहता है, तो केवल वासना का त्याग कर । वासना के त्याग में ही संसार का त्याग समाया है। ___ लोग संसार के त्याग की पहल करते हैं। वासना छूट नहीं पाती। केवल संसार को ही छोड़ने के प्रयास चलते हैं। जब तक वासना न छूटी, तब तक संसार का त्याग हुआ ही कहां! बाहर त्याग हो गया, भीतर संसार बसा रहा। अष्टावक्र मनोविकारों के त्याग की बात कर रहे हैं। मन में बसी हुई वासना से उपरत होने की सलाह देते हैं। सार बात इतनी सी जानें कि वासना ही संसार है, वासना से मुक्त होना ही निर्वाण है, वाण यानी वासना और निर्वाण यानी वासना रहित हो जाना। अष्टावक्र आपको, हमको, सबको निर्वाण की दृष्टि दे रहे हैं कि वासना के त्याग में ही संसार का त्याग समाहित है। यदि तूने सच्चे अर्थों में त्याग कर दिया, तो संसार स्वयं तिरोहित हो जाएगा और इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर फिर तू चाहे जहां रह, चाहे जैसी स्थितियों में रह, कोई अंतर नहीं पड़ता। विदेह मुक्ति की इस अवस्था में शुकदेव और जनक की तरह तू भी सभी कर्म करते हुए कर्म के फल से मुक्त रहेगा। आज बस इतना ही । 77 For Personal & Private Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ओ रे मन, अब तो विश्राम कर नवीय चेतना के तीन रूप हैं। एक है जड़ता; दूसरा है अर्द्ध-मूविस्था और । तीसरा है परिपूर्ण सजगता । जड़ पुरुष वह है-जिसे न तो अपने अंदर प्रकाश की जानकारी होती है, न जिसका व्यवहार समाज के अनुकूल है । अर्द्धमूछित व्यक्ति वह है-जिसे अपने अंदर प्रकाश की जानकारी है, मगर संसार के मोह में डूबा है, अंदर जाने का प्रयास ही नहीं करता। पूर्ण सजग व्यक्ति ही अंदर के प्रकाश में स्थिर होकर वासनामुक्त भाव से संसार का भोग करता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो अंधकार में जन्म लेते हैं और अपने जीवन को भी अंधकार की ओर ले जाते हैं। कुछ लोग ऐसे होते हैं, जो पैदा तो प्रकाश में होते हैं, किंतु उनका जीवन अंधकार की ओर जाता है। तीसरा सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू यह है कि व्यक्ति प्रकाश में ही पैदा होता है और प्रकाश में ही अपना जीवन बढ़ाता हैं। महर्षि अष्टावक्र व्यक्ति के उस ज्योतिर्मय व्यक्तित्व पर विश्वास रखते हैं, जहां व्यक्ति का आंतरिक पहलू भी प्रकाशित हो और बाह्य पहलू भी उज्जवल हो; आदमी का जन्म भी अमृत के रूप में हो और उसका जीवन भी अमृत हो। आज के सूत्रों में महर्षि अष्टावक्र व्यक्ति की व्यवहार-शुद्धि के लिए, व्यक्ति की अनासक्ति और वीतरागता के लिए, चैतन्य-विश्रान्ति के लिए कुछ संकेत देना चाहते हैं, कुछ रश्मियां बिखेरना चाहते हैं। सूत्र है विहाय वैरिणं कामं अर्थं चानर्थसंकुलम्। धर्ममप्ये-तयोर्हेतुं, सर्वत्रानादरं कुरु ॥ अर्थात वैरीरूप काम को, अर्थ को और मन को संकीर्ण बनाने वाले अन्य ज्ञानसाधनों को त्याग दे तथा इन सभी के कारण रूप धर्म का भी सभी स्थितियों में अनादर ही कर। अपने इस सूत्र में अष्टावक्र ने बड़ी क्रांतिकारी बात कही है। कोई भी धार्मिक ग्रंथ, कोई भी आध्यात्मिक वाणी अर्थ और काम को ही त्यागने की बात कहते हैं, लेकिन अष्टावक्र तो अपनी ओर से यह उद्घोषणा करते हैं कि व्यक्ति 78 For Personal & Private Use Only Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिए जितने अर्थ और काम त्याज्य हैं, धर्म भी उसके लिए उतना ही त्याज्य है। ऐसी चुनौतीपूर्ण बात कहने वाले संत कम ही होते हैं। पहले चरण में महर्षि कहते हैं कि तू वैरी रूप काम का त्याग कर। सिवाय काम के मनुष्य का कोई प्रबल शत्रु नहीं है। काम में संसार छिपा है। काम में आसक्ति छिपी है। काम में मूर्छा और शैतान छिपा है। यही मकड़जाल है जीवन का और यही भोग-विलासिता का प्रेरक। काम से ही कामना का विस्तार होता है। बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा ही मुक्ति में बाधक है। तृष्णा क्या है? तृष्णा कामुकता ही है। कामना को जीतना है, तो काम को जीत जाएं। कामजयी तो स्वतः ही मृत्युंजयी हो जाता है। जो कंचन और कामिनी की कामना से मुक्त है, वह वीतराग है, आत्मजयी है, जितेंद्रिय है। अष्टावक्र जनक से कहते हैं कि राजन, तुझे लड़ना ही है, तो उस शत्रु से लड़, जिससे साधारण आदमी पराजित हो जाता है और यह प्रबल शत्रु काम ही है। वास्तव में अष्टावक्र के सारे संदेश जितेंद्रियता के संदेश हैं; आत्मविजय और जिनत्व के संदेश हैं। काम ही मनुष्य के जीवन और जगत का आधार है, वही उसकी मृत्यु का भी कारण है। अगर दुनिया में काम न हो, तो न जन्म है, न मृत्यु है और न ही जीवन। जिन्होंने फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिकों को पढ़ा है, वे जानते हैं कि मनुष्य का मूल प्रेरक तत्त्व काम ही है। काम की प्रेरणा से ही मनुष्य परिवार को पालता है, बीवी, बच्चे, धन-दौलत, कारोबार सभी काम से ही जुड़े हैं। अगर मनुष्य की काम-ऊर्जा क्षीण हो जाए, तो उसकी मृत्यु ही हो जाती है। योग इसीलिए काम-ऊर्जा को क्षीण करने की बजाय कुंडलिनी के रूप में उसका ऊवारोहण करने की सलाह देता है। योग का यह प्रयोग काम-ऊर्जा को रचनात्मक रूप देना है। मस्तिष्क की ऊर्जा जब काम-ऊर्जा की ओर बहती है, तो कामकेंद्र सक्रिय हो उठता है, जबकि वही ऊर्ध्वमुखी बन जाए, तो मस्तिष्क के सुषुप्त सेल्स को, मूर्च्छित पड़े स्नायुओं को सक्रिय कर सकती है। योग काम का उदात्त रूप चाहता है, उसका विकृत रूप नहीं। हमें तो पार जाना है जन्म के, मृत्यु के। इसके लिए हमें पार लगना होगा अपने मन में पलने वाले काम के संवेगो से। एक प्राचीन घटना है। कहते हैं-एक मंत्री-पुत्र स्थूलिभद्र हुए। वे जीवन भर वेश्या की गोद में ही पड़े रहे। एक दिन जब उनके पिता का देहांत हो गया, तो यह सूचना उनको पहुंची। वे काम में इतने डूबे रहे कि अपने पिता की अंतिम यात्रा में भी शरीक नहीं हुए। पिता की शव-यात्रा उसी वेश्या के घर के आगे से गुजरी। जैसे ही स्थूलिभद्र ने अपने पिता की लाश को देखा, उनको अपने आप पर ग्लानि हुई, पश्चाताप हुआ। उसी क्षण उनके मन से काम का अंधकार छंट गया और निकल पड़े संन्यास की डगर पर। उन्होंने संन्यास स्वीकार कर लिया। 79 For Personal & Private Use Only Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थूलिभद्र अपने गुरु के पास पहुंचे। उन्होंने गुरु से यह अनुरोध किया कि मैं अपना अगला प्रवास कोशा वेश्या के यहां रखूगा। यह बात सुनकर उनके गुरु-भाई चौंक पड़े। वे सोचने लगे कि यह संत हो गया है, लेकिन इसके मन में तो अभी भी वही वेश्या, वही कोशा बसी हुई है। स्थूलिभद्र की बात पर गुरु मुस्कराए और कहा-तुम जहां चाहो चातुर्मास करो, पर ध्यान रखना यह चातुर्मास तुम्हारे जीवन की, तुम्हारे वैराग्य की कसौटी होगा। __स्थूलिभद्र कोशा वेश्या के घर पहुंचे। कोशा की खुशी का ठिकाना न रहा। कोशा ने प्रवास की सहज स्वीकृति दे दी। प्रवास-काल में कोशा जितने तरीकों से रिझा सकती थी, उसने रिझाया, पर स्थूलिभद्र अटल और अडिग बने रहे। जिसने जीता है काम को, वही तो संत है। राग और विराग में अंतर्-संघर्ष हुआ और कल तक जो कोशा वेश्या थी, वह स्थूलिभद्र की शिष्या और श्राविका बन गई, उसने पावन पथ को अंगीकार कर लिया। जिसने काम को जीता, उसने त्रैलोक्य पर विजय पा ली और जो काम से हार गया, वह सारे संसार पर विजय पाने के बावजूद परास्त ही कहलाएगा। इसी कारण तो अष्टावक्र चाहते हैं कि हर मुमुक्षु आत्मा निष्काम मार्ग की ओर अपने कदम बढ़ाए। आखिर जीवन में तुम कब तक काम का सेवन करते रहोगे। तुम्हारी पीढ़ियां-दर-पीढ़ियां बीत गईं इस काम की आसक्ति के उलझाव में। तुम चाहते हो कि मेरा जन्म गिर जाए, मेरी मृत्यु मिट जाए, तो निष्काम बनो। ___काम वैरी है, और अर्थ-अनर्थ से भरा है। अर्थ-अनर्थ की खान है, अर्थ की आसक्ति अनर्थों को जन्म देती है। अर्थ मूल्यवान है, पर अर्थ के साथ अनर्थ छाया की तरह चले आते हैं। इसी धन के कारण बाप की लाश बाद में उठती है और पहले बंटवारा होता है। आदमी की मूर्छा बहुत गहरी है। धन संग्रह के लिए नहीं है, वह तो उपयोग के लिए है। जो धन का उपयोग कर जाता है, वही सही मायनों में धनवान है। जो उपयोग नहीं कर पाया, छोड़कर चला गया, वह सांप-बिच्छू बनकर उसी धन की रक्षा के लिए फिर-फिर जन्म लेगा। जितना धन को जुटाने में मशक्कत की, उसे लुटाने में भी उतनी ही तत्परता, उतना ही साहस रखो। कल की व्यवस्था के बारे में मत सोचो। प्रकृति की व्यवस्थाएं इतनी अनूठी हैं कि वह 'चींटी को कण और हाथी को मण' सहज भाव से देती है। किसी आदमी के पांच कन्याएं हैं, तो वे धन के अभाव में अविवाहित नहीं रह पाएंगी। कब-कौन-कहां निमित्त बन जाएगा, पता ही नहीं चलेगा। आदमी के पास ज्यों-ज्यों पैसा बढ़ता है, वह परमेश्वर से त्यों-त्यों दूर होता जाता है। लोभ बढ़ता जाता है। लोभ से ही परिग्रह पल्लवित होता है। परिग्रह 80 For Personal & Private Use Only Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की पुत्री है तृष्णा । तृष्णा यानी ला और ला ! तृष्णा जन्म देती है स्पर्धा को, ईर्ष्या को। औरों से जितना बटोर सकूं, खुद को जितना भर सकूं, उतना भर लूं । नौका को अगर जरूरत से ज्यादा भरोगे, तो नौका को आखिर डूबना ही है । अष्टावक्र के लिए तो धर्म भी त्याज्य है । वे कहते हैं कि तू धर्म की भी उपेक्षा कर। धर्म यानी शुभ, अधर्म यानी अशुभ; धर्म यानी पुण्य, अधर्म यानी पाप; धर्म यानी कर्तव्य, अधर्म यानी अकर्तव्य, जो मोक्ष का अभिलाषी है, उसके लिए क्या शुभ और अशुभ, क्या पाप और पुण्य, क्या स्वर्ग और नरक ! पुण्य तो उसे चाहिए, जिसे स्वर्ग चाहिए। जो मुक्ति की कामना रखता है, उसे तो पुण्य की भी जरूरत नहीं। वह तो पुण्य को भी वैसे ही त्याज्य समझता है, जैसे पाप को । बंधन तो बंधन है, चाहे पाप का हो या पुण्य का हो, शुभ का हो या अशुभ का। बेड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की, वह तो आदमी को बांधेगी ही । मुक्ति के लिए तो पाप-पुण्य दोनों से उपरति चाहिए। पाप से मुक्त होने के लिए पुण्य है, लेकिन मोक्ष पाने के लिए तो पुण्य से भी छुटकारा आवश्यक है । मोक्ष अर्थ, काम और धर्म - तीनो पुरुषार्थों के पार है I अगला सूत्र है यत्र यत्र भवेत् तृष्णा, संसारं विद्धि तत्र वै । प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भवः ॥ अर्थात जहां-जहां तृष्णा हो, वहां-वहां ही संसार जान। प्रौढ़ वैराग्य को आश्रय करके वीततृष्णा होकर सुखी हो । संसार क्या है और निर्वाण क्या है? अष्टावक्र कहते हैं कि तृष्णा को ही संसार जान । तृष्णा ही मनुष्य का बंधन है, वही उसका अंधकार है। तृष्णा ही मनुष्य का विस्तार और उसका संसार है। जहां तृष्णा और मोह से छूटे, वहीं निर्वाण है । निर्वाण में दो शब्द हैं-निर् और वाण । निर् का अर्थ होता है - रहित होना और वाण का अर्थ होता है - वासना । निर्वाण का अर्थ होता है-वासना से रहित हो जाना । जो व्यक्ति वासना से मुक्त हो गया, काम की वासना से, धन की वासना से, नाम और पद की वासना से, व्यापार-व्यवसाय की वासना से मुक्त हो गया, वह अपने जीवन में अखंड निर्वाण को जी रहा है । आप अपने कार्य और कर्तव्य पूरे कीजिए, किंतु मनुष्य जिस भौतिक सुख की तृष्णा में पड़ा उसके पीछे दौड़ रहा है, याद रखें कि ये भौतिक सुख मनुष्य के चापलूस शत्रु हैं । व्यर्थ की लालसा और तृष्णा में उलझकर ऋण और निराशा के दलदल में न फंसें। कम है, तो उसमें भी तृप्त रहें । जो मिला है, जैसा मिला 81 For Personal & Private Use Only Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है, उसे आनंद-भाव से जी लेना, बगैर किसी शिकवा-शिकायत के, अलिप्त भाव से, यही जीवन की मुक्ति है। जहां-जहां तृष्णा है, वहीं-वहीं संसार है। तृष्णा का पात्र कभी भरता नहीं है। कितना भी पा लो, तृष्णा नहीं मिट पाती। तृष्णा के पात्र के आगे तो भिखारी ही नहीं, सिकंदर भी भिखमंगा है। जब सिकंदर राजा पुरु को जीत चुका था। तो उस समय सिकंदर से डायोजनिज ने पूछा-तू इस तरह से एक-एक सम्राट, एक-एक देश को जीतता चला जा रहा है। आखिर सारी दुनिया पर कब्जा करने के बाद क्या होगा? सिकंदर यह प्रश्न सुनकर निरुत्तर और हतोत्साहित हो गया। कहने लगा-यह तो मैंने सोचा ही नहीं कि आगे क्या होगा? जब तक हमने यह न सोचा कि आगे क्या होगा, आदमी तृष्णाओं में घिरकर बस जीता जाएगा, जीता जाएगा, इसीलिए अष्टावक्र कहना चाहते हैं कि तू प्रौढ़ वैराग्य को प्राप्त होकर वीततृष्णा होकर सुखी हो। जिस प्रकार की कामना से आदमी वैराग्य के मार्ग पर कदम बढ़ाता है, व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है कि वह आजीवन उस मार्ग पर अडिग रहे। यह मनुष्य का मन, जो आज राग को चाहता है, कल वैराग्य को चाहेगा, लेकिन वही वैरागी मन राग की ओर भी लौट सकता है। एक संसारी आदमी को तो तुम कह सकते हो कि तू रागी है, कामी है, विषयों में लिप्त है, लेकिन एक वैरागी को कैसे कहोगे? वैरागियों के राग बड़े विचित्र होते हैं। कुछ समय पहले एक बहुत बड़ा कथा-वाचन का प्रसंग शहर में हुआ। उस कार्यक्रम के आयोजक संयोग से मुझसे काफी सम्बद्ध रहे थे। उन प्रवाचक-संत महोदय को लेने के लिए उनकी कार हवाई अड्डे पहुंची। संतप्रवर ने यह कहकर कार में बैठने से इंकार कर दिया कि तुम्हारी कार वातानुकूलित नहीं है। मरते क्या न करते, हाथों-हाथ ए.सी. कार की व्यवस्था की गई। इस तरह उनका शहर में आगमन हुआ। वैरागियों का राग! बड़ा विचित्र होता है, तुम उसे राग कह भी नहीं पाते। कुछ समय पहले अखबारों में पढ़ा कि कुंभ के दौरान नागा-बाबाओं के बीच तलवारें चल पड़ीं। नग्नता अंगीकार कर इतने महान् त्याग और अपरिग्रह को स्वीकार किया, फिर भी मन के आक्रोश, हिंसा, प्रतिस्पर्धा से मुक्त नहीं हो पाए। अपने आपको बाहर से बदल लेना कितना आसान है, पर भीतर से बदल पाना उतना ही कठिन है। इसी कारण तो अष्टावक्र कहते हैं कि जहां-जहां तृष्णा हो, वहां-वहां ही संसार जान, प्रौढ़ वैराग्य को आश्रय करके वीततृष्णा होकर सुखी हो । तू परिपक्व वैराग्य को अंगीकार कर। संन्यास लेने की जल्दी मत करना। पहले अपने वैराग्य की कसौटी कसना। जब तक तुम पक्के श्रावक न बनोगे, तुम पक्के श्रमण कभी नहीं बन सकते। पहले सद्गृहस्थ तो हो जाओ, बाद में सम्यक संत भी हो जाओगे, तुम प्रौढ़ वैराग्य के स्वामी बनो। तुम जीतो मन की तृष्णा को, हृदय के भय को, 82 For Personal & Private Use Only Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्त की अशांति और आसक्तियों को। तुम सुखी बनो वीततृष्णा होकर, वीतमोह होकर, वीतराग होकर। अगला सूत्र है अलमर्थेन कामेन सुकृतेनापि कर्मणा। एभ्यः संसारकान्तारे न विश्रान्तमभून्मनः ॥ अर्थात अर्थ, काम और सुकृत कर्म बहुत हो चुके हैं। इनसे भी संसार रूपी जंगल में मन विश्रांति को प्राप्त नहीं हुआ। ___ अष्टावक्र कहते हैं कि जन्मों-जन्मों से हम काम को सिंचित करते रहे हैं, धन को बटोरते रहे हैं, पर क्या तृप्ति आई? अब तक तुमने सुकृत कर्म भी कितने किए, पर क्या मन को विश्राम मिला? हजारों बार मंदिर गए, मगर मन क्या मंदिर बन पाया? अच्छे और बुरे-दोनों प्रकार के कर्म में गति अब भी जारी है, उठा-पटक बरकरार है। अर्थ, काम और सुकृत कर्म बहुत हो चुके। इनसे मन विश्रान्ति को प्राप्त नहीं हुआ। अब तो उपराम कर। आत्मस्थित रह। अर्नेस्ट क्रास्वी की प्यारी कविता है ओ. मेरे मन, मौन रह। कार्य की व्यस्तता में तुम जो अपना आपा भूल जाते हो, उससे थोड़ी देर के लिए दूर हट! घड़ी-भर के लिए अकेला रहने से मत डर! ओ रे मन, मौन रह। रुक जा। कब तक भटकता रहेगा। वांछित-अवांछित खूब हुआ। अब केवल मौन, शांत । शांति में अंतर्लीनता ही परम सौख्य है। मन की शांति और चित्त की निर्मलता ही हमारा ध्येय हो। मन की शांति में ही सत्य का अवतरण है; मन की शांति में ही ज्ञान का उदय है। एक प्रिय घटना है-जिसने मुझे सहज ही प्रभावित और तरंगित किया। यह घटना सिंगोन के संत जीऊन से संबंधित है। संत जीऊन अपने जमाने के बड़े विद्वान प्रवक्ता थे। दूर-दूर से लोग उन्हें बुलाने आते। एक दिन उनकी मां का उनके पास पत्र आया। मां ने पत्र में लिखा-मुझे नहीं लगता कि तुम धर्म के एक सच्चे उपासक और सच्चे अनुयायी हो। मुझे लगता है कि तुमने औरों के लिए अपने आपको शब्दों का चलता-फिरता कोश बना लिया है। याद रखो, सूचनाओं और सिद्धांतों का, यश और सम्मान का कोई अंत नहीं है। मैं चाहती हूं कि तुम 83 For Personal & Private Use Only Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह भाषणबाजी का व्यापार बंद करो। तुम जाओ किसी पर्वत की तलहटी में, किसी छोटे से मंदिर में अपने आपको स्थापित कर लो। तुम अपने समय को ध्यान के लिए समर्पित करो और वास्तविक सत्य को उपलब्ध करो। मां के जो शब्द थे, वे सीधे हृदय में उतर गए-आई विश यू वुड स्टॉप दिस लेक्चर बिजनेस। डिवोर्ट योर टाइम टू मेडिटेशन एंड इन दिस वे अटेन टू रियलाइजेशन। मैं आपको आमंत्रित करता हूं अंतरघट में लौट आने के लिए। कृत्य बहुत हुए। पाप-पुण्य, सुख-दुख की उठा-पटक बहुत हुई। ___ छातीकूटा बहुत हुआ, सिर-पच्ची बहुत हुई, बीवी-बच्चे की अठखेलियां खूब हुईं, क्रिया-कर्म बहुत हुए, अब तो मेरे मीत, विश्राम कर। विश्राम ही ध्यान है, विश्राम ही संन्यास है, विश्राम ही मुक्ति और निर्वाण है। अंतर्मन में मौन हो जा, आत्मस्थ हो जा, अंतरलीन हो जा। बस, इतना ही कहना है। शेष, ॐ शांति। 84 For Personal & Private Use Only Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिस्थितियों के प्रति निरपेक्षता - जीवन के समस्त सुख और दुख का जवाबदेह स्वयं मनुष्य है। संपत्ति हो, जो चाहे विपत्ति, सुख हो, चाहे दुख अपने सारे क्रियाकलापों का उत्तरदायी स्वयं मनुष्य ही है। समय का दुष्चक्र कहें, नियति की अमिट रेखा या भाग्य की प्रबल विडंबना-इन सबके प्रति मनुष्य ही उत्तरदायी है। समय तथा ग्रह-गोचर भी हमारे अपने ही प्रतिबिंब हैं और नियति भी हमारा अपना ही हस्ताक्षर है। भाग्य भी हमारी अपनी ही प्रतिध्वनि है। आदमी भाग्य, नियति और समय के मत्थे पर दोषारोपण करके अपने आपसे पलायन भले ही कर ले, पर वह उनकी दृष्टि से बच नहीं सकता। भाग्य है, तो उसका परिणाम भी हमें भुगतना होगा, नियति की अनंत रेखाएं हैं, तो उसके परिणामों से भी हमें ही गुजरना होगा और अगर ग्रह-गोचर की कोई उठा-पठक है, तो वह भी हमारे ही द्वारों से गुजरने वाली है। आदमी अपने जीवन में जन्म-जन्मांतर में जैसा करता है, वैसा ही उसे सौगात के रूप में लौटकर मिलता है। यदि हम चाहते हैं कि हमें किसी के मुंह से गालियां सुनने को न मिलें, तो इसके लिए जरूरी है कि हम भी गाली-गलौच न करें। यह तय है कि गीतों के बदले में गीत और गालियों के बदले में गालियां ही मिलती हैं। औरों के द्वारा हमारे प्रति जो व्यवहार होता है, ऐसा मत समझना कि वह व्यवहार औरों के द्वारा हमारे प्रति हो रहा है, वरन् हमने जैसा किया था, वही उपहार के रूप में लौटकर आ रहा है। आज अगर किसी ने आपको नालायक कहा, तो संभव है कि यह शब्द सुनकर आप आगबबूला हो उठे, लेकिन यह निश्चित है कि आपने भी कभी किसी को नालायक शब्द कहा होगा, जो प्रतिध्वनित होकर वापस आ रहा है। प्रकृति की यह व्यवस्था है कि आप जो आवाज करेंगे, वह गूंजेगी और फिर आप पर ही बरसेगी। आपने कभी सोचा कि मंदिरों में शिखर क्यों बनाए जाते हैं, सीधी-सादी छत ही क्यों नहीं बना दी जाती? इसका कारण यह है कि जिन मंत्रों का हम उच्चारण करें, वे मंत्र प्रतिध्वनित होकर पुनः हम पर ही बरसें और हमारी सोई हुई अन्तश्चेतना को जगा दें। हमारे चित्त को आध्यात्मिक और परमात्ममूलक सुकून मिल जाए, इसीलए मंदिरों के ये शिखर बनते हैं। यह 85 For Personal & Private Use Only Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकाश भी एक शिखर है। इस जगत में हम जैसा करते हैं, वह लौटकर हम पर बरसता है। जिस आदमी ने जीवन का यह सत्य जान लिया है कि मुझे औरों के द्वारा वैसा ही प्रतिफल मिलेगा, जैसा मैं अपनी ओर से देता हूं, तो उसके जीवन से आपाधापी उसी वक्त मिट जाएगी। अगर आप चाहते हैं कि जीवन की सारी गतिविधियां पवित्र, सौम्य और स्वस्थ हों, तो आप अपना व्यवहार भी वैसा ही रखें। महर्षि अष्टावक्र अपनी ओर से यह विश्वास दिलाना चाहते हैं, जिससे आदमी अपने जीवन में होने वाली उठापटक से पलायन न करे, आत्म-नियंत्रण और व्यवहार-शुद्धि के लिए प्रयत्न करे। हम अपने जीवन में धर्म को प्रवर्तित करें, लोकचक्र में धर्मचक्र का प्रवर्तन करें। हम इस तरह जिएं कि जगत की ओर से होने वाला व्यवहार हमारे द्वारा किया गया व्यवहार हो जाए-पवित्र और क्लेश-रहित। अष्टावक्र कहते हैं भावाभावविकारश्च, स्वभावादिति निश्चयी। निर्विकारो गतक्लेशः सुखेनैवोपशाम्यति ॥ अर्थात भाव और अभाव का विकास स्वभाव से होता है, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह निर्विकार और क्लेशरहित पूर्ण शांति को उपलब्ध होता है। अष्टावक्र ने कहा-भाव और अभाव दोनों ही स्वभाव से होते हैं। अगर जीवन में अभाव आता है, तो निश्चित रूप से उसकी व्यवस्था हमने की होगी और स्वभाव तथा अनुकूलताएं हैं, तो उनकी व्यवस्था भी कभी हमने ही की होगी; अतीत में उनके बीज हमने बोए होंगे, जिनका रूप हमें तरुवर के रूप में दिखाई दे रहा है। ये दोनों प्रकृतिजन्य हैं, तो तू किस बात की चिन्ता करता है! अष्टावक्र कहना चाहते हैं कि तुम्हारे जीवन में अभाव हो या स्वभाव, नफा हो या नुकसान-दोनों ही स्थितियों में सदा प्रसन्न बने रहो । जीवन में प्रतिकूल परिस्थितियां आना बिल्कुल स्वाभाविक हैं। उनसे भयभीत होने अथवा पलायन करने की आवश्यकता नहीं है। यह जीवन तो समय की प्रतिस्पर्धा है, जिसमें कभी सुख आगे निकल जाता है, तो कभी दुख। दोनों ही परिस्थितियां हमारे सामने आती हैं, लेकिन वही व्यक्ति सदा-सुखी रहता है, सदा प्रसन्न रहता है, जो दोनों ही स्थितियों में समभाव रखता है। कहते हैं-एक सम्राट की सभा में चर्चा चल पड़ी कि दुनिया में इतने सारे धर्म-ग्रंथ हैं, उन सबका सार क्या है? सम्राट की सभा में कई बड़े-बड़े पंडित और विद्वान बैठे हुए थे। हर एक ने अपनी ओर से कुछ-न-कुछ कहा, मगर सम्राट संतुष्ट नहीं हो पाया। 86 For Personal & Private Use Only Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वजीर की हर सलाह पर सम्राट ने अपनी समस्या संत के सम्मुख रखी। संत ने कहा-सम्राट, मैं तो नहीं जानता कि किस धर्मग्रंथ का कौन-सा सार हैं। मेरे गुरु ने अपनी मृत्यु से पहले मुझे एक बीज-मंत्र दिया था। वह मंत्र मेरे हाथ पर बंधे हुए इस तावीज में है। मुझे गुरु ने कहा था कि संसार के सारे धर्मों का सार, जीवन के समस्त सत्वों का सत्व इस तावीज में है। राजन, अगर तुम चाहो तो यह तावीज ले सकते हो। सम्राट प्रसन्न हुआ। वह उस तावीज को खोलने के लिए उतावला होने लगा। संत ने कहा-तावीज तो मैं तुम्हें दे रहा हूं, मगर मेरी एक शर्त है। शर्त यह है कि तावीज को तुम तभी खोलोगे, जब तुम अपने आपको अकेला, निःसहाय और परम व्यथा से घिरा हुआ पाओ। सम्राट ने संत को शर्त की अनुपालना का आश्वासन दिया और तावीज ले लिया। कुछ अरसे बाद एक ऐसा संयोग बना कि शत्रु देशों ने मिलकर सम्राट पर आक्रमण किया। सम्राट युद्ध में परास्त हो गया। सम्राट अपने घोड़े पर सवार होकर वहां से बच निकला। सम्राट घोड़े को जंगल, नदी-घाटियों से दौड़ाता हुआ चला जा रहा था और पीछे शत्रु-पक्ष के सैनिकों के घोड़ों की टापों की आवाजें भी लगातार आ रही थीं। सम्राट को तावीज की याद हो आई। उसने सोचा-यह मेरे जीवन का परम एकाकीपन है, निःसहाय अवस्था है। अब मुझे यह तावीज खोलना चाहिए। उसने घोड़े पर सवार रहते ही तावीज को खोला और पढ़ा। लिखा था-यह भी बीत जाएगा। इतना-सा धर्म-सार पढ़कर वह चौंक गया। मैं कल तक सम्राट था, वह भी बीत गया । आज मैं जंगल में असहाय खड़ा हूं, पर यह भी बीत जाएगा। धीरे-धीरे शत्रुओं के घोड़ों की टापों की आवाजें आनी बंद हो गईं। शायद वे किसी और रास्ते पर चले गए थे। सम्राट मुस्कराया और कहने लगा तो यह भी बीत गया। पराजित सम्राट ने अपनी शक्ति फिर बटोरी, सैनिकों को तैयार किया और हमला कर दिया। सम्राट ने विजय हासिल की। वह फिर सम्राट बना। उसका फिर से राज्याभिषेक होने लगा। उसे तावीज की याद आई-तो यह भी बीत जाएगा? सभी अचंभित थे कि इस खुशी भरे माहौल में सम्राट के चेहरे पर यह शिकन! उन्होंने सम्राट से कारण पूछा। सम्राट ने कहा-क्या यह बीत नहीं जाएगा। कहते हैं, तब सम्राट के जीवन में बोध-दशा जाग्रत हुई, सुख-शांति जाग्रत हुई। उन्होंने जान ही लिया कि भाव की दशा हो या अभाव की; अनुकूलता हो या प्रतिकूलता-जहां दोनों स्थितियों में समानता है, वहीं पर व्यक्ति मुक्ति को जीता है। पिछले साल मुझे बीकानेर जाना पड़ा। वहां एक शख्स हैं-छल्लाणी। आकार-प्रकार से पुरुष हैं, अस्सी वर्षों का आदमी है, लेकिन विगत बीस वर्षों से महिलाओं के वस्त्र पहनता है। एक पुरुष अगर महिलाओं के वस्त्र पहने तो स्वाभाविक है, लोग उसे छेड़ेंगे, वह जिधर से गुजरेगा लोग उसे चिढ़ाएंगे। मेरा उस आदमी से संपर्क 87 For Personal & Private Use Only Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। उसने अपना जीवन-वृत्तांत मुझे सुनाया। उसे हिजड़ा और नपुंसक जैसे शब्दों को सुनने में कोई गिला नहीं है। जिस आदमी ने अपने मुंह पर अपने आपको हिजड़ा कहलाना स्वीकार कर लिया है, उस आदमी के जीवन में चाहे निंदा हो या प्रशंसा, भाव हो या अभाव, वह दोनों ही स्थितियों में समदर्शी रहता है। भाव और अभाव होना या न होना, ये सब तो पानी में उठने वाले बलबले हैं। ये स्वभावतया उठते रहते हैं, मिटते रहते हैं। अब अगर भाव-अभाव के विकार उठ भी आएं, तो भी चिंतित मत होइए और आपसे कोई कर्म हो भी गया, तो ग्लानि मत कीजिए। जो हुआ, सो हुआ। होना था, सो हो गया। जो हुआ, वह होना ही था। होनहार हुआ, इसमें क्लेश किस बात का। जो जीवन की सारी व्यवस्था को होनहार की व्यवस्था मान लेता है, वह शांत-सुखी रहता है। वह विकार को प्राप्त नहीं होगा। वह खिन्नता और क्लेश से नहीं घिरता। वह साक्षी भर बना रहता है, चेतना का साक्षी। अगला सूत्र है चिंतया जायते, दुःखं, नान्यथेहेति निश्चयी। तया हीनः सुखी शान्तः सर्वत्र गलितस्पृहः ॥ अर्थात इस संसार में चिंता से दुख उत्पन्न होता है, अन्यथा नहीं, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह सुखी और शांत है, उसकी इच्छा सर्वत्र गिर चुकी है, वह चिंता से मुक्त है। महावीर ने कहा-आदमी मिथ्यात्व के कारण दुखी है। बुद्ध ने कहा-आदमी मूर्छा और अविद्या के कारण ही दुखी है। आचार्य शंकर ने माया को मनुष्य के दुखों का कारण बताया है। अष्टावक्र दुख का एक जीवन-सापेक्ष कारण तलाशते हैं कि मनुष्य के मन में पलने वाली चिंता ही मनुष्य के दुखों का कारण है, उसका आधार है, चिंता यानी मानसिक अस्थिरता; चिंता यानी मस्तिष्क का नकारात्मक रूप; चिंता यानी जीवन में पलने वाला अहंकार का भाव, कर्ता-भाव। ___ चिंता का मूल कारण है वर्तमान से भागना, अतीत या भविष्य में जीना। जीवन को वर्तमान-सापेक्ष बनाओ। जैसा जीवन आज हमें मिला है, उसके बारे में मनन करो और तदनुसार अपने जीवन को आगे बढ़ाओ। अतीत जो भी रहा है, अतीत में जो भी हुआ, उसे स्मृति में मत लाओ। अतीत का स्मृति में आना ही आसक्ति है और यह आसक्ति ही चिंता का कारण बनती है। जो अभी तक हुआ ही नहीं, उसके बारे में भी व्यर्थ की कल्पनाएं मत करो। आने वाले कल के बारे में ही सोचते रहे, तो इससे तुम्हारी मानसिक क्षमता प्रभावित होगी, बौद्धिक-विकास, अवरुद्ध होगा। जिस आदमी के पास दिन-रात चिंता है, उसके पास न प्रतिभा है, न मेधा है और न ही प्रज्ञा। वह कभी निर्णय कर ही 88 For Personal & Private Use Only Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नहीं पाएगा। वह तो यही सोचता रहेगा कि ऐसा क्यों हुआ, क्यों होना चाहिए; कब किया जाना चाहिए? चिंता का सकारात्मक रूप है - चिंतन और चिंतन का नकारात्मक और विकृत रूप है - चिंता । जब मनुष्य की चिंता सकारात्मक और रचनात्मक मार्ग पकड़ लेती है, तो चिंता, चिंतन बन जाती है और जब व्यक्ति का चिंतन विकृत बन जात है, वही चिंतन चिंता बन जाता है। फर्क सिर्फ नकारात्मकता और सकारात्मकता का है। नकारात्मक चिंतन से किसी समस्या का कोई हल नहीं मिल पाएगा । चिंताओं को पालने से जीवन को कोई दिशा नहीं मिल पाएगी, इसलिए मेरे प्रभु बहुत निश्चित रहा करो। जब जो - जैसा होना होगा, तब वो वैसा हो जाएगा । चिंता से मुक्त रहने का पहला सूत्र ही यह होगा कि अपने चित्त से कर्ता-भाव को हटा दो; कर्ता-भाव को उस परमात्मा को, उस प्रकृति को, उस व्यवस्था को सौंप दो। परमात्मा से यही प्रार्थना करो कि जैसा तू रखना चाहे, हम उसी में तैयार हैं । हमने तो पतवार तुम्हारे हाथों में सौंप दी है। अब इस नैया को जिस ओर ले जाना चाहे, तेरी मर्ज़ी | हमने तो अब अपने आपको तुम्हारी मुरली बना ली है, मुरलीधर! अब तू जैसे स्वर फूंकना चाहे, जैसा सुर तू बजाना चाहे, हम समर्पित हैं। कर्ता-भाव उसको सौंप दो और उसके बाद तुम कर्म करो, परिणाम यह होगा कि न तुम जीवन में किसी तरह की कामना करोगे और न ही आपूर्ति की स्थिति में शोक या अवसादग्रस्त होओगे । काम और कामना से, शोक और दुख से मुक्त होने का यह पहला और सार्थक सूत्र होगा । 