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व्यक्ति की बुद्धि दो तरह की होती है - ऋजु जड़ और वक्र जड़ । ऋजु जड़ बुद्धि वह कहलाती है, जिसमें सरलता तो है, मगर जड़ता भी है। वक्र जड़ बुद्धि वह है, जिसमें न केवल जड़ता ही है, बल्कि वक्रता भी है, तार्किकता भी है, टेढ़ा-मेढ़ापन भी है। आदमी न तो ऋजु जड़ बने और न वक्र जड़। ऋजु प्राज्ञ बने । यही मेरी संदेशों का सार भी है। ऋजु यानी हृदय की सरलता और प्राज्ञ यानी मस्तिष्क से बुद्धि और ज्ञान- संपन्न । केवल ज्ञान - संपन्न होना व्यक्ति के अहंकार को बढ़ावा देगा और केवल ऋजुता भी आदमी को अंधविश्वासों की ओर अग्रसर कर सकती है, इसीलिए मैंने कहा कि हर व्यक्ति ऋजुप्राज्ञ बने, एक ऐसा समन्वय, एक ऐसा संगम हो कि मस्तिष्क दोनों के बीच का सेतु बन जाए, ऋजुता और प्रज्ञा का ।
व्यक्ति की बुद्धि सदैव सात्विक रहनी चाहिए । असात्विक और वक्र जड़ व्यक्ति सदा ही तर्क और वितर्क में ही उलझा रहता है । जिस गुरु से युधिष्ठिर ने शिक्षा पाई, उसी से दुर्योधन ने भी ज्ञानार्जन किया, लेकिन दोनों में रात और दिन का फर्क था। ग्राह्यता की वजह से एक युधिष्ठिर बन गया और दूसरा दुर्योधन । विकृत मस्तिष्क से स्वीकार किया गया ज्ञान व्यक्ति की मोह - मूढ़ता को बढ़ाता है और सद्बुद्धि से ग्रहण किया ज्ञान अंतःकरण के बंद दरवाजों को खोल देता है; उसे अंतर्दृष्टि का स्वामी बना देता है । बुद्धि की सात्विकता अपरिहार्य है । हृदय की सरलता की वेदी पर ही बुद्धि की सात्विकता संभावित है । हम सरल हृदय के स्वामी बनें, सात्विक बुद्धि के स्वामी स्वतः हो जाएंगे । अष्टावक्र का तत्त्वोपदेश फिर स्वतः आत्मसात होगा ।
आप बुद्धि की सात्विकता को प्राप्त हों । इसी आकांक्षा के साथ नमस्कार ।
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