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सद्गुरु संत मेघ को उसके पूर्वजन्म के बारे में बताने लगे-मेघ, तू पूर्वजन्म में हाथी था। एक बार जंगल में आग लग गई, तो तुमने सब जीवों की रक्षा के लिए पेड़ों को उखाड़-उखाड़ कर एक मैदान बनाया। जंगल के सारे जानवर उसमें इकट्ठे हो गए। तभी तुमने खुजली मिटाने के लिए अपना एक पांव ऊपर उठाया। खाली जगह की तलाश में एक खरगोश चला आया। जहां तेरा पांव पहले रखा हुआ था, उसने वहां शरण ले ली। जैसे ही तुम अपना पांव नीचे रखने को हुए कि तुमने सोचा-यह बेचारा शरण में आया है। मुझे क्या फर्क पड़ेगा, अगर मैं शेष पांवों पर ही खड़ा रह लूंगा।
आग बड़ी भयानक थी। तीन रात तक आग जलती रही और जब आग बझी तो खरगोश निकल भागा। तुमने अपना पांव नीचे करना चाहा, तो वह इतना जकड़ चुका था कि नीचे नहीं कर पाए। जमीन पर धड़ाम से आ गिरे और मर गए। मेरे प्रिय मेघ, जरा यह सोच कि तू एक हाथी था, एक जानवर था, फिर भी अपनी देह की पीड़ा को इस तरह सहन कर गया। संत-जीवन में आकर तू देह-राग के कारण इतना विचलित हो गया? सद्गुरु ने उसे संबोधि दी, मार्ग दिखाया। इस आत्मज्ञान की दिशा को उपलब्ध कर मेघ ने अपनी काया अपने लिए नहीं जी। उसने सारा जीवन संतों की सेवा-सुश्रूषा में समर्पित कर दिया। अपनी देह को औरों के लिए जीकर वह सदा विदेह, सदा मुक्त रहा।
देह का अगर राग टूट जाए, तो तुम देह में रहते हुए भी ऐसे जीओगे, जैसे कीचड़ के बीच कमल रहता है। तुम देह में जीते हुए भी देह से अलग बने हुए रहोगे; देह का साक्षित्व सदा-सदा तुम्हारे साथ रहेगा। इसलिए अष्टावक्र कहना चाहते हैं कि अगर तू त्याग करना ही चाहता है, तो देह के अभिमान का त्याग कर, देह के राग का त्याग कर, देह का पोषण करने की तुम्हारे भीतर जो ममत्व-बुद्धि है, उसका त्याग कर। भोजन कीजिए, पर प्रेमपूर्वक। कड़वी या फीकी, जैसी भी मिली है, उसे ग्रहण करें। यह आपके जीवन में समत्व-योग होगा, सामायिक का आचरण होगा। भोजन करते हुए भी हम साधना को अपने जीवन में जी जाएंगे। जनक परमज्ञानी तो थे ही, अष्टावक्र का सान्निध्य पाकर आत्मज्ञान भी मिल गया। वे अष्टावक्र के संदेश को सुनकर जवाब देते हैं
आकाश वदनन्तोऽहं, घटवत् प्राकृतं जगत्।
इति ज्ञानं तथैतस्य, न त्यागो न ग्रहो लयः ॥ जनक कहते हैं- भगवन, मैं तो आकाश की भांति अनंत हूं, यह संसार घड़े की तरह प्रकृतिजन्य है, ऐसा ज्ञान है, इसलिए न इसका त्याग है, न ग्रहण है और न लय है।
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