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________________ अगर त्याग ही करना है, तो देहाभिमान का त्याग करो। छिट-पुट त्यागों से क्या होगा! केवल मन को तसल्ली भर मिलेगी कि हां, मैंने त्याग के नाम पर कुछ त्याग किया। तुम त्याग का आश्वासन भर ही पा सकोगे। चेतना में त्याग का सौंदर्य प्रकट न हो पाएगा। देहाभिमान के त्याग में सारे त्याग समा जाते हैं, जैसे सागर में सारी नदियां समा जाती हैं, ऐसे ही देह-भाव के त्याग में सारे त्याग निमज्जित हो जाते हैं। त्याग हो ऐसा, जो हमें देहातीत कर दे, विदेह मुक्ति प्रदान कर दे। आदमी मच्छित है, दखी और पीड़ित है, क्यों? क्योंकि आदमी मानता है, यह मेरा शरीर, यह मेरा परिवार। इस ममत्व के आरोपण के कारण ही आदमी दुखी है। आदमी का अपनी देह के प्रति असीम अनुराग है, तभी तो वह एक छोटा-सा कांटा चुभने से ही बेचैन हो उठता है। ____ एक छोटे से कांटे की व्याधि भी वह बरदाश्त नहीं कर पाता। देह का एक छोटा-सा संवेग भी उसे बहा ले जाता है। देह की कामुकता उसे कामुक बना डालती है। देह की भूख उसे शैतान बना देती है। हम केवल देही हो गए हैं। देह में कोई देवता रहता है, उस ओर हमारा ध्यान ही नहीं है। हम दीये की माटी की सजावट और उसके सौंदर्य पर ही, उसके सुख पर ही अटक गए। हमारा यह अटकाव ही चेतना के भटकाव का कारण बन गया है। आसक्ति का लंगर बन गया है। कहते हैं-राजकुमार मेघ ने संन्यास लिया। राजकुमार जैसे सैकड़ों शिष्य और थे। स्वाभाविक है कि जो नया होगा, उसका स्थान दरवाजे तक पहुंचेगा ही, सो संत मेघ को भी रात को सोने के लिए वहीं जगह मिली। पेशाब की निवृत्ति के लिए बड़े-बूढ़े संत बार-बार आ-जा रहे थे। उनके पैरों की आहट और ठोकर जब-तब संत मेघ को जगा जाती। मेघ तिलमिला उठा। वह सोचने लगा कि मुझे अगर यह पता होता कि संन्यास में इतनी तकलीफें हैं, तो मैं कदापि संन्यास नहीं लेता। अब भी क्या बीता है। मैं तो राजकुमार रहा ही हूं। कल वापस राजमहलों में चला जाऊंगा और पिताजी से कह दूंगा कि मुझे ऐसा संन्यास नहीं जीना। संत मेघ के मन में रात भर उधेड़-बुन चलती रही, ऊहापोह मची रही। अगले दिन जैसे ही उसने आश्रम को छोड़कर राजमहल के लिए कदम बढ़ाए कि भीतर से सद्गुरु ने पुकारा-मेघ, इतनी जल्दी ही मार्ग से विचलित हो गए। वह चौंका, सोचने लगा-सद्गुरु ने मुझे कैसे पहचाना? सद्गुरु ने कहा-मेघ, मैंने तुम्हारे मन की तरंगों को पढ़ लिया है। आज तुम दो-चार वृद्ध संतों के पांवों की ठोकर से इतने विचलित हो गए। तुम्हारा अपनी देह से इतना राग! जरा स्मरण कर कि आज से पहले तू कौन था, कहां से आया, किस पुण्य के बल पर राजकुमार हुआ? 52 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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