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________________ धन के प्रति कोई आसक्ति तो नहीं है, कहीं तुम्हारे मन में काम के प्रति मूर्छा तो नहीं है; साम्राज्य के प्रति मोह तो नहीं है। ___ अष्टावक्र के आह्वान से जनक चौंक पड़े। वे कहने लगे--प्रभु, आप और मुझसे यह सवाल करते हैं? कोई और व्यक्ति मेरे प्रति संदेह करता तो बात लाजमी थी, पर आपने मेरे पर संदेह किया! एक आत्मज्ञानी ही आत्मज्ञानी के प्रति संदेह कर रहा है। पूज्यवर, अगर धन होगा भी तो मैं धन से निःशेष रहूंगा, निर्धन रहूंगा। वह व्यक्ति निर्धन नहीं है, जिसके पास पैसा है, निर्धन तो वह व्यक्ति है, जिसकी धन के प्रति आसक्ति टूट गई है। हम लोगों ने 'निर्धन' शब्द का अर्थ बड़े गिरे हुए अर्थों में किया है। निर्धन होना तो सौभाग्य की बात है। हां, दरिद्र होना पाप और अभिशाप का सूचक है। भगवत-कृपा हुई, मैं निर्धन हुआ। बाहर से निर्धन और भीतर से समृद्ध, अपना स्वयं का सम्राट। __ कहा जाता है भगवान बुद्ध के पास उनका शिष्य पहुंचा और कहने लगा-भंते, मैं अंग-बंग-कलिंग देशों में जाकर धर्म और शांति के आपके विचारों को आगे से आगे फैलाना चाहता हूं। भगवान ने कहा-वत्स, तू जाना चाहता है, यह अच्छी बात है, मगर यह भी ध्यान रख कि वहां के लोग साधुओं और भिक्षुओं के प्रति बड़े ही निर्दयी और उपद्रवी हैं। जाने से पहले मेरे एक सवाल का जवाब देता जा। मेरा सवाल यह है कि अगर तू अंग-बंग-कलिंग देशों में गया और वहां के लोगों ने तुम्हें गालियां दी, तो तुम्हारे मन में क्या होगा? शिष्य ने बुद्ध के प्रश्न को सुना और बड़े शांत भाव से कहा-तब मेरे मन में यह होगा प्रभु, कि ये लोग कितने अच्छे हैं जो केवल गालियां देते हैं, चांटा तो नहीं लगाते। बुद्ध ने कहा-चांटा मारें तो? तो मेरे मन में यह होगा कि ये लोग कितने सहयोगी हैं, जो केवल चांटा ही मारते हैं, डंडे से नहीं पीटते। शिष्य का जवाब पाकर बुद्ध चौंके। बुद्ध ने कहा-वत्स, मान लो उन लोगों ने तुम्हें डंडों से पीटा, तो तुम क्या करोगे? शिष्य ने कहा-प्रभु, तब मेरे मन में यह होगा कि ये लोग कितने उदार हैं, जो डंडों से ही पीट रहे हैं, तलवार से तो नहीं काटते। बुद्ध ने कहा-मेरी अंतिम जिज्ञासा यह है कि अगर उन लोगों ने तुम्हारे सिरधड़ को तलवार से अलग कर दिया तो? बुद्ध शिष्य से अपने अंतिम प्रश्न का उत्तर पाने को उत्सुक थे। शिष्य ने कहा-पूज्यवर, तब मैं अपने आपको सौभाग्यशाली समझूगा कि मेरी देह धर्म के काम आई; मैं शांति का संवाहक बना। भंते, मेरे मन में ऐसा ही होगा। तथागत ने कहा-वत्स, तू जहां जाना चाहता है, वहां जा। तुम्हारे लिए राष्ट्र और सीमाएं महत्वहीन हैं, सारी पृथ्वी तुम्हारी अपनी है। तू शांति दूत है। 43 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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