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नहीं पाएगा। वह तो यही सोचता रहेगा कि ऐसा क्यों हुआ, क्यों होना चाहिए; कब किया जाना चाहिए?
चिंता का सकारात्मक रूप है - चिंतन और चिंतन का नकारात्मक और विकृत रूप है - चिंता । जब मनुष्य की चिंता सकारात्मक और रचनात्मक मार्ग पकड़ लेती है, तो चिंता, चिंतन बन जाती है और जब व्यक्ति का चिंतन विकृत बन जात है, वही चिंतन चिंता बन जाता है। फर्क सिर्फ नकारात्मकता और सकारात्मकता का है। नकारात्मक चिंतन से किसी समस्या का कोई हल नहीं मिल पाएगा ।
चिंताओं को पालने से जीवन को कोई दिशा नहीं मिल पाएगी, इसलिए मेरे प्रभु बहुत निश्चित रहा करो। जब जो - जैसा होना होगा, तब वो वैसा हो जाएगा ।
चिंता से मुक्त रहने का पहला सूत्र ही यह होगा कि अपने चित्त से कर्ता-भाव को हटा दो; कर्ता-भाव को उस परमात्मा को, उस प्रकृति को, उस व्यवस्था को सौंप दो। परमात्मा से यही प्रार्थना करो कि जैसा तू रखना चाहे, हम उसी में तैयार हैं । हमने तो पतवार तुम्हारे हाथों में सौंप दी है। अब इस नैया को जिस ओर ले जाना चाहे, तेरी मर्ज़ी | हमने तो अब अपने आपको तुम्हारी मुरली बना ली है, मुरलीधर! अब तू जैसे स्वर फूंकना चाहे, जैसा सुर तू बजाना चाहे, हम समर्पित हैं। कर्ता-भाव उसको सौंप दो और उसके बाद तुम कर्म करो, परिणाम यह होगा कि न तुम जीवन में किसी तरह की कामना करोगे और न ही आपूर्ति की स्थिति में शोक या अवसादग्रस्त होओगे । काम और कामना से, शोक और दुख से मुक्त होने का यह पहला और सार्थक सूत्र होगा ।
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यह भी मत सोचो कि मैं ऐसा नहीं कर सकता। हर व्यक्ति असीम क्षमताओं का स्वामी है। हम सब कुछ कर सकते हैं, इस आत्मविश्वास और आत्मसंकल्प के साथ पुरुषार्थ करो । कर्म करना तुम्हारा अधिकार है, फल की चिंता परमात्मा पर छोड़ दो। तुम माली की तरह बीज बोने और उसे सींचने की चिंता करो, क्योंकि फूल-फल-पत्तियां देना तो प्रकृति की व्यवस्था है । अष्टावक्र आगे कहते हैनाहं देहो न मे देहो, बोधोऽहमिति निश्चयी । कैवल्यमिव सम्प्राप्तो, न स्मरत्यकृतं कृतम् ॥
जनक से अष्टावक्र कहते हैं- न मैं शरीर हूं, न शरीर मेरा है । मैं तो बोध रूप चैतन्य हूं, ऐसा जो निश्चयपूर्वक जानता है, वह पुरुष कैवल्य को प्राप्त होकर किए और अनकिए का स्मरण नहीं करता ।
अष्टावक्र हर जीवित प्राणी को, हर साधक को यह बोध देना चाहते हैं कि सदा-सदा यह स्मरण रखो कि मैं न तो देह हूं और न यह देह मेरी है। जहां व्यक्ति ने स्वयं को देह माना, वहीं पहले अज्ञान के बीज का आरोपण हुआ; शरीर में पैदा
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