________________
ऐसी ही स्थिति जनक के सम्मुख आई और जनक ने भी कहा कि भंते, आप और मुझसे यह सवाल करते हैं। मेरे मन में धन और काम के प्रति कोई आसक्ति नहीं है। प्रभु, मेरा तो यह कहना है
हन्तात्मज्ञस्य धीरस्य, खेलतो भोगलीलया।
न हि संसारवाहीकैमूढैः सह समानतः ॥ जनक ने कहा- हन्त, भोग-लीला के साथ खेलते हुए आत्मज्ञानी धीर पुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ पुरुषों के साथ कैसे की जा सकती है?
जनक ने संबोधन ही दिया-हन्त। हन्त यानी हनन करनेवाला, मार गिराने वाला, अपने भीतर के शत्रुओं को परास्त कर देने वाला।
जनक कहते हैं-भोग लीला में खेलते हए आत्मज्ञानी धीर पुरुष की बराबरी संसार को सिर पर ढोने वाले मूढ पुरुषों के साथ कैसे की जा सकती है? भगवन् एक आत्मज्ञानी और एक संसारी पुरुष में कुछ तो फर्क करोगे।
मैं समझ गया हूं कि आत्मज्ञान पाना सहज है, यह अनुभूत है। आत्मज्ञान की घटना मनुष्य में ध्यान के द्वारा, साधना के द्वारा आज-इसी क्षण घटित हो सकती है, मगर जन्म-जन्म से सिंचित किए जा रहे कर्म इसी क्षण काट पाना संभव नहीं है। कर्म केवल दो ही तरीकों से काटे जा सकते हैं-या तो तुम कर्मों को काटने के लिए पुरुषार्थ करो या फिर जब कर्म उदय में आए, तो उसे होशपूर्वक भोगकर उससे छुटकारा पा लो। पुरुषार्थ करना हर किसी के बस की बात नहीं है, लेकिन उदय में आने वाली वृत्ति या कर्म की स्थिति को सजगतापूर्वक, जागरूकतापूर्वक, बोधपूर्वक भोगते हुए काट देना अपेक्षाकृत सहज है। ____ अष्टावक्र मनुष्य को यह मार्ग देना चाहते हैं कि तुम भले ही गृहस्थ में रहो, मगर गृहस्थ में रहते हुए भी गृहस्थ-संत बनो। संसार में रहना कदापि बुरा नहीं है, संसार को अपने में बसा लेना बुरा है।
राजा हो या रंक-वह व्यक्ति धन्य है, जो आत्मबोध को उपलब्ध है। आत्मबोध को प्राप्त व्यक्ति और बेहोशी में जीने वाले आदमी में भारी अंतर होता है। आम महिला खाना पकाने के लिए चूल्हा जलाती है, तो झट से गैस को चाल कर देती है, बगैर देखे-जाने कि गैस के बर्नर पर कोई तिलचट्टा या अन्य कोई कीट तो नहीं बैठा है। पानी लेना है, तो उसे इस बात का ध्यान नहीं रहता है कि बर्तन में कहीं कोई छिपकली तो नहीं गिरी हुई है; पानी में कोई कीट-पतंगा तो नहीं है। भोजन बनाने में भी कर्मों की निर्जरा हो सकती है, कर्मों का बंधन हो सकता है और चित्त को भारभूत किया जा सकता है।
44
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org