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कर देता है, जैसा कि बचपन में आपने एक कहानी सुनी होगी कि एक आदमी चार आने कमाता था। एक आना माता-पिता के लिए, एक आना बच्चे और पत्नी के लिए, एक आना बचत के लिए और एक आना परमार्थ के लिए। क्या हम ऐसा करते हैं? नहीं, क्योंकि हम आसक्तियों में इतने उलझे हैं कि चार आने तो क्या, हमारे लिए तो चार लाख भी कम हैं। इसीलिए अष्टावक्र जनक से कहते हैं-जनक, अगर तू धन के अर्जन में ही लगा रहा, तो तेरे जीवन में पाया हुआ आत्मज्ञान भी व्यर्थ चला जाएगा, सारी शिक्षाएं व्यर्थ हो जाएंगी।" वस्तुतः दुनिया में कोई भी आदमी गरीब नहीं है। गरीब तो वे हैं, जो धन के प्रति आसक्त बने रहते हैं और इसीलिए जनक को यह चेताया जा रहा है कि आत्मा को तत्त्वतः एक और अविनाशी जानकर भी तुझ आत्मज्ञानी धीर-पुरुष को धन कमाने में क्यों आसक्ति है? वे केवल धन के प्रति ही सावचेत नहीं कर रहे हैं, वरन आसक्ति की और भी संभावनाएं हैं, इसलिए एक सूत्र और कह देना चाहते हैं। सूत्र है
आस्थितः परमाद्वैतं, मोक्षार्थेऽपि व्यवस्थितः।
आश्चर्यं कामवशगो, विकलः केलिशिक्षया ॥ अर्थात परम अद्वैत में स्थित हुआ और मोक्ष के लिए उद्यत हुआ पुरुष काम के वशीभूत होकर क्रीड़ा के अभ्यास से व्याकुल होता है, यही आश्चर्य है।
आदमी की दो मुख्य आसक्तियां होती हैं। एक आसक्ति का संबंध तन से होता है और दूसरी आसक्ति का संबंध मन से। मन का संबंध धन से है और तन का संबंध काम से होता है। आत्मज्ञान तो आज हुआ है, काम का अभ्यास तो जीवन-भर से, जन्म-जन्म से रहा है। तुम आत्मज्ञान तो पा लोगे, पर पता नहीं कल वापस उसी छिछलेदारी में पड़ जाओ। विश्वामित्र जैसे आत्मज्ञानी भी फिसल पड़े। आदतें सरलता से नहीं छूटतीं। खुजली के रोगी को कितना ही क्यों न समझा दो कि खुजलाने से पीड़ा और बढ़ेगी, मगर जैसे ही खुजली उठती है, आदमी खुजलाने लग जाता है।
जनक ने अवश्य ही आत्मज्ञान अर्जित किया है, किंतु इसका मतलब यह नहीं कि वे निर्वाण को उपलब्ध हो गए। उन्हें समाधि सधी है, पर सविकल्प समाधि सधी है। यह आत्मज्ञान की स्थिति है। आत्मज्ञान से अस्तित्व और आत्मा का भेद मिट जाता है, किंतु यह समाधि की वह स्थिति है, जिसमें विकल्प बना रहता है। अतीत के संस्कार, मन, बुद्धि, चित्त बीज रूप में बचे रहते हैं। निर्विकल्प समाधि, निर्वाण तब है, जब ये बीज भी नष्ट हो जाते हैं। इसलिए अष्टावक्र कुरेद रहे हैं उन बीजों को, पूर्व की जड़ों को।
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