1 यह भी मत सोचो कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। हर व्यक्ति असीम क्षमताओं का स्वामी है। हम सब कुछ कर सकते हैं, इस आत्मविश्वास और आत्मसंकल्प के साथ पुरुषार्थ करो । कर्म करना तुम्हारा अधिकार है, फल की चिंता परमात्मा पर छोड़ दो। तुम माली की तरह बीज बोने और उसे सींचने की चिंता करो, क्योंकि फूल-फल-पत्तियां देना तो प्रकृति की व्यवस्था है । अष्टावक्र आगे कहते हैनाहं देहो न मे देहो, बोधोऽहमिति निश्चयी । कैवल्यमिव सम्प्राप्तो, न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥ जनक से अष्टावक्र कहते हैं- न मैं शरीर हूं, न शरीर मेरा है । मैं तो बोध रूप चैतन्य हूं, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह पुरुष कैवल्य को प्राप्त होकर किए और अनकिए का स्मरण नहीं करता । अष्टावक्र हर जीवित प्राणी को, हर साधक को यह बोध देना चाहते हैं कि सदा-सदा यह स्मरण रखो कि मैं न तो देह हूं और न यह देह मेरी है। जहां व्यक्ति ने स्वयं को देह माना, वहीं पहले अज्ञान के बीज का आरोपण हुआ; शरीर में पैदा 89 For Personal & Private Use Only Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने वाले शरीर के सारे धर्म तुम्हारे धर्म हो जाएंगे। तब तुम कहोगे कि मुझे भूख लगी; मैं कामुक हुआ, मुझे क्रोध आया; मेरे शरीर में अमुक प्रकार की संवेदना हो रही है। यह बात हमारे बोध में उतर जाए, अंतर्दृष्टि में उतर जाए कि यह शरीर मेरा नहीं है, तो फिर आदमी कहेगा-पेट को भूख लग गई है; गला प्यासा है; शरीर में बड़ी उत्तेजना हो रही है; मन में आक्रोश और क्रोध की तरंग पैदा हो रही है। ऐसा नहीं है कि मुझे क्रोध आ रहा है। मैं तो मन का साक्षी हुआ। उत्तेजना अगर जग रही है, तो शरीर को जग रही है। जहां व्यक्ति ने यह जाना कि मैं शरीर से अलग हूं, वहां भूख भी अलग हो गई, प्यास भी अलग हो गई और कषाय भी स्वतः उससे पृथक हो गए। शरीर में व्याधि भी रही, तब भी मन में सदा-सदा समाधि रहेगी। रामकृष्ण परमहंस, महर्षि रमण, जैन परंपरा की एक साध्वी विचक्षणश्री-ये सभी विभूतियां कैंसर से पीड़ित रहीं । जिज्ञासा जगती है कि तन में व्याधि होते हुए भी उन लोगों ने समाधि को कैसे जी लिया? इसका एकमात्र कारण यही है कि उन्होंने जाना देह अलग और मैं अलग, चेतना अलग और जड़ अलग। जैसे रथ और रथिक दोनों अलग-अलग होते हैं, वैसे ही मैं और यह काया-दोनों भिन्न हैं। जन्म के साथ शरीर जन्मा है और मृत्यु के साथ शरीर मरेगा। न मैं जन्मा, न ही मेरी मृत्यु होगी। मैं तो दोनों ही स्थितियों से अलग हूं। व्यक्ति में यह भाव जग जाए, तो साक्षित्व का उदय होगा। तब व्यक्ति देह के बीच रहते हुए भी विदेह-स्थिति को जीएगा। वह जान जाएगा कि मेरी मृत्यु काया का परिवर्तन भर है। शरीर और चेतना के बीच रहने वाला तादात्म्य ही मनुष्य के अज्ञान का आधार होता है। यह तादात्म्य टूट जाए, भीतर की वासना गिर जाए, आसक्ति मिट जाए, तो आदमी देह में रहते हुए भी देहातीत हो जाएगा। कहते हैं कि जब सिकंदर भारत-विजय के लिए यहां आ रहा था, तो उसके गुरु डायोजनिज ने उससे कहा-सिकंदर, भारत से लौटते वक्त तुम एक संत को अपने साथ लेते आना। जब सिकंदर यहां से चलने को हुआ, तो उसे अपने गुरु की बात याद आई। उसने गांव वालों से बातचीत की, तो पता चला कि गांव के बाहर एक संत रहते हैं। सिकंदर ने सिपाहियों से कहा कि संत को पकड़ लाओ। सिपाही संत के आश्रम में पहुंचे। सिपाहियों ने कहा कि सिकंदर का आदेश है कि आप उनकी सेवा में हाजिर हों। साधु ने कहा-साधु वे होते हैं, जो किसी का आदेश नहीं मानते। सिकंदर से कह दो कि मैं गुलाम नहीं हूं, जो उसकी आज्ञाओं को मानूं। सिपाहियों ने जाकर यह बात सिकंदर को बताई। सिकंदर ने इसे अपनी तौहीन माना। एक साधु की यह मजाल कि वह मना कर दे। 90 For Personal & Private Use Only Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकंदर के आदेश पर संत को लेने सेनापति गया। सेनापति ने कहा-सम्राट सिकंदर का आदेश है कि तुम्हें चलना होगा। संत ने कहा-और अगर न चल पाए तो? तो तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर दिया जाएगा। सेनापति ने जवाब दिया। संत ने कहा-जाओ, और अपने सम्राट से जाकर कह दो कि जिसको तुम मारना चाहते हो, वह तो पहले से ही मर चुका है। सेनापति ने जब सारी बात सिकंदर को बताई, तो सिकंदर ने स्वयं जाने का निश्चय किया। सिकंदर साधु के पास पहुंचा। साधु ने सिकंदर से कहा-उठाओ तलवार। हम भी देखते हैं, अपनी काया को अपने सामने गिरते हुए। जिस व्यक्ति ने अपने शरीर से इतनी भिन्नता देख ली है, वह व्यक्ति सदा-सदा साक्षी और मुक्त रहता है। उसके जीवन में न कामना रहती है, न शोक रहता है। वह हमेशा कैवल्य-लाभ को प्राप्त होकर जीता है। ___ अपनी केवलता का अनुभव कर लेने का नाम ही कैवल्य है; मैं एक शुद्ध चैतन्य भर हूं, इस बात का बोध कर लेने का नाम ही कैवल्य है। इतना-सा बोध चाहिए। वह व्यक्ति पृथ्वी से अलग, आकाश से मुक्त, अग्नि से वंचित, सृष्टि के समस्त पंच महाभूतों से भिन्न तत्त्व होता है। वह केवल चैतन्य-तत्त्व होता है, जो चैतन्य में जाकर समाविष्ट हो जाता है, ज्योति परम ज्योति में तदाकार हो जाती है। 91 For Personal & Private Use Only Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्षेपों पर विजय दुनि निया में लगभग 350 धर्म मानवता की सेवा में लगे हुए हैं । धर्म चाहे अतीत का रहा हो या आज उसका समय सापेक्ष जन्म हुआ हो, धर्म का इससे लेन-देन नहीं है। आखिर सब धर्मों का सार - संदेश क्या है ? चित्त की निर्मलता और व्यवहार की सौम्यता । और इसके लिए जरूरी है ध्यान और योग । ध्यान ही धर्म का सार है और यही अध्यात्म की कुंजी है । सौम्य चित्त का स्वामी होने के लिए मंगलमय जीवन और आचरण का प्रवर्तन करने के लिए ध्यान हमें अंतर्दृष्टि देता है । हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जिसमें आदमी के पास प्रसन्नता और प्रमुदितता तो कम है, पीड़ा और अंतर्व्यथा ज्यादा है। मैंने हजारों चेहरों को देखा है; चेहरों पर छाई मुस्कान को देखा है, उस मुस्कान के भीतर छिपी पीड़ा को भी देखा है । बाहर-बाहर हंसते-मुस्कराते चेहरों के भीतर तो दुख-दर्द का लावा सुलग रहा है बस, उनकी दुखती रग पर हाथ रखने भर की देर है कि तत्काल आंखों से आंसुओं की धार फूट पड़ेगी । मुस्कान के भीतर छिपी पीड़ा इतनी गहन हो चुकी है कि बगैर ध्यान के मनुष्य की संपूर्ण चिकित्सा संभव ही नहीं है 1 संसार ने अपने निर्माण का जितना इंतजाम किया है, उससे कहीं ज्यादा इंतजाम अपनी मृत्यु का किया है। दुनिया में इतने अधिक अस्त्र और शस्त्र बढ़ चुके हैं, इतना आतंक फैल गया है, घृणा और प्रतिस्पर्धा की राजनीति इस कदर खेली जाने लगी है कि कब तीसरा महायुद्ध छिड़ जाए, पता नहीं। यह प्रलय, यह कयामत यदि होगी तो स्वयं मनुष्य द्वारा मनुष्य जाति के लिए होगी । आज आदमी शरीर से इतना रुग्ण नहीं है, जितना मन से रोगग्रस्त है । मनुष्य के पास मन की बीमारियां ज्यादा हैं। लोग आए दिन आत्महत्याएं करते हैं; भाई-भाई आपस में झगड़ते हैं; समाज और समाज के बीच तलवारें चलती हैं। मनुष्य, मनुष्य के बीच के फासले बढ़े हैं, भले ही देशों की सीमाओं में कमी आई । यह दूरियां इस हद तक बढ़ी हैं कि पड़ोसी अपने पड़ोसी को नहीं पहचानता । एक समय था, जब पड़ोसी, पड़ोसी के हर सुख-दुख का बराबर भागीदार था; परिवार और पड़ोस 92 For Personal & Private Use Only Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में कोई भेद नहीं किया जाता था। आज स्थितियां उलट गई हैं। पहले आदमी जंगल में सांप, बिच्छू, शेर या गीदड़ से भयभीत होता था, लेकिन आज आदमी, आदमी से ही आतंकित है; अपने मित्र से ही डरता है कि न जाने कब वह धोखा दे जाए। धरती पर धर्म और शांति, प्रेम और पवित्रता की बातें बहत होती हैं, यहां शांति और सुरक्षा के नाम पर प्रति घंटा पचास करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं, जबकि हर तीन में से दो आदमी भूखे, नंगे, बेघर, बीमार और बेरोजगार हैं। यहां विकास के जितने इंतजाम हुए हैं, उनसे कहीं ज्यादा विनाश के हुए हैं। अब अस्पतालों को खोल लेने भर से काम न चलेगा; गली-गली में छोटे-मोटे मंदिर बना लेने भर से काम नहीं चलेगा। अब तो ध्यान और योग के मंदिर बनाने होंगे, चरित्र-निर्माण के विद्यालयों का विस्तार करना होगा। जब तक ध्यान और योग की पुनर्प्रतिष्ठा नहीं होती, तब तक तुम हवाएं प्रदूषित ग्रहण करोगे; अनाज प्रदूषित खाओगे; विचार प्रदूषित पाओगे; तुम जिन लोगों के बीच जीओगे, उनका प्रदूषण अपने भीतर पाओगे। तुम्हारा तन, तुम्हारा मन, तुम्हारे विचार-सब अस्वस्थ होंगे। जीवन के रोम-रोम में अस्वस्थता विद्यमान है, तो संपूर्ण संसार स्वस्थ होगा, यह संभव नहीं है। जिन्हें धरती से प्यार है, जो धरती पर स्वर्ग देखना चाहता है, जो हर इनसान से प्रेम करता है, वह कभी नहीं चाहेगा कि प्रलय मचे या धरती हमारे ही हाथों नरक बने। हम चाहेंगे कि धरती पर प्रयोग हों, ऐसी प्रयोगशालाएं बनें, ऐसे मंदिर बनें, जहां मनुष्य को पूरा मनुष्य होना सिखाया जाए; जो मनुष्य को अंतर्मन की शुद्धि करना सिखाए; जो मनुष्य के मन में पलने वाले विकारों की शल्य-चिकित्सा करे। __ महर्षि अष्टावक्र कहते हैं कि सारा संसार ध्यानमय हो, तीर्थमय हो। जब तक व्यक्ति अंतर्मन की शुद्धि, उसकी स्वस्थता, प्रसन्नता के लिए प्रयत्न न करेगा; मन में स्वर्ग को ईजाद करने के लिए कोशिशें न करेगा, तब तक आदमी के सिर पर खतरा मंडराता रहेगा। आदमी बौद्धिक और वैज्ञानिक विकास करने के बावजूद खिन्न, विपन्न और संकटग्रस्त बना हुआ रहेगा। जो व्यक्ति अपने आप में शुद्ध है, समाधिस्थ है, ध्यानस्थ है, कृतपुण्य है, लेकिन पाते हैं कि उनके अंतर्मन की स्थिति ठीक नहीं है, उनके लिए ये गाथाएं, ये सूत्र बहुत कीमिया सिद्ध होंगे। आज का सूत्र है समाध्यासादि विक्षिप्तौ, व्यवहारः समाधये। एवं विलोक्य नियममेवाहमास्थितः॥ जनक कहते हैं-अध्यास आदि के कारण विक्षेप होने पर ही समाधि का व्यवहार होता है। ऐसे नियम को देखकर समाधिरहित मैं स्थित हूं। 93 For Personal & Private Use Only Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सूत्र मानवता के द्वारा हृदयंगम करने योग्य है । जिनके चित्त में विक्षेप होता है, उनके द्वारा समाधि का व्यवहार किया जाता है । उनके लिए जरूरी है कि वे ध्यान को अपने जीवन का परम मार्ग बनाएं। चित्त का धर्म ही विक्षेपमूलक है । मनुष्य का मन सदा चंचल रहता है और यही चंचलता उसके चित्त की पहचान है । मनुष्य के चित्त के धरातल पर मन की चिड़ियां पल - प्रतिपल उड़ती ही रहती हैं। ध्यान से देखोगे, तो पहचानोगे कि हमारे चित्त की स्थिति कैसी है? चित्त में कभी अतीत हिलोरें लेता है, तो कभी भविष्य की कल्पनाएं उमड़ती हैं, कभी परिजन याद आते हैं। चित्त भौंरे की तरह इधर से उधर, उधर से इधर घूमता रहता है लगातार उधेड़बुन जारी रहती है । 1 ध्यान के द्वारा यह पहचानने का प्रयास करें कि आज की तारीख में हमारे चित्त की स्थिति क्या है ? अगर चित्त में बैठे और चित्त चलता हुआ दिखाई दे, तो चिंतित मत होना; बहता हुआ दिखाई दे, तो उसको बहने देना । तुम चित्त को अलग होकर चित्त के साक्षी, द्रष्टा और दर्शक भर बने रहना । तब तुम चित्त के साथ रहते हुए भी उससे भिन्न, उससे अलग हो जाओगे । जनक कह रहे हैं कि मैंने अपने चित्त के विक्षेपों को जीत लिया है, जिसने अपने आपको जीत लिया, वह आत्मज्ञानी हो चुका। वही आदमी समाधि का व्यवहार नहीं करता। वह तो समाधिरहित होकर समाधि में तल्लीन रहता है । जनक कहते हैं कि जैसे कर्म का अनुष्ठान अज्ञान से है, वैसे ही उसके त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से है । इस तत्त्व को भली-भांति जानकर मैं कर्म-अकर्म से मुक्त होकर अपने में स्थित हूं । नतीजतन मेरी ओर से किसी भी प्रकार के कर्ता का भाव नहीं, क्रिया का भाव नहीं । जिसने जाना है स्वयं को, उसके सारे कर्म ध्यानपूर्वक ही होते हैं । आत्मस्थित व्यक्ति तो चलता हुआ भी नहीं चलता । जो स्वयं से अपरिचित है, वह नहीं चलता हुआ भी चलता है। ज्ञानी सेवन करता हुआ भी सेवन नहीं करता । अज्ञानी सेवन न करता हुआ भी सेवन करता है । सवाल क्रिया का नहीं, कर्ता और भोक्ता-भाव का है, अकर्ता और द्रष्टा भाव का है । जनक कहते हैं कर्मानुष्ठानमज्ञानात् यथैवो परमस्तथा । बुद्ध्वा सम्यगिदं तत्त्वमेवमेवाह-मास्थितः ॥ अर्थात जैसे कर्म का अनुष्ठान अज्ञान से है, वैसे ही उसके त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से है 1 मनुष्य जिस दिन जन्म लेता है, उसी दिन से कर्म करना प्रारंभ कर देता है । अगर बच्चा भूख के कारण रो रहा है और मां को बुला रहा है कि मुझे 94 For Personal & Private Use Only Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूध पिलाओ, तो यह भी उसकी ओर से कर्म करना हुआ । इस तरह हमने मां की कोख में ही कर्म करना शुरू कर दिया । प्रकृति हर किसी से कर्म करवाती है। कर्म के बिना रहना प्राणि-जाति के लिए संभव ही नहीं है। कुछ कर्म स्वाभाविक कर्म होते हैं; कुछ आवश्यक कर्म होते हैं; कुछ प्रतिकर्म और निष्कर्म होते हैं और कुछ कर्म अकर्म होते हैं । क्रिया निरंतर चलती रहती है। भगवान कृष्ण गीता में अर्जुन को निरंतर कर्म करते रहने की ही प्रेरणा देते हैं। साथ में यह भी कहते हैं कि तुम कर्ता-भाव से हटकर कर्म करो । अज्ञान से कर्म तभी तक चलता है, जब तक व्यक्ति इस भाव के साथ कर्म करता है कि 'करने वाला मैं हूं' | 'मैं' का अहंकार आ जाने के कारण ही कर्म व्यक्ति के लिए अज्ञान का कारण बन जाता है । जनक एक बात और कहना चाहते हैं कि कर्म के त्याग का अनुष्ठान भी अज्ञान से होता है। यह बहुत गहरी बात है । कर्म का त्याग करना है, तो तुम त्याग करो, पर उसे अनुष्ठान क्यों बनाते हो । प्रयास पूर्वक किए जाने वाले त्याग से किसी भी वस्तु अथवा व्यक्ति को छोड़ा जा सकता है, लेकिन छूटा नहीं जा सकता । छोड़ने में और छूटने में फर्क है । छोड़ता आदमी है और छूटता स्वतः है; छूटना स्वभाव है और छोड़ना कर्म है । त्याग तो वही है, जो ज्ञानमूलक होता है । अज्ञानमूलक तप भी मनुष्य के लिए नरक का हेतु बनता है। कहते हैं - कमठ पंचाग्नि तप कर रहा था । वह केवल फलाहार लेता था । पार्श्वनाथ ने उसके पास जाकर कहा- तपस्वी, तुम्हारा तप तुम्हारे लिए नरक का कारण है । तप वही सार्थक होता है, जो ज्ञानमूलक होता है । जिस तप में हिंसा है, असंयम है, जिस तप में संतोष और पवित्रता नहीं है, वह तप तप नहीं मनुष्य के लिए ताप है । आज त्याग को हम ऐसा अनुष्ठान बनाने लग गए हैं कि हमें लगता है कि जब तक त्याग का प्रदर्शन न हो, तब तक त्याग अधूरा है । महावीर और बुद्ध से संयास लेने वाला व्यक्ति परिवार से आज्ञा लेकर भगवान के पास पहुंचता, अपना वेश उतारता और नया वेश धारण कर वानप्रस्थ, संन्यास या गुफावास स्वीकार कर लेता । अब किसी को दीक्षा लेनी हो, तो जुलूस निकलता है; उसको गहनों से लाद दिया जाता है । अब त्याग, त्याग न रहे अज्ञानमूलक अनुष्ठान हो गए। जनक तो कहते हैं कि मैं तो कर्म और अकर्म-दोनों का त्याग करके आत्म-स्थित हूं। मैंने तो अपने कर्ताभाव को प्रकृति को सौंप दिया है। अब तो प्रभु ! तू जैसा रखना चाहेगा, वैसे ही हम रह लेंगे । कृष्ण ने तो अर्जुन से युद्ध तक करवाया । व्यक्ति क्षत्रिय है, वह क्षत्रिय का कर्म करे । कर्म करना मनुष्य का दायित्व है। बस, कर्ता-भाव छूट जाए। साक्षी 95 For Personal & Private Use Only Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के द्वारा होने वाला युद्ध भी अयुद्ध का ही रूप हुआ। यह बहुत गहरी बात है। जिस आदमी ने अपने आपको जान लिया है, वह चलता है, लेकिन चलते हुए भी उसको यह नहीं लगता कि मैं चल रहा हूं; वाणी बोलती है, मैं थोड़े ही बोलता हूं, शरीर को भूख लगती है, मुझे थोड़े ही भूख लगती है। जिसने अपने आपको पंचमहाभूतों से पृथक जान लिया है, वह सब कुछ करते हुए भी सबसे निर्लिप्त बना रहेगा। अपने कर्ता-भाव को परमात्मा के चरणों में सौंप दो, तो प्रकृति आपके जीवन की व्यवस्थाएं इतनी सहजता से करती चली जाएगी, जितनी कि आप श्रमपूर्वक भी नहीं कर पा रहे हैं। फिर जीवन में कर्म तो होंगे, क्रियाएं तो होंगी, मगर कर्म का भाव तुम पर हावी नहीं होगा। रात को जब तुम सोओगे, तो बड़ी चैन की नींद होगी, सुबह जगोगे तो नए जीवन में, नए संसार में आपका प्रवेश होगा। जनक आत्म-स्थित हैं। वे अपनी ओर से अनासक्त हो चुके हैं; निर्लिप्त हो चुके हैं; आत्मज्ञान में स्थित होकर वे स्वयं अपने साक्षी बने हैं; अपनी देह के, अपने विचारों के, अपने कर्म और अपने विषयों के। वे रस, गंध, स्पर्श सारे इंद्रिय-विषयों के साक्षी भर बनकर दुनिया में जीने का प्रयास कर रहे हैं। जिसने साधनों से क्रिया रहित स्वरूप पाया है, वह कृतकृत्य है और जो स्वभाव से ही स्वभाव वाला है, वह तो कृतकृत्य है ही, इसमें कहना ही क्या! ऐसे लोग कुलयोगी होते हैं। पूर्वजन्म से साधना करते आए, साधना स्वभाव में थी, वह स्वभाव से ही स्वभावस्थ रहा। मार्ग चाहे जो अपनाया जाए, चाहे स्वभावमूलक हो या क्रियामूलक-ज्ञान दोनों के लिए आवश्यक है। जीवन ज्ञान का प्रकाश-पुंज बने, ज्ञान की परछाई बने। आज अपनी ओर से इतना ही निवेदन है। 