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________________ अष्टावक्र कहते हैं यथातथोपदेशेन कृतार्थः सत्वबुद्धिमान् । आजीवमपि जिज्ञासुः परस्तत्र विमुह्यति ॥ अर्थात सत्व-बुद्धि वाला पुरुष थोड़े से उपदेश से ही कृतार्थ हो जाता है; असत्-बुद्धि वाला पुरुष आजीवन जिज्ञासा करके भी उसमें मोह को ही प्राप्त होता है। ___ अष्टावक्र जानते हैं कि जनक को आत्मज्ञान उपलब्ध हो गया है; उसका चित्त शांत हो गया है; उसकी इच्छा और स्पृहा समाप्त हो चुकी है। वे इसका कारण जान चुके हैं, इसीलिए कहा है कि बुद्धि संपन्न पुरुष थोड़े-से उपदेश से ही कृतार्थ हो जाता है। अगर तुम्हारी बुद्धि सत्व, सौम्य और पवित्र है, तो तुम्हारे लिए थोड़ा-सा उपदेश भी तुम्हें कृत-पुण्य कर जाएगा; थोड़ी-सी देशना भी तुम्हें धन्य-धन्य कर जाएगी। लंबे-चौड़े उपदेश तो उन्हें चाहिए, जो भीतर से मूर्छित हैं। जिनकी अंतर-आत्मा में अष्टावक्र के ये सूत्र, ये संवाद उतरने थे, पहले दिन ही उतर गए, अब तो केवल डूबना भर है। अमृत थोड़ा हो, तो भी पर्याप्त होता है। ज्योति कम हो, तो भी बहुत होती है। कहते हैं कि एक बार कबीर और फरीद आपस में मिले। भेंट से पहले कबीर अपने शिष्यों के आगे फरीद की बहुत तारीफ किया करते। हर प्रसंग में वे फरीद का जिक्र करते। फरीद भी जब कभी अपने शिष्यों और भक्तजनों के बीच होते, तो कबीर की यशोगाथा गा लिया करते। अपने मिलने के दिन वे शाम तक एक-दूसरे के पास बैठे रहे। दोनों जब-तब आपस में झांक लिया करते। शिष्य तो बैठे-बैठे उकता गए, क्योंकि दोनों आपस में कोई बातचीत ही नहीं कर रहे थे। वे तो बस क्षण-भर के लिए एक-दूसरे को देखकर मुस्कुरा भर देते। सांझ हो आई। फरीद ने झुककर अभिवादन किया और कहा-कबीर साहब, यहां आकर मैं कृतार्थ हुआ। इतना कहकर फरीद चले गए। कबीर मुस्कराए। कहा, साधुवाद ! साधुवाद !! फरीद के जाने के बाद शिष्यों ने अचंभे से कबीर से पूछा, आप दोनों दिन भर कुछ न बोले, फिर भी एक ने कृतार्थता प्रकट की और एक ने साधुवाद । हम यह पहेली बूझ न पाए, यह मिलन और मौन समझ न पाए। कबीर ने कहा-इतनी तो बात की थी हमने। तुम कहते हो कि हम मूक बैठे रहे। जिन्हें संवाद करना है, वे तो मौन भी संवाद कर लेते हैं, जिनके लिए उपदेश काम करना होता है, उनके लिए थोड़ा-सा उपदेश भी काम कर जाता है। 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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