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में कोई भेद नहीं किया जाता था। आज स्थितियां उलट गई हैं। पहले आदमी जंगल में सांप, बिच्छू, शेर या गीदड़ से भयभीत होता था, लेकिन आज आदमी, आदमी से ही आतंकित है; अपने मित्र से ही डरता है कि न जाने कब वह धोखा दे जाए।
धरती पर धर्म और शांति, प्रेम और पवित्रता की बातें बहत होती हैं, यहां शांति और सुरक्षा के नाम पर प्रति घंटा पचास करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं, जबकि हर तीन में से दो आदमी भूखे, नंगे, बेघर, बीमार और बेरोजगार हैं। यहां विकास के जितने इंतजाम हुए हैं, उनसे कहीं ज्यादा विनाश के हुए हैं। अब अस्पतालों को खोल लेने भर से काम न चलेगा; गली-गली में छोटे-मोटे मंदिर बना लेने भर से काम नहीं चलेगा। अब तो ध्यान और योग के मंदिर बनाने होंगे, चरित्र-निर्माण के विद्यालयों का विस्तार करना होगा।
जब तक ध्यान और योग की पुनर्प्रतिष्ठा नहीं होती, तब तक तुम हवाएं प्रदूषित ग्रहण करोगे; अनाज प्रदूषित खाओगे; विचार प्रदूषित पाओगे; तुम जिन लोगों के बीच जीओगे, उनका प्रदूषण अपने भीतर पाओगे। तुम्हारा तन, तुम्हारा मन, तुम्हारे विचार-सब अस्वस्थ होंगे। जीवन के रोम-रोम में अस्वस्थता विद्यमान है, तो संपूर्ण संसार स्वस्थ होगा, यह संभव नहीं है। जिन्हें धरती से प्यार है, जो धरती पर स्वर्ग देखना चाहता है, जो हर इनसान से प्रेम करता है, वह कभी नहीं चाहेगा कि प्रलय मचे या धरती हमारे ही हाथों नरक बने। हम चाहेंगे कि धरती पर प्रयोग हों, ऐसी प्रयोगशालाएं बनें, ऐसे मंदिर बनें, जहां मनुष्य को पूरा मनुष्य होना सिखाया जाए; जो मनुष्य को अंतर्मन की शुद्धि करना सिखाए; जो मनुष्य के मन में पलने वाले विकारों की शल्य-चिकित्सा करे।
__ महर्षि अष्टावक्र कहते हैं कि सारा संसार ध्यानमय हो, तीर्थमय हो। जब तक व्यक्ति अंतर्मन की शुद्धि, उसकी स्वस्थता, प्रसन्नता के लिए प्रयत्न न करेगा; मन में स्वर्ग को ईजाद करने के लिए कोशिशें न करेगा, तब तक आदमी के सिर पर खतरा मंडराता रहेगा। आदमी बौद्धिक और वैज्ञानिक विकास करने के बावजूद खिन्न, विपन्न और संकटग्रस्त बना हुआ रहेगा। जो व्यक्ति अपने आप में शुद्ध है, समाधिस्थ है, ध्यानस्थ है, कृतपुण्य है, लेकिन पाते हैं कि उनके अंतर्मन की स्थिति ठीक नहीं है, उनके लिए ये गाथाएं, ये सूत्र बहुत कीमिया सिद्ध होंगे। आज का सूत्र है
समाध्यासादि विक्षिप्तौ, व्यवहारः समाधये।
एवं विलोक्य नियममेवाहमास्थितः॥ जनक कहते हैं-अध्यास आदि के कारण विक्षेप होने पर ही समाधि का व्यवहार होता है। ऐसे नियम को देखकर समाधिरहित मैं स्थित हूं।
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