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जनक कहते हैं कि या तो सारा संसार मेरा है अथवा मेरा कोई नहीं है। तुम्हें संसार से प्रेम करने का पूरा अधिकार है, मगर तुम्हारे प्रेम में संकीर्णता न हो, संकुचितता न हो। अपने प्रेम को विस्तार दो, प्रेम को सदा सार्वजनिक रखो। जब भी प्रेम को गोपनीय रखोगे, प्रेम पाप हो जाएगा।
मुझे याद है, एक साध्वी हुई है, नाम था ईशून। वह इतनी सुंदर थी कि उसको देखकर साधारण व्यक्ति तो क्या आत्मज्ञानी भी फिसल जाए और ऐसा ही हुआ। विचलन की काई एक युवा संत के पैरों के नीचे आ ही गई। उसने ईशून को पत्र लिखा। पत्र में उसने साध्वी के प्रति प्रेम जतलाया और एक निजी बैठक की मांग की।
ईशून ने युवा संत के पत्र का कोई जवाब नहीं दिया। निर्धारित दिन, जिस दिन संत ने समय मांगा था, अपने गुरु का संदेश पूरा होने के बाद साध्वी ईशून खड़ी हुई और उसने उस संत की तरफ संकेत करते हुए कहा-अगर तुम मुझसे प्रेम करते हो, तो आओ और सबके बीच मुझे आलिंगनबद्ध करो। युवा संत नजरें झुकाए बैठा रहा। __तुम्हारे प्रेम में इतना साहस ही कहां! प्रेम हमारा विराट हो जाए-सबके लिए, सबके प्रति। अगर ऐसा नहीं होगा, तो आत्मबोधि को उपलब्ध करने के बाद भी संभव है कि पैरों तले काई आ जाए। वह व्यक्ति धन्य है, जो कंचन और कामिनी से सदा अनासक्त रहता है। वह व्यक्ति धरती का जीवंत परमेश्वर है। अष्टावक्र भी ऐसे ही कोई भगवान रहे; जनक में भी ऐसी ही कोई भगवत्ता फटी, तो अष्टावक्र ने जान लिया कि अब जनक में न धन की आसक्ति रही, न काम की; तो अंतिम सूत्र कहा। सूत्र है
अंतस्त्यक्त कषायस्य, निर्द्वन्द्वस्य निराशिषः।
यदृच्छयागतो भोगो, न दुःखाय न तुष्टये ॥ अर्थात जिसने अंतःकरण के कषायों को त्याग दिया है और जो द्वंद्वरहित, आशा रहित है, ऐसे पुरुष को दैव-योग से प्राप्त भोगों में न दुख है, न सुख है।
जब अंतःकरण कषाय-मुक्त हो गया है, सौम्य और सरल हो गया है, तो बाहर चाहे जैसा वातावरण बने, इससे क्या फर्क पड़ता है, बाहर का वातावरण तुम्हें प्रभावित करता है, तो इसका अर्थ है, अपने अंतर्मन का अन्वेषण करो।
जैन धर्म में प्रव्रजित होने के बाद मुझे पता चला कि जैन संत नारी का स्पर्श नहीं करते। मैं चौंका कि संतों से महिलाएं घबराती हैं या महिलाओं से संत घबराते हैं? संत के लिए तो दोनों ही समान हैं, क्या स्त्री, क्या पुरुष! लिंग-भेद के गिरने
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