96 For Personal & Private Use Only Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालिक बनें मन के हर्षि अष्टावक्र और राजर्षि जनक के साथ हम सभी जीवन और अध्यात्म के सागर में धीरे-धीरे गहरे उतरते जा रहे हैं। अष्टावक्र-गीता हमारे सामने आत्मज्ञान की रश्मियों को उजागर कर रही है। न केवल आत्मज्ञान की रश्मियों को ही, एक आत्मज्ञानी व्यक्ति का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए; उसका जीवन और जीवन-शैली कैसी होनी चाहिए?-इसके बारे में भी यह अष्टावक्र-गीता कई दीप-शिखाएं जला रही है, कई मील के पत्थर स्थापित कर रही है। ___ दुनिया में दो तरह के शास्त्र होते हैं। पहले प्रकार के शास्त्र त्याग, क्रिया ओर आराधना के बारे में दिशा-निर्देश देते हैं। दूसरी श्रेणी में अष्टावक्र-गीता आती है, जो मनुष्य को न तो त्याग की प्रेरणा देती है और न ही क्रिया और आराधना की। यह तो वह धर्मशास्त्र है, जो मनुष्य को देह-भाव से उपरत करते हुए उसे आत्मज्ञानपूर्वक जीवन जीने का भाव देता है, एक ऐसा भाव कि व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार में न रहने जैसा होता है। यह न तो प्रवृत्ति करने की प्रेरणा देता है और न ही प्रवृत्ति से पलायन करने की। यह प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति न करने जैसी स्थिति देता है। महावीर पूरी तरह निवृत्ति का मार्ग बताते हैं; चार्वाक पूरी तरह प्रवृत्ति का मार्ग बताते हैं। अष्टावक्र एक अलग दर्शन, एक ऐसी जीवन-दृष्टि पैदा करना चाहते हैं, जहां आदमी संसार में रहते हुए भी संसार में न रहने जैसा हो जाए, कीचड़ में रहते हुए निर्लिप्त हो जाए। अष्टावक्र ने एक बार भी यह नहीं कहा कि जनक तुम संन्यासी हो जाओ। वे तो निरंतर यही कहते रहे कि तुम ऐसे संन्यासी बनो, जो गृहस्थ में रहते हुए भी संन्यस्थ-जीवन जीए; तुम ऐसे सम्राट बनो, जो सम्राट भी हो और संन्यासी भी हो। ऐसा गौरव, ऐसी महिमा, जीवन की ऐसी शैली शायद अप्टावक्र के सिवा कोई गार न दे पाया। संसार में रहना, साम्राज्य का संचालन करना परिवार के बीच जीना मनुष्य के लिए कभी भी घातक नहीं होता। घातक होता है जव समय शुभ और अशुभ, पाप और पुण्य के अंतर्द्वद्र में अपने जीवन की व्यवस्थाओं को उलझा देता है। 97 For Personal & Private Use Only Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र-गीता का एकमात्र ध्येय इतना-सा ही है कि व्यक्ति येन-केन प्रकारेण अपने भीतर चल रहे अंतर्द्वद्व से, यातायात और कोलाहल से मुक्त हो जाए। मनुष्य का मन अगर शरीर की ओर जाता है, तो जीवन में भोग प्रकट होता है; मनुष्य का मन जब चेतना की तरफ बढ़ता है, तो जीवन में योग का आविष्कार होता है। मनुष्य का मन ही भोग का द्वार खोलता है और वही मन योग का सूर्योदय भी करता है। जनक तो योग और भोग के बीच की वह कड़ी, वह सेतु बन चुके हैं, जिसने पहले मन को समझा, उसे बदला और फिर अपने आपको मन से मुक्त कर लिया। जिसने अपने आपको जान लिया है कि मैं देह और मन से अलग हूं, वह व्यक्ति देह और मन के द्वारा प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति न करने जैसा रहता है। जनक ने जान लिया कि मैं शरीर से भिन्न हूं; मैं शरीर का केवल साक्षी भर हूं; मैं अपने मन से, वाणी से, विचारों से भिन्न हूं। अपने आपको पृथक जान लेने का नाम ही महावीर की भाषा में भेद-विज्ञान है। अष्टावक्र को जो देना था, वह भेद-विज्ञान के रूप में दे दिया और जनक ने उन ज्ञान की बातों को, उन उपदेशों को स्वीकार कर लिया। अब वे उनके पास बैठकर पचा रहे हैं, रस बना रहे हैं। एक ऐसा रस बन रहा है, जो जनक को भी अभिभूत कर रहा है और अष्टावक्र को भी आनंदित कर रहा है; एक ऐसा रस कि जिसके आगे जीवन की सारी नीरसताएं मिट जाती हैं। एक ऐसा दीया जल चुका है, जिसकी रोशनी से सारा अंधकार तिरोहित हो जाता है। एक ऐसी शांति साकार हो आई है कि जैसे हवा के थमने से दूर-दूर फैला जल थम-सा जाता · है, निस्तरंग हो जाता है सरोवर। जनक भी कुछ सूत्र देते हैं और अष्टावक्र भी कुछ सूत्र देते हैं। अगर अपने जीवन को इन सूत्रों के साथ जोड़ लो, तो ये हमें वैसे ही तृप्त कर देंगे, जैसी तृप्ति जनक को मिली थी; जैसे मील का पत्थर पाकर भटका हुआ राहगीर रास्ता पा लेता है और जैसे पंख पाकर पंछी आकाश में उड़ने को आतुर हो जाता है. ऐसे ही ये सूत्र हमारे सहयोगी होंगे। पहला सूत्र है अकिंचन भवं स्वास्थ्य, कौपीनत्वेऽपि दुर्लभम् । त्यागादाने विहायास्मादहमासे यथासुखम् ॥ जनक कहते हैं- नहीं है कुछ भी-ऐसे भाव से पैदा हुआ जो स्वास्थ्य है, चित्त की स्थिरता है, वह तो कोपीन को धारण करने पर भी दुर्लभ है, इसीलिए त्याग और ग्रहण को छोड़कर मैं सुखपूर्वक स्थित हूं। 98 For Personal & Private Use Only Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिसने जाना है कि ‘नहीं है कुछ भी उस व्यक्ति का क्या अपना कोई दृष्टिकोण, अपना कोई आग्रह और दुराग्रह रहता है ? क्या उसकी कोई आसक्ति और मूर्च्छा बनी हुई रहती है? क्या वह आदमी कुछ 'प्राप्त' करने के लिए तृष्णातुर रहता है ? जनक कहते हैं कि यहां सब कुछ क्षणभंगुर और अनित्य है । सब कुछ बदल रहा है। लगता है कि हर चीज यहां पर मौजूद है, हर चीज यहां पर स्थिर है, लेकिन यह दृष्टि का भ्रम है कि आदमी को हर चीज स्थिर दिखाई देती है, पर वास्तविकता यह है कि दुनिया में, ब्रह्मांड में कोई भी वस्तु, कोई भी व्यक्ति, कोई भी पर्याय अपने आप में स्थिर नहीं है । बदल रहा है सब कुछ। व्यक्ति है, तो व्यक्ति बदल रहा है; महल खंडहर बन जाते हैं और खंडहर महल बन जाते हैं; श्मशान शहर बन जाते हैं और शहर श्मशान बन जाते हैं । सब कुछ अनित्य है, परिवर्तनशील है। दुनिया के दलदल में आदमी कीचड़ के कीड़े की तरह खो गया है । वह कीड़ा अगर कभी कीचड़ से बाहर खुले आकाश की ओर झांक भी ले, तो भयभीत हो जाता है। वह फिर कीचड़ में चला जाता है। कीचड़ का अपना रस है, अपना मजा है। काम कीचड़ ही तो है । जनक तो अपनी खुली आंखों से देख रहे हैं कि यहां तो कुछ भी नहीं है। यहां आदमी मुसाफिर की तरह आता है और चला जाता है । I जिसने जान लिया है कि संसार में कुछ नहीं है, उस व्यक्ति के चित्त में स्थिरता आ जाती है। ऐसी स्थिरता, जिसको जनक स्वास्थ्य की संज्ञा देते हैं । स्वास्थ्य का अर्थ होता है - स्वस्थ होना, स्वयं में स्थित होना । जो स्वयं में स्थित है, उसके आनंद का मुकाबला नहीं। कोपीन धारण करने वाले को भी वैसी तृप्ति और संतुष्टि नहीं मिलती । केवल संन्यास का वेश अंगीकार कर लेने भर से, जनेऊ धारण कर लेने भर से, मौलवी या पादरी का वेश धारण कर लेने भर से वह शांति, वह तृप्ति नहीं आ सकती। वे कहते रहते हैं कि 'दुनिया में कुछ भी नहीं है', फिर भी अपने लिए इंतजाम करते रहते हैं; अपने लिए मठ बनाते हैं, मंदिर बनाते हैं, धामों का निर्माण करते हैं । बनाने के फेर में स्वयं आदमी 'बनता' चला जाता है, वह स्वयं के साथ ही प्रवचना करता है, लेकिन स्मरण रहे, जो अपने मन का मालिक है, वह संन्यस्त है और जिसका मन मालिक हो चुका है, वह व्यक्ति गृहस्थ है; जिसका मन स्थिर है, वह संन्यस्त है और जो चंचल मन का है, वह गृहस्थ है। अष्टावक्र चाहते हैं कि व्यक्ति घर में रहे, साम्राज्य का संचालन करता रहे, मगर फिर भी वह प्रकृति से निर्लिप्त हो जाए; मन के होते हुए भी अमन की स्थिति में पहुंच जाए। इसीलिए वे कहते हैं कि मैं त्याग और ग्रहण - दोनों से ही 99 For Personal & Private Use Only Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपरत हो चुका हूं। त्याग तो आदमी तब करेगा, जब वह समझेगा कि संसार बुरा है और ग्रहण तब करेगा, जब उसे यह अहसास होगा कि संसार अच्छा है। अष्टावक्र के लिए तो अच्छे और बुरे का विकल्प ही चला गया, भाव ही चला गया। __ ये परम वीतरागता के सूत्र हैं, राग और वैराग्य के सूत्र नहीं । राग से भी ऊपर, वैराग्य से भी परे । ये सूत्र न केवल संसार से ऊपर उठने के सूत्र हैं, वरन् संन्यास से भी ऊपर उठ जाने के सूत्र हैं। अगला सूत्र है कुत्रापि खेदः कायस्य, जिह्वा कुत्रापि खिद्यते। मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा, पुरुषार्थे स्थितः सुखम् ॥ जनक कहते हैं कि कहीं तो शरीर का दुख है, कहीं जिहा दुखी है, कहीं मन दुखी होता है। मैं तो तीनों को त्यागकर पुरुषार्थ में, आत्मानंद में सुखपूर्वक स्थित ___ जनक ने कहा कि कहीं तो शरीर का दुख है, तो कहीं वाणी का दुख है और कहीं मन का दुख है। शरीर में दुख ही दुख हैं। ऐसा कोई क्षण नहीं आता, जब धरती पर रहने वाला जीवन अपने आपको दुख से मुक्त महसूस करता हो। दुख के रूप बदल जाते हैं-कभी वाणी का दुख मन का दुख बन जाता है; कभी मन का दुख शरीर का दुख बन जाता है, लेकिन दुख जारी है, प्राणि मात्र में दुख की धारा पल-प्रतिपल गतिशील है। तो क्या संसार में दुख-ही-दुख हैं। सुख का कोई आधार नहीं है? सुखी वह है, जो तटस्थ रहता है; आत्मस्थित रहता है; स्थितप्रज्ञ बना हुआ रहता है; अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों ही स्थितियों में जो सदा-सदा प्रसन्न और मस्त रहता है। ___ आत्मज्ञानी व्यक्ति हर कदम सोच-समझकर रखता है। वह हर क्षण इस बात का स्मरण रखता है कि दुनिया में सब कुछ क्षणभंगुर है। इसके बावजूद संभव है कि कभी-कोई संस्कार की तरंग उठे, कर्म की प्रवृत्ति, चित्त की वृत्ति ऐसी आ जाए जो व्यक्ति के जलते हुए दीये पर हवा का एक झोंका दे जाए। चूक इनसान से ही होती है। इनसान वही कहलाता है, जो दूसरे की भूल को अनदेखी कर दे, उसे क्षमा कर दे। ऐसा व्यक्ति सदा प्रसन्न रहता है, सदा-सदा मस्त रहता है। सुबह जब उठे, तो दस सैंकंड जी-भर कर मुस्कराएं, सारा दिन मुस्कराहट में बीतेगा। रात को सोने के पहले भी यही क्रम दोहराएं, रातें मीठी नींद से गुजरेंगी। भगवान करे आपका दिन भी मुस्कान से भरा हो और रातें भी मुस्कान से लबरेज। कितना सरल सूत्र है-मुस्कान ही मुक्ति है। आज के लिए अपनी ओर से इतना ही निवेदन है। नमस्कार ! 100 For Personal & Private Use Only Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समझ उन्नत दशा की शष्टावक्र-गीता के माध्यम से हम सभी अंतर्जगत की गहराई में उतरते जा जरहे हैं। इस संपूर्ण आत्म-संवाद की पृष्ठभूमि मात्र यही है कि मनुष्य के लोकचक्र में धर्मचक्र का प्रवर्तन हो। इसके लिए अष्टावक्र आत्मज्ञान को जीवन और अध्यात्म-दर्शन की धुरी बनाना चाहते हैं। मनुष्य के पास जो कुछ है, मनुष्य को उससे परिचित होना चाहिए। अच्छा है, तो अच्छे से और बुरा है, तो बुरे से। अच्छे को अच्छा जाने बगैर उसके प्रति बढ़ चलना आदमी की रूढ़ता है और बुरे को जाने बिना उससे परहेज रखने की सोचना आदमी के अंध-विश्वास को प्रोत्साहन है। __ मनुष्य को यह पूरा-पूरा अधिकार है कि वह अपनी हर अच्छी-बुरी संभावना से परिचित हो और दोनों को जान लेने के बाद जो श्रेयस्कर लगे, उसे जीवन में स्वीकार करे। किसी भी व्यक्ति, वस्तु या पहलू के हम जितने करीब जाएंगे, सत्य को उतनी ही बारीकी और नजदीकी से समझ पाएंगे। अगर रात के अंधेरे में रस्सी को सांप समझकर दौड़ते रहोगे, तो ऐसी भ्रांतियां होती रहेंगी कि व्यक्ति या तो संसार से भागना चाहेगा या संसार का दमन करना चाहेगा। जीवन के लोकचक्र में धर्मचक्र के प्रवर्तन का अर्थ यह होता है कि व्यक्ति न तो पलायन कर रहा है और न ही अपनी लोकभावना को दबाने की कोशिश में है। किसी भी पहलू को आदमी समझ ले, तो वह सत्य को पा लेता है, करीब से समझना ही सत्य को समझने का सूत्र है। महर्षि अष्टावक्र और राजर्षि जनक जीवन के एक-एक पहलू से अंतर-साधक को परिचित करवाना चाहते हैं और यह बताना चाहते हैं कि तुम्हारे जीवन में कुछ भी अनुचित है, तो तुम अनुचित को उसी रूप में जानो, भागो मत। न तुम भागो, न भोगो, केवल जागो। भाग जाना कायरता है और भोग लेना नासमझी है। तुम जागो, साक्षी बनो। अपनी आत्मबोधि के आधार पर जीवन के मार्गों को पार करो। मनुष्य के पास जितनी अच्छाइयां हैं, उतनी ही बुराइयां भी हैं। मनुष्य की जिस अंतस्-चेतना में प्रेम और शांति के सरोवर हैं; आनंद और मुस्कान के निर्झर हैं; क्षमा और करुणा का आकाश बरसता है, वहीं पर क्रोध और आक्रोश के कांटे 101 For Personal & Private Use Only Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी हैं; वैर और वैमनस्य की छिछलेदारियां भी हैं। एक ही व्यक्ति में प्रेम पलता है और उसी में आक्रोश छिपा रहता है। अच्छाई और बुराई, फूल और कांटे-दोनों की जड़ें आदमी के भीतर समाई हुई हैं, इसलिए फूलों से प्यार कर लेने भर से काम न चलेगा, तुम्हें कांटों से भी बचना होगा। हमारे भीतर रहने वाला क्रोध, आक्रोश, वैर-ये सभी हमारे अपने हैं। हर मनुष्य के भीतर कई दमन पलते हैं; कई उच्छृखलताएं पलती हैं; कई बीमारियां पलती हैं। मनुष्य बार-बार इन बीमारियों को सिंचित कर रहा है। किसी आदमी को जोरों से बुखार हो और वह ठंडा पेय पी ले, तो उसके बुखार में बढ़ोतरी ही होती है। ऐसे ही कोई क्रोधी आदमी अपने क्रोध को बार-बार दमन करके क्रोध को और पुष्ट और मजबूत करता है। मूर्छा में रहने वाला आदमी मूर्छित वातावरण में रहकर अपनी मूर्छा को और बढ़ाता है। ये बुराइयां तभी छूटेगी, जब आदमी अंतस्-चेतना की गहराई में उतरेगा; चेतन और अवचेतन मन की गर्त में छिपी धूल को हटा पाएगा। अगर आदमी आत्मबोधि के साथ, जागरूकता के साथ क्रोध करे, तो उस व्यक्ति के द्वारा क्रोध हो नहीं पाएगा। अज्ञान और बेहोशी में अगर क्रोध भी करोगे, तो बार-बार पुनरावृत्ति होती रहेगी। बेहोशी के साथ अगर भोग के द्वार पर पहुंचोगे, तो अगले दिन फिर भोग के मार्ग से गुजरने की तमन्ना जगेगी और जागरूकता के साथ अपनी आत्मा को अपने हाथ में रखकर भोग के द्वारों से गुजरोगे, तो भी तुम योग के मार्ग की ओर प्रवृत्त हो जाओगे। अभी-अभी जब मैं यहां पहुंचा, तो किसी आत्मीय व्यक्ति के घर जाना हुआ। उस व्यक्ति का मात्र डेढ़-दो वर्ष का बच्चा गर्म पानी से जल गया था। उसका अधिकांश शरीर जल चुका था, बावजूद इसके वह अपने बिस्तर पर आंखें खोलकर मौन पूर्वक लेटा था। जैसे ही मैं वहां पहुंचा, उसने अपना हाथ हिलाया। इतनी वेदना में भी उसने मेरी मुस्कान का जवाब दिया। वह इतनी पीड़ा में भी प्रसन्न है, क्योंकि उसका अपनी देह के प्रति मोह नहीं जगा, कोई मूर्छा न जगी, कोई तमस् न जगा। जिस व्यक्ति की अंतस्-चेतना में पूरी जानकारी के साथ देह के प्रति रहने वाली मूर्छा का तादात्म्य टूट जाता है, वह देह में रहता है, फिर भी उससे निर्लिप्त खड़ा रहता है। तभी तो जनक कहते हैं प्रकृत्या शून्यचित्तो यः प्रमोदाद् भावभावनः। निद्रितो बोधित इव, क्षीण संसरणो हि सः ॥ अर्थात जो स्वभाव से ही शून्य-चित्त है, पर प्रमोद से विषयों की भावना करता है और सोते हुए भी जागने के समान है, वह पुरुष संसार से मुक्त है। 102 For Personal & Private Use Only Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आत्मज्ञानी जनक के मुंह से उच्चारित हुआ यह सूत्र शायद भारतीय दर्शन में मिलने वाले समस्त आत्म-अनुभव मूलक सूत्रों और सिद्धांतों में अनूठा और निराला है। ‘वह व्यक्ति संसार से मुक्त है, जीवन-मुक्ति को जी रहा है, जिसका चित्त शून्य हो चुका है। जो व्यक्ति केवल प्रमोदवश ही विषयों की भावना रख लेता है, वह सोते हुए भी जागने के समान है।' वस्तुतः शून्य ही तो अध्यात्म की आत्मा है, प्राण है, कुंजी है, अध्यात्म की यात्रा की शुरुआत ही शून्य से होती है, उसका मध्यम पड़ाव भी शून्य है और उपसंहार भी शून्य पर ही होता है। शून्य यानी तुम्हारे भीतर रहने वाली अनंत ऊर्जा, अनंत आकाश, प्राण ऊर्जा, चैतन्य ऊर्जा। शून्य यानी बदली छंट गई, केवल आकाश रह गया; शून्य यानी वह सुवास, जिसका कोई आकार नहीं। जिन क्षणों में व्यक्ति अपने भीतर आकाश का अनुभव कर लेता है, निराकार का अनुभव कर लेता है, तभी आकार का तादात्म्य गिर जाता है और निराकार का आनंद नाच उठता है। साक्षित्व ही व्यक्ति को परम शून्य की ओर ले जाने का मार्ग है। साक्षित्व का सूरज उग आए, तो अपने भीतर स्वतः ही शून्य प्रकट हो जाता है। ये वेद, आगम, उपनिषद्-सभी परम शून्य पर ही तो टिके हैं; यह सकल ब्रह्मांड भी परम शून्य पर ही टिका है । तुम भी जिस पर अवलंबित हो, जिससे संचालित और सक्रिय होते हो, वह परम शून्य ही है। तुम्हारे भीतर से शुन्य निकल जाए, तो तुम भी 'शून्य' हो जाओगे, मृत हो जाओगे। जापान में ध्यान की एक मौलिक परंपरा हुई है, जो कि 'जेन' के नाम से मशहूर हुई। जेन का सारा शिक्षण और अध्यापन मात्र यही है कि व्यक्ति परम शून्य को उपलब्ध हो। एक ज़ेन संत हुए, जिनका नाम था-होताई। उनके बारे में कहा जाता था कि वे एक हंसते हुए बुद्ध थे। आत्मज्ञान, परम शून्य को उपलब्ध होताई जब फुरसत के क्षण होते, तो गलियों, वाजारों से गुजरते । छोटे-छोटे बच्चे मिल जाते, उनमें टॉफियां, बिस्कुट बांटते चलते। उनका झोला सदैव इन्हीं चीजों से भरा हुआ रहता। बच्चे उन्हें देखते, पीछे पड़ जाते। उन्होंने अपने जीवन में शायद ही कोई उपदेश दिया हो, कोई वक्तव्य दिया हो, संक्षिप्त प्रवचन भी दिया हो। केवल मौन रहते, मुस्करा भर देते, दो-चार शब्द कह लेते। एक बार संत होताई किसी रास्ते से गुजर रहे थे, तो पीछे से एक युवक ने होताई को आवाज लगाई। संत रुके। युवक ने कहा-संतप्रवर, मैं केवल इतना ही जानना चाहता हूं कि जिस पंथ के आप अनुयायी हैं, वह जेन आखिर है क्या ? संत ने आव देखा न ताव, अपने कंधे पर जो थैला लटक रहा था, उस थैले को कंधे से नीचे उतारा और उलटा लटका दिया। थैला पूरा खाली हो गया। युवक कुछ समझ न पाया। संत होताई बच्चों को टॉफियां बांटते-बांटते आगे बढ़ गए। 103 For Personal & Private Use Only Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या आप समझ पाए कि जेन क्या है? संत होताई ने जेन की यह समझ देनी चाही कि चित्त को शून्य कर देने का नाम ही जेन है; यही साधना है, यही ध्यान है। अपने को रिक्त कर लेने का, मौनपूर्वक साक्षित्व को उपलब्ध कर लेने का नाम ही ज़ेन है। वही ज़ेन हिंदुस्तान में पहले 'झाण' और तदनंतर धर्मग्रंथों में 'ध्यान' कहलाया। ज़ेन और झेन दोनों एक ही हैं। ___जो व्यक्ति स्वभाव से ही शून्य हो गया है, वह व्यक्ति केवल प्रमोदवश ही विषय की भावना रखता है। यह बड़ा कीमिया सूत्र है। शायद इतना चुनौतीपूर्ण सूत्र कोई न कह पाया होगा कि अगर विषयों की भावना भी रखता है, तो केवल प्रमोदवश, केवल खेल समझकर, रास-लीला जानकर । वह तो केवल एक 'स्वांतः सुखाय' की भावना रखता हुआ प्रतीत होता है। विषय कौन से? शब्द-विषय, रूप-विषय, रस-विषय, गंध-विषय और स्पर्श-विषय । अष्टावक्र तो कहते हैं कि विषय विष के समान हैं। कोई एक साधक विषयों की भावना कैसे रख लेगा? कहते हैं कि भगवान ने जब सृष्टि की रचना की, तो वे अकेले थे, तो क्या वे अकेलेपन से ऊब गए थे और उन्होंने संसार का निर्माण कर दिया? उन्होंने सृष्टि की रचना केवल प्रमोदवश की। श्रीकृष्ण भगवान कहलाए, मगर उसकी लीलाएं तो देखो। वे माखन-चोर बने, लोगों के घर चोरियां कीं, मटकियां फोड़ी, मगर यह सब किया महज प्रमोदवश। परमात्मा का अवतार भी कभी-कभी रास-लीलाएं रचता है । वे माखन नहीं चुराते, वे तो जन्म-जन्म से तुम्हारे द्वारा सिंचित पापों को चुरा ले जाते हैं। कभी-कभी लीला रचने के लिए मिट्टी उठा लेते हैं और खाने लगते हैं। जब यशोदा गाल पर चांटा मार ही देती है और कहती है-मूर्ख, तू यह क्या कर रहा है? वह मिट्टी निकालने के लिए कृष्ण का मुंह खुलवाती है। तभी चौंक पड़ती है कि मुंह में सारा ब्रह्मांड चक्कर लगा रहा है। वह समझ जाती है कि यह माटी खाना तो एक लीला भर है। आत्मज्ञानी व्यक्ति भोजन करता हुआ भी भोजन नहीं करता; चलता हुआ भी नहीं चलता; खाता हुआ भी नहीं खाता। अनासक्त का किसमें रस, अलिप्त आदमी की किसमें स्पृहा ! जो स्वयं आकाश हो गया, उसे न तो बदली से सरोकार है, न बिजली की चमक से। वह व्यक्ति जीवन-मुक्त है, जिसका स्वभाव से ही चित्त शून्य है। अगर वह व्यक्ति सोया हुआ दिखाई भी दे, तो वह सोया हुआ नहीं है, सोकर भी जागा हुआ है। गीता कहती है कि संयमी पुरुष सोया हुआ भी जाग्रत है और असंयमी पुरुष जागा हुआ भी सोए हुए के समान है। संयमी पुरुष लेटी हुई देह के भीतर भी नित्य-निरंतर साक्षी और जाग्रत है। पुरानी धार्मिक किताबों में भारंड पक्षी का उल्लेख है, जिसके दो मुंह होते हैं, लेकिन शरीर एक ही होता है। जब एक सिर नींद लेता है, तो दूसरा सिर पहरा देता है। इसी तरह वह व्यक्ति जाग्रत है, जो सोए हुए लोगों के बीच भी जाग्रत रहता है। 104 For Personal & Private Use Only Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन-मुक्ति के लिए पहला सूत्र ही चित्त की शून्यता है। जनक गुनगुनाते हुए निवेदन करते हैं क्व धनानि क्व मित्राणि, क्व में विषयदस्यवः । क्व शास्त्र क्व च विज्ञानं, यदा मे गलिता स्पृहा ॥ अर्थात जब मेरी स्पृहा नष्ट हो गई, तो कहां धन, कहां मित्र, कहां विषयरूपी चोर हैं! कहां शास्त्र और कहां ज्ञान है! __ जनक कहते हैं- जिसका चित्त शुन्य हो चुका है और जिसकी इच्छा नष्ट हो चुकी है, उसके लिए धन, मित्र और विषयों की क्या अहमियत; उसके लिए कोन-सा शास्त्र है, कौन-सा ज्ञान हैं। वह तो सदा-सदा अपने आप में तृप्त है। जिसकी इच्छा नष्ट हो चुकी है, वह जगत से स्वतः ही मुक्त हो जाता है। जब आदमी जगत में इच्छाओं से घिरता है, तो एक जुनून, एक पागलपन सवार होता है। स्पर्धा का, प्रतिस्पर्धा का। जहां पर इच्छा है, वहीं पर दौड़ है, वहीं पर गलाघोंट संघर्ष है, दूसरे को दबाने की प्रवृत्ति है। धन की दौड़ ही इच्छा से जुड़ी हुई है। तुम इसीलिए धन के पीछे दौड़ते हो कि तुम्हारे मन में धन की इच्छा है। जिसकी स्पृहा गिर गई, उसकी स्पर्धा गिर गई; वह व्यक्ति सदा-सदा तृप्त रहेगा। वह जान जाएगा कि धन कहीं बाहर नहीं, मेरे भीतर ही है, जिसे उपलब्ध किए बिना मैं सदा-सदा निर्धन ही रहूंगा। उस व्यक्ति का काई मित्र भी नहीं होता, जिसकी इच्छा नष्ट हो गई। व्यक्ति मित्र तभी बनाता है, जब वह औरों में सुख और आनंद तलाश करता है। जिसने अपना आनंद अपने में तलाशा है, वह किसी और को अपना मित्र नहीं बनाता, वह अपना मित्र स्वयं होता है। जिसकी इच्छा गिर गई, उसके लिए विषय रूपी चोर बचते ही कहां हैं! विषय जडे हए ही मनुष्य के मन की इच्छाओं से हैं। जिसका मन मिट चुका है, क्या उसकी विषयों के प्रति आसक्ति भला शेष रहती है ? विषयों के प्रति होने वाली आसक्ति ही व्यक्ति का संसार है और विषयों के प्रति होने वाली अनासक्ति ही व्यक्ति का निर्वाण है। विषयों के गिरने का अर्थ विषयों से भागना नहीं है। महावीर ने भी विवाह किया, उनके भी संतान हुई; बुद्ध ने भी विवाह किया, उनके भी संतान हुई; राम ने भी विवाह किया, उनके भी संतानें हुईं। न तो उनके लिए धन बाधक बना, न उनके लिए मित्र बाधक बने और न विषय ही बाधक बने। मनुष्य के लिए बाधा पैदा ही तब होती है, जब मन में आसक्ति और स्पृहा का जन्म होता है, वरना अलोभ से जिसने लोभ को जीत लिया है, वह व्यक्ति सब कुछ पाकर भी उनसे निस्पृह और निर्लिप्त बना रहता है। 105 For Personal & Private Use Only Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हैं- कपिल ब्राह्मण पत्नी की इच्छापूर्ति के लिए दो तोला सोना मांगने घर से निकला। देववशात सिपाहियों ने उसे पकड़ कर राजा के सामने पेश कर दिया। राजा ने ब्राह्मण की विवशता समझी और दया करके उसे इच्छानुसार सोना मांग लेने को कहा। कपिल की स्पृहा इतनी बढ़ी कि वह दो तोले से सौ तोले, फिर एक हजार तोले, फिर एक करोड़ तोले की इच्छा करता हुआ अंततः सारा साम्राज्य मांगने का विचार कर बैठा। राजा ने उसे विचार मग्न देख पुनः इच्छित वस्तु मांगने को कहा। मन के लोभ से कपिल को इतनी ग्लानि हुई कि उसने कुछ भी मांगने से मना कर दिया और राजसभा से यह सोचते हुए लौट आया कि जो मन करोड़ों तोले सोने से शांत नहीं हुआ, वह साम्राज्य पाकर क्या शांत हो जाएगा। कभी नहीं। इच्छाओं का कोई अंत ही नहीं है। संत वह है, जिसकी स्पृहा, इच्छा शांत है। इच्छा-मुक्त व्यक्ति स्वतः ही संसार से मुक्त हो जाता है। वह तो प्राप्ति में संतुष्ट रहता है। अप्राप्ति में वह बौखलाता नहीं। वह चिंतित नहीं होता। भोग-विलासिता में रस नहीं होता। इच्छा-मुक्त पुरुष इंद्रियों की आसक्ति से ऊंचा उठ जाता है। वह अंतर-मौन में जीता है। जो अंतर-लीन है, स्थितप्रज्ञ है, स्वाभाविक है कि वह इच्छा-मुक्त होता है। उसकी इच्छा और स्पृहा स्वतः गिर जाती है। जनक आगे कहते हैं अन्तर्विकल्प शून्यस्य, बहिः स्वच्छन्दचारिणः। भ्रान्तस्येव दशास्तास्ताः तादृशा एव जानते ॥ अर्थात जो भीतर विकल्प से शून्य है और बाहर से भ्रांत हुए पुरुष की भांति स्वछंदचारी है, ऐसे पुरुष की भिन्न-भिन्न दशाओं को वैसे ही दशा वाले पुरुष जानते हैं। जनक ने कहा कि आत्मज्ञानी आदमी के भीतर और बाहर के व्यवहार की बात तो हो गई, लेकिन आत्मज्ञानी व्यक्ति को जानेगा कौन कि यह आत्मज्ञानी है? उसके व्यवहार को समझेगा कौन कि उसका व्यवहार प्रमोदवश है? उन्नत दशा का व्यक्ति ही जान सकता है कि अमुक व्यक्ति की दशा उन्नत है। जो व्यक्ति केवल सांसारिक दृष्टिकोण से जानेगा, वह उसको केवल सांसारिक ही समझेगा। वह नहीं समझ पाएगा कि कृष्ण के द्वारा की गई रास-लीलाएं मात्र रास-लीलाएं थीं या कुछ और? आदमी तो कृष्ण में ही संदेह कर लेगा। वही व्यक्ति जान सकता है, जो उस स्थिति को उपलब्ध है। वही जानेगा कि इसके व्यवहार के भीतर रहने वाला परम सत्य क्या है। __ एक प्रेमी ही प्रेम का माधुर्य, प्रेम की मिठास को जान सकता है; भक्त ही भक्त को समझ सकेगा। राणा क्या समझेगा मीरा को! मीरा को समझने के लिए किसी कबीर को जन्म लेना होगा, गोरखनाथ बनना होगा। 106 For Personal & Private Use Only Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक संत हुए- भद्रमुनि । सहजानंदघन । बड़े पहुंचे हुए आत्मज्ञानी साधक थे । समाज ने उनकी कद्र न की । जिस परंपरा में वे प्रव्रजित हुए, उस परंपरा ने उन्हें निष्कासित भी कर दिया था, मगर इससे उस आत्मज्ञानी को क्या फर्क पड़ता ! पंडित कहां जान पाते हैं आत्मज्ञान की आत्मा को । बालासती रूपकंवर माताजी के भक्त बता रहे थे कि जब यह संत उनसे मिलने के लिए आया, तो झोंपड़ी में बैठी बालासती जी ने अपने सभी आश्रमवासियों को संकेत भिजवाया कि कुछ ही देर में यहां एक आत्मज्ञानी संत पहुंचने वाले हैं। उनकी पूरी वंदना - अगवानी की जाए। ज्ञानी ही ज्ञानी को जान सकता है। शेष तो वही व्यवहार करेंगे, जो अष्टावक्र के लिए जनक की सभा में हुआ था। जहां चमड़ी की पूजा होती है, दमड़ी की दुकानदारी चलती है, वहां आत्मज्ञानी को कौन जान पाएगा! काला चश्मा पहनकर सफेद दीवार को 'सफेद' कैसे देखा जा सकेगा ! उन्नत दशा को प्राप्त करके ही उन्नत दशा को समझा जा सकता है। बाहर के व्यवहार, बाहर की लीला तो लीला-भर है, लेकिन जिसका चित्त शून्य हो चुका है, जिसकी स्पृहा नष्ट हो गई है, जो संसार में रहते हुए भी इससे निर्लिप्त और अलिप्त जीता है, देह और मन से भिन्न होकर केवल स्वयं का साक्षी होकर जीता है, वह न भागता है और न भोगता है । वह केवल जागता है और जानता है, 'अष्टावक्र गीता' का महामंत्र है, सार-संदेश है । आज अपनी ओर से इतना ही निवेदन है । नमस्कार ! 107 For Personal & Private Use Only Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-विरसता ही मोक्ष झ की वेला में मैं अपने अंतर-मौन में आत्मलीन आसीन था। तभी । 'जगतनारायण' उपस्थित हुए और उन्होंने बांसुरी-वादन प्रारंभ किया। 'जगतनारायण' की अंगुलियां बांस पर बने छिद्रों पर नृत्य करने लगीं; कंठ से निःसृत होती प्राणवायू बांसुरी पर स्वर-लहरियां छेड़ने लगी। बड़ा अनूठा जादू है उस बांसुरी में। बांसुरी के सुर सुन रहा था, तो लगा कि ऐसा ही एक संगीत, एक ब्रह्मनाद भीतर उमड़ रहा है। बाहर और भीतर का संगीत एकरस, एकलय, एकतान हो गए। अंगुलियां सधनी चाहिए। बांस की पोंगरी संगीत का असीम सामर्थ्य अपने में समेटे है। जीवन भी एक बांसुरी है। जिस शख्स को अंगुलियां साधनी न आईं, उसके लिए बांसुरी की अधिक अर्थवत्ता नहीं है, लेकिन जिसे साधने की कला आ गई, उसके लिए बांस, बांस नहीं; जीवन, जीवन नहीं। उसके लिए जीवन भी बंशीवाले का वरदान है। जैसे बांसुरी के भीतर एक शून्य, एक रिक्तता समाई है, वैसी ही शून्यता हम सबके भीतर मौजूद है। जीवन अपने आप में संगीत से भरा हुआ है। यह तो मनुष्य ही है, जो बधिर बना हुआ है। मनुष्य को अपना जीवन-संगीत सुनाई नहीं देता। जीवन स्वयं अनुपम सौंदर्य से आच्छादित है, पर क्या करें, स्वयं आदमी में ही अंधापन है। जीवन परम आनंद और परम प्रसार से पूरित है, पर क्या करें, स्वयं आदमी ही संवेदनहीन बना हुआ है। जिसके पास संवेदना है, उसके लिए जीवन करुणा की प्याली है; उसके लिए जीवन आंगन में उतरा आकाश है। हम या तो जीवन का शोषण कर लेते हैं या फिर इसको इस तरह तपाने में लग जाते हैं, जैसे जमे हुए घी को पिघलाने के लिए तपाया जाता है। मगर ध्यान रहे तपाने का अर्थ शरीर को तपाना-सुखाना नहीं है, तपाने का अर्थ है मन को, चित्त को इस प्रकार तपाना कि वासनाओं का सारा जाल राख हो जाए। चित्त शांत, शून्य, रिक्त हो जाए। महर्षि अष्टावक्र तो उस व्यक्ति को आत्मज्ञान, तत्त्वबोध का अधिकारी समझते हैं, जिस व्यक्ति की इच्छाएं भीतर से गलित हो चुकी हैं; जिसका चित्त शून्य हो चुका है; जिसकी बुद्धि पवित्र और सौम्य हो चुकी है। 108 For Personal & Private Use Only Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अष्टावक्र कहते हैं यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्वबुद्धिमान् । आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति ॥ अर्थात सत्व-बुद्धि वाला पुरुष थोड़े से उपदेश से ही कृतार्थ हो जाता है; असत्-बुद्धि वाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके भी उसमें मोह को ही प्राप्त होता है। ___ अष्टावक्र जानते हैं कि जनक को आत्मज्ञान उपलब्ध हो गया है; उसका चित्त शांत हो गया है; उसकी इच्छा और स्पृहा समाप्त हो चुकी है। वे इसका कारण जान चुके हैं, इसीलिए कहा है कि बुद्धि संपन्न पुरुष थोड़े-से उपदेश से ही कृतार्थ हो जाता है। अगर तुम्हारी बुद्धि सत्व, सौम्य और पवित्र है, तो तुम्हारे लिए थोड़ा-सा उपदेश भी तुम्हें कृत-पुण्य कर जाएगा; थोड़ी-सी देशना भी तुम्हें धन्य-धन्य कर जाएगी। लंबे-चौड़े उपदेश तो उन्हें चाहिए, जो भीतर से मूर्छित हैं। जिनकी अंतर-आत्मा में अष्टावक्र के ये सूत्र, ये संवाद उतरने थे, पहले दिन ही उतर गए, अब तो केवल डूबना भर है। अमृत थोड़ा हो, तो भी पर्याप्त होता है। ज्योति कम हो, तो भी बहुत होती है। कहते हैं कि एक बार कबीर और फरीद आपस में मिले। भेंट से पहले कबीर अपने शिष्यों के आगे फरीद की बहुत तारीफ किया करते। हर प्रसंग में वे फरीद का जिक्र करते। फरीद भी जब कभी अपने शिष्यों और भक्तजनों के बीच होते, तो कबीर की यशोगाथा गा लिया करते। अपने मिलने के दिन वे शाम तक एक-दूसरे के पास बैठे रहे। दोनों जब-तब आपस में झांक लिया करते। शिष्य तो बैठे-बैठे उकता गए, क्योंकि दोनों आपस में कोई बातचीत ही नहीं कर रहे थे। वे तो बस क्षण-भर के लिए एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा भर देते। सांझ हो आई। फरीद ने झुककर अभिवादन किया और कहा-कबीर साहब, यहां आकर मैं कृतार्थ हुआ। इतना कहकर फरीद चले गए। कबीर मुस्कराए। कहा, साधुवाद ! साधुवाद !! फरीद के जाने के बाद शिष्यों ने अचंभे से कबीर से पूछा, आप दोनों दिन भर कुछ न बोले, फिर भी एक ने कृतार्थता प्रकट की और एक ने साधुवाद । हम यह पहेली बूझ न पाए, यह मिलन और मौन समझ न पाए। कबीर ने कहा-इतनी तो बात की थी हमने। तुम कहते हो कि हम मूक बैठे रहे। जिन्हें संवाद करना है, वे तो मौन भी संवाद कर लेते हैं, जिनके लिए उपदेश काम करना होता है, उनके लिए थोड़ा-सा उपदेश भी काम कर जाता है। 109 For Personal & Private Use Only Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्ति की बुद्धि दो तरह की होती है - ऋजु जड़ और वक्र जड़ । ऋजु जड़ बुद्धि वह कहलाती है, जिसमें सरलता तो है, मगर जड़ता भी है। वक्र जड़ बुद्धि वह है, जिसमें न केवल जड़ता ही है, बल्कि वक्रता भी है, तार्किकता भी है, टेढ़ा-मेढ़ापन भी है। आदमी न तो ऋजु जड़ बने और न वक्र जड़। ऋजु प्राज्ञ बने । यही मेरी संदेशों का सार भी है। ऋजु यानी हृदय की सरलता और प्राज्ञ यानी मस्तिष्क से बुद्धि और ज्ञान- संपन्न । केवल ज्ञान - संपन्न होना व्यक्ति के अहंकार को बढ़ावा देगा और केवल ऋजुता भी आदमी को अंधविश्वासों की ओर अग्रसर कर सकती है, इसीलिए मैंने कहा कि हर व्यक्ति ऋजुप्राज्ञ बने, एक ऐसा समन्वय, एक ऐसा संगम हो कि मस्तिष्क दोनों के बीच का सेतु बन जाए, ऋजुता और प्रज्ञा का । व्यक्ति की बुद्धि सदैव सात्विक रहनी चाहिए । असात्विक और वक्र जड़ व्यक्ति सदा ही तर्क और वितर्क में ही उलझा रहता है । जिस गुरु से युधिष्ठिर ने शिक्षा पाई, उसी से दुर्योधन ने भी ज्ञानार्जन किया, लेकिन दोनों में रात और दिन का फर्क था। ग्राह्यता की वजह से एक युधिष्ठिर बन गया और दूसरा दुर्योधन । विकृत मस्तिष्क से स्वीकार किया गया ज्ञान व्यक्ति की मोह - मूढ़ता को बढ़ाता है और सद्बुद्धि से ग्रहण किया ज्ञान अंतःकरण के बंद दरवाजों को खोल देता है; उसे अंतर्दृष्टि का स्वामी बना देता है । बुद्धि की सात्विकता अपरिहार्य है । हृदय की सरलता की वेदी पर ही बुद्धि की सात्विकता संभावित है । हम सरल हृदय के स्वामी बनें, सात्विक बुद्धि के स्वामी स्वतः हो जाएंगे । अष्टावक्र का तत्त्वोपदेश फिर स्वतः आत्मसात होगा । आप बुद्धि की सात्विकता को प्राप्त हों । इसी आकांक्षा के साथ नमस्कार । 110 For Personal & Private Use Only Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सत्य स्वयं में समाहित आज के सूत्र बड़े अनूठे और क्रांतिकारी हैं। ये सूत्र ऐसे हैं कि जैसे कोई बड़ी आत्मीयता से ठेठ भीतर की गहराइयों को छू लेना चाहता है । आज के ये सूत्र, सूत्र कम हैं, हिदायतें ज्यादा हैं। जैसे कोई आदमी सागर के किनारे खड़ा हो और लंगर खोलकर नौका पर सवार होने वाला हो कि तभी कोई वृद्ध अनुभवी मांझ आ जाए और सागर में बरती जाने वाली सावधानियों से सावधान कर दे; जैसे कोई आदमी किसी हाथी पर सवार होने वाला हो और अनुभवी महावत आ जाए और हाथी पर सवार होने वाले को सचेत कर दे । ऐसी ही कुछ सावधानियों को बड़ी सावधानी से सुनना होगा, क्योंकि ये सावधानियां, ये हिदायतें भावी जीवन की, साधनात्मक जीवन की खतरों की सांकेतिक घंटियां हैं। सूत्र है आचक्ष्व श्रृणु वा तात, नानाशास्त्राण्यनेकशः । तथापि न तव स्वास्थ्यं, सर्व विस्मरणादृते ॥ अष्टावक्र कहते हैं- अनेक शास्त्रों को अनके प्रकार से तू कह या सुन, लेकिन सबके विस्मरण के बिना तुझे स्वास्थ्य और शांति नहीं मिलेगी। चाहे अनेक प्रकार के शास्त्रों को सुना जाए या पढ़ा जाए, लेकिन साधक की आत्मा को तब तक स्वास्थ्य और शांति नहीं मिल सकती, जब तक कि वह सबको विस्मरित नहीं कर देता। ज्ञान का विस्मरण ही साधक की मुक्ति है और ज्ञान का संग्रह ही साधक के मन में चलने वाली ऊहापोह और उठापटक है । शास्त्र और किताबें तो सत्य के लिए केवल मार्गदर्शक बनते हैं । अष्टावक्र गीता का महत्त्व एक नक्शे जितना ही है। नक्शे का कार्य अमुक सीमा - रेखा और मार्ग का ज्ञान कराना है, मार्गों को जानना एक और बात है और उन पर चलना जुदा पहलू है । यह मनुष्य की बहुत बड़ी विडंबना है कि वह शास्त्रों को सुनता है, उनकी पूजा करता है, उनको अपने शीश पर रखता है, लेकिन उनके मर्म से अछूता रहता है । शास्त्रों के शब्द तभी सार्थक हो पाते हैं, जब उनका अर्थ हमारे जीवन से परिभाषित 111 For Personal & Private Use Only Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होने लगता है। शास्त्र से तर्क और वितर्क का विकास होता है; भ्रम और संशय की शुरुआत होती है; पांडित्य का प्रादुर्भाव होता है, जो आदमी के अहंकार में इजाफा करता है। निर्विचार की स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति के लिए विचार का कोई अर्थ नहीं है। इस स्थिति में प्रवेश पाने के लिए आदमी को विचारों से, पांडित्य से और हर तरह की दलीलों से अलग हो जाना पड़ता है, क्योंकि ज्ञान के विस्मरण में ही मुक्ति की संभावना छिपी हुई है। आदमी चाहे विचारों का संग्रह करे, चाहे धन का संग्रह करे या ज्ञान का संग्रह करे, संग्रह तो आखिर संग्रह ही कहलाएगा। जब धन का संग्रह त्याज्य है, मानसम्मान और यश का संग्रह त्याज्य है, तो फिर विचारों का, ज्ञान का संग्रह ग्राह्य कैसे हो सकता है? एक साधक के लिए जरूरी है कि वह ज्ञान से भी मुक्त हो जाए; जिस पुस्तक, मत, सिद्धांत अथवा पक्ष का आग्रह है, उन सबसे अपने आपको अलग कर ले। मैं जब संन्यस्त जीवन में आया, तो मैंने चाहा कि मैं दुनिया भर के शास्त्रों का अध्ययन करूं। मैंने आठ-नौ वर्ष सुबह चार बजे से रात्रि ग्यारह बजे तक केवल शास्त्रों के पठन, मनन और स्वाध्याय में लगाए। जब नौ वर्ष बीत गए, तो दुनिया की बहुतेरी किताबें मैं पढ़ चुका था। इतनी-इतनी किताबों को पढ़ने के बावजूद मेरी अंतरात्मा ने मुझे झकझोरा कि यह ज्ञान तो उधार का ज्ञान है, किताबी ज्ञान है। तुम्हारा अपना ज्ञान कौन-सा है? जितना तुमने पढ़ा है, क्या उसका अंश-दो अंश भी तुम्हारा अपना अनुभव बना है? तुम दुनिया को कहते फिरते हो कि आत्मा का कल्याण करो, पर क्या तुमने अपने आप से आत्मा को जाना है? अगर तुम स्वयं ही उस आत्मा का अनुभव नहीं कर पाए हो, तो तुम्हें किसी को भी यह कहने का अधिकार नहीं है कि तुम एक आत्मवान हो, अपनी आत्मा का कल्याण करो। तब अंतर्धारा मुड़ी, चेतना की दिशा एवं दशा बदली और पहला काम यह किया कि दिमाग के कचरे को साफ किया। निश्चित तौर पर शास्त्र उपयोगी हैं, हर शास्त्र लक्ष्यपरक है। शास्त्र मार्ग दिखाते हैं। तुम मार्ग को जान लो और उसके बाद उसे ऐसे ही किनारे रख दो, तब अपने दिमाग को शून्य, नितांत रिक्त करने का प्रयास प्रारंभ किया जाए। केवल एक ही प्रयास कि जो-जो भीतर भरा है, उसे किनारे किया जाए; व्यामोह-आसक्ति से अपने आपको अलग किया जाए। जैसे-जैसे अपने आपको बाह्य अनुभवों से खाली किया, शास्त्रों और किताबों से अर्जित ज्ञान से रिक्त किया कि आश्चर्य घटित हुआ। जैसे बादलों के छंटते ही सूरज प्रकट हो जाता है, वैसे ही व्यक्ति का अपना ज्ञान व्यक्ति के भीतर मुखर हो जाता है। 112 For Personal & Private Use Only Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उधार का ज्ञान काम नहीं आता, मौलिक ज्ञान चाहिए । बाह्य प्राप्त ज्ञान, विचार, तर्क-वितर्क, भ्रम-संदेह की चट्टानें जब किनारे फेंक दी जाएं, तो आत्मज्ञान का सोता, स्वयं का निर्झर स्वतः फूट पड़ता है । किताबी ज्ञान गोद लिया बच्चा है और आत्मज्ञान हमारी अपनी प्रसूति है । ज्ञान मनुष्य के मस्तिष्क को भरने के लिए नहीं होता, वरन् जन्म-जन्म से जिस अज्ञान को हम सिंचित करते आ रहे हैं, उस अज्ञान की पहचान के लिए, उस अज्ञान के ज्ञान के लिए ही व्यक्ति ज्ञान - मार्ग की ओर बढ़ता है । वह व्यक्ति ज्ञानी नहीं है, जिसने सौ-सौ शास्त्र पढ़े हैं। ज्ञानी तो वह व्यक्ति है, जिसने अपने भीतर छिपे अज्ञान को पहचाना है । कहते हैं-यूनान की एक देवी डेल्फिन की आराधना के लिए पूरा यूनान उमड़ा करता था । सालाना मेला लगता, जिसमें देवी डेल्फिन प्रक्ट होतीं और कुछ चमत्कारिक भविष्यवाणियां किया करतीं। एक बार जब देवी प्रकट हुईं, तो लोग एकत्र हुए और उन्होंने पूछा-इस युग में सबसे बड़ा ज्ञानी व्यक्ति कौन है ? देवी ने कहा- जिस नगर में तुम इस मेले का आयोजन करते हो, उसके बाहर एक ज्ञानी पुरुष रहता है, जिसका नाम सुकरात है । इस वक्त वह सर्वोपरि ज्ञानी व्यक्ति है । सारी भीड़ सुकरात के पास पहुंची। सुकरात अपनी मस्ती में बैठा हुआ था । सबने देवी डेल्फिन की बात की जानकारी दी । सुकरात ने कहा- लगता है देवी के कहने में या तुम्हारे सुनने में कुछ चूक हुई है। हां, एक वक्त था, जब तुम चाहते तो मैं अपने को ज्ञानियों का सिरमौर साबित कर देता, पर अब मेरे पास ज्ञान नहीं है। सच तो यह है कि मुझ-सा अज्ञानी और कोई न होगा। लोग फिर देवी डेल्फिन के पास पहुंचे और सुकरात की कही हुई बात सामने रखी। देवी ने कहा- वही व्यक्ति तो असली ज्ञानी है, जिसने अपने अज्ञान को पहचान लिया है। जैसे ही व्यक्ति अपने अज्ञान को पहचान लेता है, तत्क्षण उसके जीवन में ज्ञान की किरण फूट पड़ती है। जब तक अपने अज्ञान का बोध नहीं होगा, अपने चित्त पर जमे हुए अज्ञान को तुम नहीं पहचान पाते, तुम्हारे जीवन में ज्ञान के नाम पर अज्ञान का अंधकार ही होगा, जिसे तुम ज्ञान की ज्योति कहते हो, वह तो ज्ञान के नाम पर पलने वाला छलावा है, प्रवंचना है । साधना के पथर पर फिर से कदम बढ़ाइए । अपने को पहले बिल्कुल खाली बनाइए । कूप ऊपर का पानी, लेना न चाहता । अंदर के झरनों से वह खुद भर जाता । व्यर्थ के विकल्पों में गोते न खाइए। 113 For Personal & Private Use Only Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कितने भरे हैं अंदर, कुछ न समाता । अद्भुत कुछ घटने वाला, घटने न पाता । शून्य करने का कुछ-कुछ श्रम तो उठाइए । शक्कर भरी हो चाहे, धूल भरी हो । सोने की सांकल हो या लोहा जड़ी हो । शुभाशुभ दोनों त्यागो, शुद्ध बन जाइए । साधना-पथ पर एक बार फिर से कदम बढ़ाए जाएं, एक बार पुनः अभिनिष्क्रमण हो । स्वयं को, चित्त को रिक्त करें । भीतर का पात्र रीता होने दें, बांस के भीतर का शून्य साकार होने दें, ताकि स्वर लहरियां ईजाद हो सकें । कुआं बाहर के पानी को स्वीकार नहीं करता । कुआं तो स्वयं जल स्रोतों से भरा हुआ है । जो बाहर का पानी स्वीकारे, वह कुआं नहीं, हौज होता है । हौज को बार-बार भरना पड़ता है। कुआं खुद लेता है, खुद उलीचता है, वह तो सदा लबालब रहता है। हम हौज को किनारे करें और कुएं के लिए प्रयत्न करें। ठीक है, जब तक कुआं न मिले, तब तक हौज हितकारी है, पर कुआं बने बगैर विस्तार नहीं, तृप्ति नहीं, आपूर्ति नहीं । शास्त्र पढ़ें, मनन करें और शास्त्र से मुक्त हो जाएं। उनके प्रति मोहित और आसक्त न हों । भीतर उतरें और भीतर का ज्ञान उजागर हो जाने दें । भीतर की ज्योति को मुखरित हो लेने दें। अगला सूत्र है आयासात् सकलो दुःखी, नैनं जानाति कश्चन । अनेनैवोपदेशेन, धन्यः प्राप्नोति निर्वृत्तिम ॥ अष्टावक्र कहते हैं- प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इस तथ्य को कोई नहीं जानता इसी उपदेश को जानकर भाग्यवान लोग निर्वाण को प्राप्त होते हैं। 'प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इसे कोई नहीं जानता ।' देखो, तुम कितने दुखी हो । ज्यों-ज्यों प्रयास करते हो, त्यों-त्यों आखिर दुखी ही होते हो । प्रयास करते हो स्वर्ग का, मगर हाथ लगता है नरक । चाहते तो हो फूल, मगर हाथ बंध जात है कांटों से। प्रयास आखिर दुख में परिणित हो जाते हैं । प्रयास आखिर कब तक करते रहोगे ! सुबह से शाम तक, रात तक एक ह उधेड़-बुन जारी है । गरीब भी और अमीर भी, दोनों ही दौड़ रहे हैं। दोनों ही भागम-भाग में लगे हैं। दोनों एक ही प्रयास में हैं कि और पाऊं, कुछ और पालूं, कुछ और हो जाऊं, कहीं और हो जाऊं। हर कोई तृष्णा के पीछे बहा चला जा रहा है । क्यं किया जा रहा है, किसलिए किया जा रहा है, यह सोचने की फुरसत नहीं। सुबह 114 For Personal & Private Use Only Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठे, नहाए-धोए और चल पड़े धंधा करने, रात को 11 बजे आए, खाए-पीए सो गए। न दिन के खाने-पीने का पता, न घर वालों की खोज-खबर का ठिकाना, अब भला यह भी कोई जिंदगी है ? केवल पैसा-धंधा, यही हमारा लक्ष्य और पुरुषार्थ हो गया। नतीजा! नतीजा यह निकला कि अष्टावक्र को कहना पड़ा कि यह कोई नहीं जानता कि प्रयास स्वयं दुख का आधार है। अष्टावक्र ने दुख का एक कारण यह ढूंढ़ा है कि आदमी निरंतर प्रयास में जुटा हुआ है। आदमी ने परमात्मा तक को बाहर पाने का प्रयास शुरू कर दिया है। प्रयासों से न तो आत्मा मिलती है और न ही परमात्मा मिलता है। परमात्मा को जहां पाना चाहिए, वहां नहीं खोजा। जब भी खोजा, बाहर खोजा, कहीं और खोजा। यानी हमारा पहला कदम ही गलत पड़ गया। परमात्मा को पाने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। परमात्मा को पाने के लिए तो वे आंखें चाहिए, जिनसे हम परमात्मा को पहचान सकें। परमात्मा कोई खोया थोड़े ही है। वह तो हमारी चेतना की परम शुद्ध, परम चैतन्य, परम साक्षी, सजग दशा का नाम है। हमारे अपने भीतर हमारा परमात्मा वास करता है। सूरज की एक किरण दुनिया भर में घूम-घूमकर सूरज को खोजने का प्रयास करती है। वह सूरज का पता लगाना चाहती है। वह हर किरण से पूछती है कि तुमने सूरज को कहीं देखा है? किरण का पहला कदम ही गलत उठ गया। अपने भीतर की आंख खोल लेती, तो वह जान लेती कि सूरज कहीं और नहीं, वरन् जहां से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है, वही तुम्हारा सूरज है, वही मूल उत्स है। बगैर सूरज के तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं है। ‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में'। सूफी संत-परंपरा में एक प्रसिद्ध महिला हुई है राबिया। एक बार राबिया अपनी झोंपड़ी के बाहर कुछ खोजने लगी। वह काफी देर ढूंढती रही, मगर अभीष्ट खोई वस्तु नहीं मिली। यह देखकर उसके साथी संतों ने मदद करनी चाही। उन्होंने राबिया से पूछा कि क्या खो गया है, जो इतनी देर से खोज रही है। राबिया ने कहा-मैं एक सुई ढूंढ़ रही हूं। साथी संतों ने भी ढूंढा, मगर सुई न मिली। उन्होंने पूछा-राबिया, सुई किस स्थान पर खोई थी? राबिया ने कहा-सुई तो झोपडी में खोई थी। यह सुनकर वे अपनी हंसी रोक न पाए। उन्होंने कहा-राबिया, तुम भी कितनी मूर्ख हो! जो वस्तु भीतर है, उसे तुम बाहर ढूंढ रही हो। राबिया ने कहा-तुम इतना कुछ जानते हो कि जो भीतर है, उसे बाहर खोजना व्यर्थ है, तो तुम उस सत्य को खोजने, बाहर क्यों भटक रहे हो? सत्य कहीं बाहर नहीं, वह तो भीतर के मंदिर में ही विराजमान है। प्रयास नहीं, पहचान चाहिए। आत्मदृष्टि चाहिए, वह आंख जो पहचान सके स्वयं को, स्वयं के सत्य को, शेप सव शांत हो जाए। आत्मलीनता और आत्मस्थिति 115 For Personal & Private Use Only Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही मुक्ति का प्रथम और अंतिम द्वार है। अष्टावक्र पुनः सचेत करते हैं हरो यद्यपदेष्टा ते, हरिः कमलजोऽपि वा। तथापि न तव स्वास्थ्यं, सर्व विस्मरणादृते ॥ अष्टावक्र कहते हैं-यदि तेरा उपदेशक शिव, विष्णु अथवा ब्रह्मा भी है, तो भी सबके विस्मरण के बिना तुझे स्वास्थ्य, शांति और मुक्ति नहीं मिलेगी। अत्यंत गहन-गंभीर सूत्र है यह। पहले सूत्र का ही अगला चरण समझें इसे। बड़ा साहसी सूत्र है। जितना साहसी है, उतना ही यथार्थपरक। अष्टावक्र कहते हैं कि यदि तेरा इष्ट ब्रह्मा, विष्णु या महेश भी हो, तो भी उनको भुलाए बगैर तेरी मुक्ति संभव नहीं है। जब आपके कदम आत्मज्ञान की ओर उठ रहे हों, बोधि-संबोधि की ओर बढ़ रहे हों, स्वयं के प्रकाश से पूरित हो रहे हों, उस दौरान दुनिया का कोई देव भी आ जाए, तब भी उसे इनकार कर देना। जब तुम से मुलाकात हो तुम्हारी, तो तुम्हीं बचो तुम्हारे पास, शेष सब दरकिनार हो जाएं। पर आखिर 'पर' है, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो। पर की आसक्ति भी आखिर आसक्ति ही है। आसक्ति तो आसक्ति है, मूर्छा तो मूर्छा है। चाहे वह आसक्ति पत्नी की हो, पति या परमात्मा की हो। एक राग संसार का राग होगा और दूसरा राग मुक्ति का राग होगा। जिससे तुमने आत्मज्ञान पा लिया, अपने सारे मार्ग प्रशस्त कर लिए, आखिरी पलों में तो उनको भी किनारे रख देना; उनको प्रणाम करना और आगे बढ़ जाना। अष्टावक्र ने पहले कहा था-अपने आपको देह से भिन्न समझ, देह का विस्मरण कर; फिर अपने मन का विस्मरण कर, फिर अपने अहंकार का विस्मरण कर; फिर तू अपने ज्ञान का विस्मरण कर और अंतिम चरण में तू अपने गुरु का भी विस्मरण कर। हिंदू धर्म में जब कोई व्यक्ति संन्यास लेता है, तो कहते हैं कि तू बोल कि तू अपने परिवार को, संसार को गंगा में विसर्जित करता है। जब तक व्यक्ति अपने संसार को गंगा में विसर्जित न कर पाए, तो उसका संन्यास घटित ही नहीं हुआ। अष्टावक्र उससे भी दो कदम आगे बढ़कर गुरु तक के त्याग और विस्मरण की बात कहते हैं। ___ कहते हैं-महावीर के पास एक परम विद्वान पहुंचा था, जिसका नाम था-इंद्रभूमि गौतम । महावीर से एक-दो संवाद होने पर ही उसे आत्मज्ञान घटित हो गया। उसने अपने गुरु को नहीं छोड़ा, यह मेरा गुरु, जिसने मुझे आत्मज्ञान का बोध कराया, इससे मैं कैसे विरक्त हो जाऊं? वह गौतम तीस वर्षों तक महावीर के साथ रहा, रागासक्त रहा। दुनिया भर के राग छोड़ आया, तो क्या हुआ, परमात्मा के, तीर्थंकर के राग में उलझ गया। 116 For Personal & Private Use Only Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर के निर्वाण की वेला आई । महावीर ने गौतम को अपने पास बुलाया और कहा-यहां से सोलह मील दूर एक ब्राह्मण रहता है । तू उसे ज्ञान का उपदेश आ । भगवान की आज्ञा थी, सो चला गया । वह लौट रहा था, तो बीच रास्ते सुना कि भगवान का तो निर्वाण हो गया, भगवान ने देह का विसर्जन कर दिया । गौतम ने यह सोचा भी नहीं था कि भगवान मृत्यु के क्षणों में मुझको अलग करेंगे। दुनिया का प्रकांड पंडित आदमी, मीमांसा दर्शन का मूर्धन्य विद्वान रोने लगा । उसने लोगों से पूछा कि क्या भगवान ने जाने से पहले मुझे याद किया था? लोगों ने जवाब दिया-वे तुम्हें कैसे भूल सकते थे । उन्होंने जाने से पहले दो पंक्तियों का एक संदेश लिख छोड़ा है तिणो हु सि अण्णवं महं किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ । अभितर पारं गमित्तए, समयं गोयम मा पमाय ॥ महावीर ने गौतम से कहा- प्यारे गौतम, तू संपूर्ण महासागर को तो लांघ गया, अब किनारे आकर क्यों बैठा है? जल्दी कर और पार लग, एक क्षण का भी इसमें प्रमाद मत कर । तब एक वीतराग चेतना जाग पड़ी । अष्टावक्र ने सोचा, यह जनक भी ऐसा ही मोह कर सकता है, इसलिए ये वचन कहे। जब तक न मिले, तब तक गुरु का अर्थ, शास्त्र का अर्थ, लेकिन जब जान लिया मार्ग को तो तुम अपने दीपक खुद हो जाना। किसी और से पराश्रित होकर अपनी ज्योति को उसके अधीन म करना। ज्योति तुम्हारा स्वभाव है, तुम स्वयं ज्योतिर्मय बनो । औरों की कृपा-दृष्टि से, औरों की ज्योति के दान से कब तक अपने जीवन को चलाते रहोगे? आगे बढ़ें, पार लगें । सागर को लांघ गए हैं, तो अब किनारे से भी पार लग जाएं। केवल नदिया से ही नहीं, किनारों से भी पार लग जाएं। जन्म से भी, जीवन से भी, मृत्यु से भी, सबसे पार । बस, हों केवल साक्षी चैतन्य स्वरूप, ॐ अर्हम्-स्वरूप । नमस्कार । 117 For Personal & Private Use Only Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुक्त चेतस की अहोदशा ज्ञा ही वह धुरी है, जिस पर अष्टावक्र गीता का सारा विस्तार टिका हुआ है ! जीवन में ज्ञान का उदय, बोध का उदय अंतरमन के तमस में प्रकाश की क्रांति है, कैवल्य का सूत्रपात है, मोक्ष की मुमुक्षा का जागरण हैं । अष्टावक्र एक ओर ज्ञान के उदय को जीवन का अमृत वरदान मानते हैं, वहीं दूसरी ओर ज्ञान के विस्मरण को मुक्ति का राजद्वार । ज्ञान के विस्मरण से ही आत्मज्ञान का उदय होता है । किताबी ज्ञान का विस्मरण हो, मत-मतान्तरों का विस्मरण हो, भ्रम-संशयों का विस्मरण हो, नय और आग्रहों का विस्मरण हो । बाहर के ज्ञान से हमारी चेतना दबी जा रही है। किताबों को पढ़ पढ़ कर हमने अपने आपको भुला दिया है। ज्ञान वही है, जो हमें अपनी पहचान करवाए। जिससे हम अपने आपको जान सकें, वह ज्ञान है। जिसके कारण हम अपने आपको भूल बैठे हैं, उसे तुम ज्ञान की संज्ञा कैसे दे सकते हो ! वह तो एक प्रकार से अज्ञान ही है । स्वयं के स्वभाव-मूलक ज्ञान को जो ढांक दे, अंततः वह भार ही है । जो पत्थर निर्झर को फूटने से रोक दे, जो माटी कुएं को प्रकट होने से रोके रखे, वह पत्थर, वह माटी अंततः हमें हटानी होगी, उससे मुक्त होना होगा । व्यक्ति ने जाना है, पहचाना है, किताबों को, सिद्धांतों को, किंतु उससे तो हम अपरिचित ही रहे, जो हमारा अपना सत्व है, अस्तित्व है । किताबी ज्ञान, शास्त्रीय ज्ञान हमारे लिए मार्गदर्शक अवश्य है, मगर हम मार्ग पर चलने की बजाय मार्ग के केवल नक्शों को ही बटोर कर रख बैठे, केवल मील के पत्थरों को ही गिन बैठे, तो इससे मंजिल प्राप्त नहीं हो सकती। कहीं ऐसा न हो कि जीवन की सांध्य - वेला में जब मौत हमारी डगर पर आए, तो हम प्रायश्चित से भरे हों कि मैं मूढ़, जो अनजाना रहा अपने आप से । आइंस्टीन जब मरणासन्न था, तो उसके हितैषियों ने उससे पूछा-मृत्यु के समय तुम्हारे मन में क्या हो रहा है? आइंस्टीन ने कहा, प्रायश्चित और अवसाद | मित्रों ने पूछा- क्यों? आइंस्टीन ने कहा- प्रकाश-वर्ष की खोज कर ली, तो क्या हुआ, स्वयं 118 For Personal & Private Use Only Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रकाश तो अनचीन्हा ही रह गया । सब जाना, पर वह अनजाना रह गया, , जिसके अलग हो जाने पर, जिसके बिछुड़ जाने पर आइंस्टीन कब्र का राहगीर हो जाएगा, कब्रिस्तान में दफना दिया जाएगा। उसी आविष्कार और सत्य-बोध को तुम अपना कहो, जो आत्म-निःसृत हुआ है; जो झरना तुम से ही फूटा है I व्यक्ति का ज्ञान, आत्मज्ञान में तब मददगार हो जाता है, जब वह ध्यान की दिशा पकड़ ले। तुम अपने ज्ञान को ध्यान के द्वार से गुजरने दो। अपने ज्ञान को ध्यान की अंगीठी में पकने और निखरने दो। तुम्हारा ज्ञान ध्यान से गुजर कर अमृत हो सकता है। तुम्हारे लिए जीवन का वरदान साबित हो सकता है। वरना ज्ञान तुम्हें केवल तर्क-वितर्क की ऊहापोह से भरेगा, भ्रम - विभ्रम से तुम्हें घेरेगा, पांडित्य के अहंकार से तुम्हारी अंतरात्मा के कद को छोटा करेगा 1 तर्क-कुतर्क, भ्रम - विभ्रम और पांडित्य का अभिमान - ये सब मन की बीमारियां हैं, व्याधियां हैं । व्याधि का अर्थ ही बीमारी है । अष्टावक्र हर व्यक्ति को व्याधि मुक्त और स्वस्थ देखना चाहते हैं । मन की व्याधि से ऊपर उठाकर जीवन की समाधि का सुख और ऐश्वर्य देना चाहते हैं । आप भली-भांति समझ चुके होंगे कि जीवन की व्याधियां क्या हैं । व्याधियों का राग मत अलापो । व्याधियों का आग्रह मत पालो । समाधि की ओर अपनी चेतना को बढ़ने दो । ज्ञान और योग का फल उसी को उपलब्ध होता है, जो तर्क-कुतर्क से मुक्त हो चुका है, आग्रह - दुराग्रह से छूट चुका है । भ्रांतियों और संदेहों को मानसिक अस्थिरता समझ कर उनको दर- किनार कर चुका है। ज्ञान और योग का फल उसे मिलता है - जो सदा शांत है, संतुष्ट है, आनंदित और आत्मलीन है। तेन ज्ञान फलं प्राप्तं, योगाभ्यासफलं तथा । तृप्तः स्वेच्छेन्द्रियो नित्यमेकत्वे रमते तु यः ॥ अर्थात जो पुरुष तृप्त है, स्वच्छ और शुद्ध इंद्रिय वाला है, और सदा एकत्व में रमण करता है, उसी को ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त होता है। अष्टावक्र कहते हैं कि 'ज्ञान और योगाभ्यास का फल उसे प्राप्त होता है जो... ।' ज्ञान का फल क्या ? योगाभ्यास का फल क्या ? ज्ञान का फल मोक्ष है । योग का फल भगवत्ता की प्राप्ति है । वही ज्ञान तो ज्ञान है, जो हमें मुक्त कर दे, हमें अपने बंधनों की पहचान करवा दे। 'सा विद्या या विमुक्तयं' । वही विद्या, विद्या है, जो मुक्त कर दे । प्रश्न है, मुक्त कौन होगा, ज्ञान और योग का फल किसे मिलेगा ? अष्टावक्र इसके लिए तीन अनिवार्यताएं बता रहे हैं। तीन शर्तों को पूरा करने की बात कहते हैं । 119 For Personal & Private Use Only Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला चरण है-जो तृप्त है। दुनिया में तृप्ति दिखाई ही कहां देती है। यहां केवल भिखारी ही अतृप्त नहीं है, जो झोली लेकर मांगने को निकल पड़ता है, वरन् सिकंदर भी अतृप्त है। जो एक देश को जीतने के बाद, एक देश को लूटने के बाद किसी दूसरे देश की ओर चल पड़ता है। जिसके पास जितना है, वह उतना ही अतृप्त है। जिसके पास जितना कम है, उसकी अतृप्ति उतनी ही सीमित है। पाने से तो अतृप्ति के दायरे और बढ़ जाते हैं। मैं पूलूंगा, आखिर तुम कितना पाओगे! कितना धन बटोरोगे! कितना यश अर्जित करोगे! कितने पदों पर अपनी टांग रखना चाहोगे! यह सब मन की नासमझी है। क्या तुमने अपने मन की नासमझी को समझने की कभी कोशिश की है? जो है, वह तुम्हारे जीवन की व्यवस्था के लिए पर्याप्त है, उसी में तृप्त रहो न। कहते हैं कि सिकंदर का किसी संत से आमना-सामना हुआ। सिकंदर ठहरा विश्व-विजेता, आक्रामक तेवर का आदमी। सिकंदर ने संत से कहा कि क्या तुम जानते हो कि मैं कौन हूं? विश्व-विजेता महान् सिकंदर, सारे संसार का साम्राज्य मेरे अधीन। संत मुस्कराया। उसने कहा-जैसे आज तू छाती ठोक कर बोल रहा है सिकंदर! मैं भी ऐसा ही गुमान किया करता था। मैं भी तुम्हारे जैसा ही कभी सम्राट रहा था। किसी पर आक्रमण करने जा रहा था, लेकिन रास्ते में सेना पीछे छूट गई और मैं अकेला ही बहुत आगे बढ़ चला। मैं रेगिस्तान में भटक गया! गरमी की धूप में प्यास के मारे तड़प रहा था। मेरे प्राण सूखे चले जा रहे थे। प्यास के मारे अपने घोड़े को अपने ही सामने मैंने मरते हुए देखा। मेरा हृदय रो पड़ा कि इतने बड़े साम्राज्य का अधिपति दो बूंट पानी के लिए यों लालायित! ____ मैंने खुदा से मिन्नत की, भगवान से दुआ मांगी और अपने लिए एक लोटा जल चाहा। तभी न जाने कहां से एक सज्जन पहुंचा और उसने मेरी ओर एक लोटा पानी बढ़ाया। मैं अपना हाथ आगे बढ़ाऊं कि तभी उस सज्जन ने मुझसे पूछा-इस पानी की कीमत क्या दोगे? मैंने गर्व से कहा-मेरे शरीर के भार जितना सोना। उसने कहा-यह तो बहुत कम है। मैं चौंका। एक लोटे पानी के बदले इतना सोना, फिर भी वह कहने लगा कम है! मैंने कहा-आधा साम्राज्य, मगर उसने कहा-इतने में भी मैं तुम्हें यह पानी देने को तैयार नहीं हूं, इस पानी के आगे आधा साम्राज्य भी आधी कीमत ही है। मरता क्या न करता! मैं बगैर पानी के तिल-तिल जल रहा था। मैंने कहा-पूरा साम्राज्य और उसने मुझे लोटा थमा दिया। मेरे प्राण बच गए, मगर मेरी चेतना की दिशा बदल गई। सिकंदर, उन तड़पते क्षणों में मैंने जाना कि ओह! साम्राज्य की कीमत केवल एक लोटा पानी! और तब मेरे जीवन में संन्यास का सूरज उगा, तृप्ति की बयार बही, अतृप्ति और प्राप्ति के जंजाल से मुक्त हुआ। 120 For Personal & Private Use Only Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन की मदिरा को पीमदमस्त हुआ यह तन-मन मेरा, हुआ सवेरा। सांसों की सरगम बज करके प्राणों का निवृत्त हुआ अंधेरा। नहीं चिंता भूत-भविष्यत् की वर्तमान में डाला डेरा। जीवन की मदिरा को पी मदमस्त हुआ यह तन-मन मेरा, हुआ सवेरा। आत्मशोध की ज्वाला ने गहराई से मुझको घेरा। आत्म-समर्पण घटित हुआ नष्ट हो गया तेरा-मेरा। जीवन की मदिरा को पी मदमस्त हुआ तन-मन मेरा, हुआ सवेरा। नहीं-नहीं, इच्छा कुछ भी दूर हुआ अज्ञान घनेरा। प्रतिपल जीवन जीता जाऊं यह जग है बस रैन-बसेरा। जीवन की मदिरा को पी मदमस्त हुआ यह तन-मन मेरा; हुआ सवेरा। तन-मन-जीवन तृप्त हो उठा है। जिसे भूत-भविष्य की कोई चिंता नहीं, जिसके मन में कोई इच्छा नहीं, स्वाभाविक है कि वह तृप्त होगा, आह्लादित होगा, मदमस्त होगा। इच्छा और चिंता के दलदल से जो मुक्त है, वही मुक्त है। वही तृप्त है। ऐसा नहीं कि ज्ञान और योग का फल उसे प्राप्त होगा, वरन् प्राप्त ही है। जो सदा तृप्त है, वह सदा मुक्त है। ज्ञान और योगाभ्यास का फल प्राप्त करने के लिए अष्टावक्र दूसरी जो अनिवार्यता बताते हैं, वह है स्वच्छ और शुद्ध इंद्रिय। स्वेच्छेद्रिय! यह सहज अनिवार्य है कि व्यक्ति अपनी इंद्रियों से, अपने मन से सौम्य हो, स्वच्छ हो, निर्मल हो। देखना 121 For Personal & Private Use Only Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आंखों का धर्म है, किंतु क्या देखे और किसे देखने से बचें, इस पर भी तो ध्यान दो। सुनना कान का धर्म है, किंतु क्या सुने और किन बातों को सुनने से परहेज रखें, इस पर अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करो । बोलना वाणी का कर्म है, किंतु मन में आया सो बोल दिया, मन में आया सो खा लिया। तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा अपनी जबान पर कोई लगाम नहीं है। इंद्रियों का स्वस्थ होना आवश्यक है। जब इंद्रियों की स्वच्छता की बात कर रहे हैं, तो मन की स्वच्छता की बात अपने आप आ गई। इंद्रियां तो वैसा ही देखती-बोलती-सुनती-सूंघती हैं, जैसा मन चाहता है। मन ही सब पापों का बाप है। मन ही मनुष्य का मदिरालय है, और मन ही मनुष्य का मंदिर। तुम्हारा मन मंदिर है, तो तुम्हारी इंद्रियां उस मंदिर की घंटियां और आरतियां हैं । तुम्हारा मन अगर मदिरालय है, तो तुम्हारी इंद्रियां विकृत, उत्तेजित और पियक्कड़ हैं। मन में वासना का वास है। आदमी बूढ़ा हो जाता है, मन या मन की वासनाएं थोड़े ही बूढ़ी होती हैं। बुढ़ापे में तो वे और जवान हो जाती हैं। जब तुम जवान थे, तो वासना इतनी जवान न थी। जब तुम बूढ़े हुए, तो वासना की अंगीठी और सुलग उठी। जवान थे, तो मन की पूरी भी कर लेते। बूढ़े हो गए, तो हाथ-पैर जवाब दे बैठे, इंद्रियां लाचार हो गईं, मन अकेला ही मातोड़े सांड की तरह इधरउधर सींग मारता है और तुम असहाय पड़े रहते हो। जो मन के पार लग गया, उसका बुढ़ापा सुंदरतर हो गया। मन तो उसके पास भी है, किंतु निर्वाण की आभा उसमें फूट पड़ी है। ओ रे मन! तू पावन हो, सौम्य बन। कब तक दलदल का कीड़ा बना रहेगा? इंद्रियों की स्वच्छता के लिए चार सूत्र देना चाहता हूं। तीन सूत्र महात्मा गांधी से लेता हूं और चौथा अपनी ओर से देता हूं। आपने गांधी के तीन बंदरों का प्रतीक समझा है-बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो। देखो, मगर बुरा मत देखो; सुनो, मगर बुरा मत सुनो; बोलो, मगर बुरा मत बोलो।, देखो, मगर दर्शनीय को देखो; सुनो, मगर ग्राह्य को सुनो, बोलो, मगर मधुर और संतुलित बोलो। तीन बंदरों से जुड़ा हुआ एक और चौथा बंदर इन तीनों पर बैठाना चाहूंगा, जिसका हाथ अपने मस्तक की ओर है, जो इस बात का प्रतीक है कि बुरा मत सोचो। यह चौथा, किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण प्रेरणा है। तुम अगर बुरा नहीं सोचते हो, तो निश्चित मान कर चलो, तुम न बुरा देखोगे, न बोलागे, न सुनोगे, इंद्रियां मन की अभिव्यक्ति हैं। मन से बुराई निकल गई, तो इंद्रियां स्वतः असत् मार्ग की ओर जाने से बच गईं। महावीर ने कहा एगप्पा अजिए सत्तु कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहा नायं, विहरामि अहं मुणी ॥ 122 For Personal & Private Use Only Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात मैं अपनी एक अविजित आत्मा को, अविजित मन को, अविजित कषाय और इंद्रियों को जीत कर यथा न्यायपूर्वक विचरण करता हूं, जीता हूं। आत्मज्ञान और योग का फल उसे मिलता है, जो यह तीसरी अनिवार्यता और पूरी करता है कि सदा एकत्व में रमण करता है। मुक्ति को वही व्यक्ति जी पाता है, जिसे अपने एकत्व का बोध है । एकत्व-बोध का अर्थ है कि या तो सारा संसार मेरा है अथवा कहीं कुछ नहीं, कोई मेरा नहीं; मैं केवल विश्व का साक्षी भर हूं। एकत्व-बोध का अर्थ गुफाओं में अकेले चले जाना नहीं है। अष्टावक्र गुफावास के प्रेरक नहीं हैं। वे हमें ऐसा संन्यासी बनाना चाहते हैं, जो साम्राज्य का संचालन भी करे। वे तुम्हें ऐसा गृहस्थ बनाना चाहते हैं, जिसके कदम वीतरागता की ओर हों, अनासक्ति की ओर हों। केवल अकेले हो जाने से एकत्व बोध नहीं सधता। गुफा में चले जाने से एकाकीपन आत्मसात नहीं होगा। तुम गुफा में भी चले गए, तो मन में तुम्हारे भीड़ बसी है। कोई पत्नी और बच्चों को छोड़ देने भर से एकाकीपन थोड़े ही सधता है। बाहर-बाहर सब छूट जाता है, लेकिन भीतर-भीतर सबका राग पलता रहता है। अष्टावक्र तुम्हें वह एकत्व-बोध देना चाहते हैं, जो भीड़ में भी गुफा का रूप साकार कर दे, सबके बीच, मगर स्वयं के एकत्व का सतत बोध ! ज्ञान और योग का फल वह व्यक्ति अपने जीवन में हर-हमेश जीता है, जो सदा तृप्त है, स्वच्छ-इंद्रिय है और एकत्व-बोध के आनंद से आह्लादित है। जिन्हें मुक्ति की कामना है, वे अष्टावक्र के इन तीन सूत्रों का खूब मनन करें, अपने ध्यान में लें, इन्हें जिएं और मस्त रहें। अगला सूत्र न जातु विषयः कोऽपि, स्वारामं हर्षयन्त्यमी। सल्लकी पल्लव प्रीतमिवेभनिम्ब पल्लवाः ॥ अर्थात जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते हर्षित नहीं करते हैं, वैसे ही ये विषय आत्मा में रमण करने वाले को कभी हर्षित नहीं करते। जिसने चखे हैं सल्लकी के पत्ते, वह नीम के पत्तों में कैसे हर्षित होगा! जिसने पीया है माधुर्य, वह आक और धतूरे के रस के प्रति क्यों लालायित होगा। जब तक हाथी को न मिले खाने को सल्लकी के मीठे पत्ते, तो नीम के कड़वे पत्तों में ही रस लेना पड़ता है। जब तक आत्म-रमण न हुआ, आत्म-बोध न हुआ, आदमी स्वाभाविक है कि विषयों में ही रस लेगा। किसी आत्मज्ञानी से पूछो विषयों के बारे में, वह उसके प्रति उपेक्षा दर्शाएगा। किसी मनचले युवक से पूछो, तो वह कहेगा सच में बड़ा मजा आता है। संसार में जिसे रस है, उसे विषयों में रस है। लोगों से पूछो, तो हर कोई साफ-साफ कहेगा कि विषयों में बड़ा रस है। भौंरा 123 For Personal & Private Use Only Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूलों पर मंडरा रहा है। हिरण संगीत पर मोहित हो रहा है। पतंगा दीये पर मरा जा रहा है। हाथी हथिनी के पीछे पागल हुआ जा रहा है। विषयों में बड़ा रस है। इसलिए रस है, क्योंकि हर विषय मनुष्य को मूर्छा की ओर ले जाता है। मूर्च्छित व्यक्ति को वही चीज अच्छी लगती है, जो उसे और मूर्छा में ले जाए। जैसे उल्लू को अंधेरा रास आता है, ऐसे ही मूर्च्छित व्यक्ति को विषय रास आते हैं। विषय विष है। विषैले जानवर उसी चीज को पाकर खुशहाल हैं, जिसमें उनके विष की बढ़ोतरी होती हो। शराब, सैक्स और संगीत-तीनों ही आदमी को मूर्छा की ओर ले जाते हैं। जिसकी मूर्छा टूट गई, उसे विषयों की खुमारी लुभा नहीं सकती। आत्म-रमण में रमने वाले भर्तृहरि जब तक विषयों में थे, तब-तक आकंठ डूबे हुए थे, और जब मूर्छा टूटी, विरक्ति जगी, तो फिर विषय उन्हें वैसे ही प्रभावित न कर पाए, जैसे आम के मीठे फलों को खाने के बाद कोई निम्बोली खाना पसंद न करे। आत्मज्ञानी निर्विषय रहता है। हां, अगर आत्मज्ञान होने के बावजूद अगर नसीब में ही लिखा है नीम के पत्तों को खाने का, तो बात अलग है। पुरुषार्थशील मनुष्य को भी कभी-कभी अपनी, कर्मधारा के अधीन हो जाना पड़ता है। हर्मन हेस ने उपन्यास लिखा-सिद्धार्थ । इस उपन्यास का नायक कितने उतार-चढ़ाव देखता है! मुक्ति की गहरी मुमुक्षा होने के बावजूद वह अपने मन की स्थिति और मनोविज्ञान में ही उलझ जाता है। सिद्धार्थ ब्राह्मण-पुत्र रहा, संत था, संसार में लौट आया, संतान हुई, नदिया के किनारे बैठे रात-दिन लहरों को निहारता, अपनी और संसार की विचित्रता के बारे में देखता। ओह! मनुष्य का मन कितना अनोखा है। आखिर वह द्वंद्व के पार लगता है। सही अर्थों में सिद्धार्थ के भाव का उसके जीवन में सूर्योदय होता है। कल्पना करो उस आर्द्र कुमार की, जिसने अपना पूर्व जन्म जाना, जाति स्मरण ज्ञान हुआ, बड़े वैराग्य के साथ संन्यास अंगीकार किया, लेकिन कर्म की रेख पर मेख नहीं मारी जा सकती। गृहस्थ में लौट आया। पुनः संन्यास के लिए कृत संकल्प हुआ, तो उसके अपने ही बेटे ने उसके पांव को रेशम के धागे से बांध दिया। और जब आगे जा कर परमज्ञान के निर्झर से आह्लादित हुआ, तो उसने कहा कि हाथी द्वारा लोहे की जंजीरों को तोड़ना आसान है, किंतु विषय और मोह-मूर्छा के रेशम के धागों को तोड़ना दुष्कर है। विषयों के दलदल का स्वाद ही ऐसा है। न जागर्ति न निद्राति, नोन्मीलति न मीलति। अहो परंदशा क्वापि, वर्तते मुक्त-चेतसः ॥ 124 For Personal & Private Use Only Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थात वह न जागता है, न सोता है। न पलक खोलता है, न बंद करता है। ओह! मुक्त चेतस् की कैसी परम उत्कृष्ट दशा होती है. 1 जो विरक्त है, विषयों से उन्मुक्त होकर विहार करता है, निजता में जो सदा आनंदित और तृप्त है, उस मुक्त चेतस् की दशा कैसी उत्कृष्ट है! जिसने जान ही लिया है- 'अहो चिन्मात्रं !' अहो, मैं केवल चैतन्य हूं, उसकी उत्कृष्ट दशा की तुलना किससे की जाए ! वह आत्मस्थित है, फिर भी झरने की तरह निनादित है । वह आकाश की तरह शून्य और निस्पृह है, फिर भी उसके केंद्र से मेघ - पुष्पों की रिमझिम-रिमझिम बारिश हो रही है । वह जन्म-मरण के बीच से मुक्त हो चुका है, फिर भी किसी गुलाब के फूल की तरह प्रफुल्लित और आनंदमग्न है । मुक्त चेतस् व्यक्ति की दशा ही कुछ ऐसी होती है। मुक्त चेतस् पुरुष न जागता है, न सोता है, न पलक खोलता है, न बंद करता है। वह नैसर्गिक दशा को उपलब्ध हो चुका है। अपनी सहज, सौम्य दशा को उपलब्ध हो चुका है। प्रकृति जिस रूप में पेश होना चाहे, होए। उसके जीवन में जब जो होना है, होए। उसके लंगर तो खुल चुके हैं। अब तो हवाएं जिस ओर ले जाना चाहें, ले जाएं। वह तो दुनियादारी की हर उठा-पटक से ऊपर हो चुका है। उसका अहंकार और कर्ताभाव मिट चुका है। स्वप्न-दशा भी क्षीण हो चुकी है, सुषुप्ति का भी अभाव हो चुका है, उसकी अवस्था तो तुरीय की अवस्था है । तुरीय में व्यक्ति मिट जाता है, व्यक्तिगत चेतना में परमात्म चेतना उजागर हो जाती है । वह मुक्त हो चुका होता है, अतिमुक्त हो चुका होता है। अष्टावक्र और जनक इस दशा के भुक्तभोगी हैं। उनकी दशा को तो वही जान सकता है, जो स्वयं उनकी दशा को उपलब्ध है । अष्टावक्र ने जनक को संन्यासी बनाया है, सम्राट को संन्यासी ! एक ऐसा संन्यासी, जो राजमहलों में रहे, राज्य का संचालन करे। आखिर ऐसे किसी व्यक्ति से ही राज्य के कल्याण की, उसके श्रेयस् की, न्याय और नैतिकता की उम्मीद की जा सकती है। तुम संन्यासी होने की जल्दी मत करो। वेश-बाना बदलने की जल्दी मत करो । आओ हम ऐसे संन्यासी बनें, जो सबके बीच रहते हुए सबसे निर्लिप्त और निस्पृह रहे । जो राजमहलों में रहकर गुफावासी का लुत्फ उठाए। अपनी ओर से इतना ही निवेदन है । नमस्कार । 125 For Personal & Private Use Only Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लक्ष्य बनाएं, पुरुषार्थ जगाएं - श्री चन्द्रप्रभ श्री लक्ष्य पूरा करने के लिए अपनी समस्त शक्तियों द्वारा परिश्रम करना ही पुरुषार्थ है। पतंजलि महावीर और बुद्ध, राम और रहीम, मीरा और मंसूर जैसे अवतार पुरुषों का भी एक लक्ष्य था, उसी तरह आइंस्टीन और एडीसन, शेक्सपीयर और मैक्समूलर, नोबल और नेलसन ने भी अपने जीवन में महान लक्ष्य बनाए और संपूर्ण पुरुषार्थ के साथ उसे प्राप्त करने में जुट गए। उन्होंने हर हाल में सफलता प्राप्त की और वे शिखर पुरुष बन गए । लक्ष्य बनाए. पुरुषार्थ जगाएं वास्तव में यह पुस्तक लक्ष्य यानी मंज़िल के निकट से निकटतर तक ले जानने के तमाम रास्ते बताती है और रास्तों में आने वाली सभी कठिनाइयों को दूर करने के तरीके भी बताती है । यह एक ऐसी मार्गदर्शिका, ऐसी सहयात्री है, जो आपकी उंगली पकड़ कर सफलता की ओर ले जाती है I हो पुस्तक में लक्ष्य प्राप्ति के 6 चरण बताए गए हैं। पहले चरण में मन के बोझ को उतार फेंकने की सलाह दी गई है, यानी हर तरह के दबाव और तनाव से मुक्त हो जाएं। दूसरे चरण में दूसरों के दिलों पर राज करने और तीसरे चरण में प्रतिक्रियाओं से परहेज़ करने का मशवरा दिया गया है, जिससे आप में शांति, उत्साह और आनंद बरकरार रह सके । चौथे चरण में कहा गया है कि भय का भूत शरीर और मन को खा जाता है और निष्क्रिय बना देता है, अतः इससे पीछा छुड़ाना अनिवार्य है। अगले पांचवें और छठे चरण में स्वस्थ सोच को अपनाने और जीवन-दृष्टि को सकारात्मक बनाने का परामर्श है । लेखक का कहना है कि जो इन चरणों से गुजर गया, मानो वह अपना लक्ष्य पा गया । डिमाई आकार • पृष्ठ : 96 मूल्य : 48/- • डाकखर्च : 15/ ० For Personal & Private Use Only Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिएंतो ऐसे जिाए जिएं तो ऐसे जिएं - श्री चन्द्रप्रभ toneRNESNA 253460 "स्वस्थ और मधर जीवन जीने का पहला और आखिरी मंत्र है : सकारात्मक सोच। यह एक अकेला ऐसा मंत्र है, जिससे न केवल व्यक्तिगत और समाज की, वरन् समग्र विश्व की समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। यह सर्वकल्याणकारी महामंत्र है। कोई अगर पूछे कि मानसिक शांति और तनाव-मुक्ति की कीमिया दवा क्या है, तो सीधा-सा जवाब होगा - सकारात्मक सोच। मैंने अनगिनत लोगों पर इस मंत्र का उपयोग किया है और आज तक यह मंत्र कभी निष्फल नहीं हुआ। सकारात्मक सोच का अभाव ही मनुष्य की निष्फलता का मूल कारण है। मेरी शांति, संतुष्टि, तृप्ति और प्रगति का अगर कोई प्रथम पहलू है, तो वह सकारात्मक सोच ही है। सकारात्मक सोच ही मनुष्य का पहला धर्म हो और यही उसकी आराधना का बीज-मंत्र। सकारात्मक सोच का स्वामी सदा धार्मिक ही होता है। सकारात्मकता से बढ़कर कोई पुण्य नहीं और नकारात्मकता से बढ़कर कोई पाप नहीं; सकारात्मकता से बढ़कर कोई धर्म नहीं और नकारात्मकता से बढ़कर कोई विधर्म नहीं।" 3 डिमाई आकार - पृष्ठ : 136 | मूल्य : 48/-: डाकखर्च : 10/ For Personal & Private Use Only Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मनिष्ठ लोगों के लिए श्रद्धापूर्ण उपहार वेदों में क्या है ? उपनिषदों में क्या है? 601 डिमाई आकार • पृष्ठ: 176 पुराणों में क्या है ? फुल हसत और आधा और मैं घुमा कर पर 2 Metal pa काय काय कुणा पैला मिल में पर प्रकार पहन कर आ स एक्का 601 डिमाई आकार • पृष्ठ: 216 परवर्क 601 डिमाई आकार • पृष्ठ: 218 wind भारतीय दर्शनों में क्या है ? जैन एवं HİPER-WAY, MUNI MESIN EDS-STENĪRI विदेशों से होते ह डाकखर्च: 15/- से 20/-रु. प्रति पुस्तक और 601डिमाई आकार • पृष्ठ: 200 For Personal & Private Use Only Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न जन्म, न मृत्यु 'अष्टावक्र-गीता' पर अमृत प्रवचन अष्टावक्र महर्षि हुए और जनक राजर्षि / दोनों के बीच संवाद का प्रतिफलन ही 'अष्टावक्र-गीता' है। आत्मा से आत्मा के बीच सार्थक वार्ता का उपक्रम इस महान धर्मशास्त्र के द्वारा स्थापित हुआ है। 'अष्टावक्र-गीता' में अनेक छोटे-छोटे सूत्र और संदेश हैं 1. जैसे तुम कौन हो? * तुम्हारे जीवन का मूल स्रोत क्या है? तुम्हारा वर्तमान क्या है ? * तुम्हारा अतीत कैसा रहा ? * क्या तुम अपने भविष्य में अतीत को दोहराना चाहते हो या प्रकाश से भर जाना चाहते हो? * तुम शिशु रूप से पहले क्या थे? * क्या मृत्यु ही जीवन का समापन है ? ये सभी जीवन के संवाद हैं, जो अंतःकरण को ज्ञान से भर देते हैं। जो लोग देह-भाव से मुक्त होकर आत्म-ज्ञान से भरपूर जीवन जीना चाहते हैं, उनके लिए वरदान हैं ये संवाद। 'अष्टावक्र-गीता' सत्य का अद्भुत शास्त्र है, जिसमें अध्यात्म का पुट समाविष्ट है। यह एकदम व्यावहारिक है और सत्य की गहराई तक ले जाता है। इसके सभी सूत्र मनुष्य के जीवन में प्रकाश भरते हैं। यह मनुष्य की उस अन्तर्दृष्टि को खोलना चाहती है, जहां जाकर आदमी अपने वास्तविक सुख, स्वास्थ्य, आनंद और प्रकाश का स्वामी बनता है। अष्टावक्र का कहना है कि गृहस्थ में रहते हुए भी संन्यस्त जीवन जिओ। संसार और परिवार में रहते हुए आत्मनिष्ठ होकर जीना ही वास्तविक जीवन है। 'अष्टावक्र-गीता' का यही आधारभूत दर्शन है। जीवन दर्शन के गहन चिंतक एवं तत्व-द्रष्टा श्री चन्द्रप्रभ का जन्म सन् 1962 में 10 मई को हुआ तथा सन् 1980 में 27 जनवरी को प्रवज्या प्राप्त की। वाराणसी में विविध धर्मों का अध्ययन किया। सदविचार तथा सदाचार के प्रसार के लिए संपूर्ण भारत की पैदल यात्रा की। हम्पी की गुफाओं में साधना की। हिमालय की यात्रा तथा ऋषि-महर्षियों से संसर्ग किया। आत्म-प्रकाश प्राप्ति के बाद समस्त पदों व उपाधियों का विसर्जन कर दिया तथा मानवता के आध्यत्मिक उत्थान के लिए 'संबोधि साधना' का प्रवर्तन किया। सर्वकल्याण के लिए प्रचुर मात्रा में पुस्तक लेखन एवं हज़ारों कैसेट्स में प्रवचनों का अनूठा संकलन। ध्यान-योग-साधना के लिए जोधपुर में 'संबोधि धाम' की स्थापना। मूल्य: 48/ 9060E ISBN 81-223-0.842-2 TAMIL पुस्तक महल पुस्तकमहल Fax: 011-23280567,011-23260518 E-mail: info@pustakmahal.com दिल्ली मुंबई बंगलोर पटना हैदराबाद 91798 12 21308425 // Visit our online bookstore: www.pustakmahal.com For Personal & Private Use Only