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आत्मा के बीच तादात्म्य भंग हुआ, हम देह में रहते हुए भी विदेह हो जाएंगे। देह मृण्मयधर्मा रह जाएगी, मगर चेतना अमृतधर्मा हो जाएगी।
कृष्ण तो गीता में कहते हैं- नैनं छिंदन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः। न तुम काटे जा सकते हो, न तुम जलाए जा सकते हो; न तुम्हारा जन्म है, न मृत्यु। किसी की मृत्यु पर अज्ञानी आदमी कहता है कि वह मर गया, मगर ज्ञानी आदमी की दृष्टि में न कोई जन्मता है और न ही कोई मरता है, केवल दृश्यों का परिवर्तन भर होता है। देह को देह मानो इसमें कोई हर्ज नहीं, मगर इसके प्रति आसक्ति किसी भी रूप में अनुचित है। देह के प्रति आसक्त कोई भी व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता। तुम धर्म के मार्ग पर भी कदम रखोगे, तो वहां भी देह की रागात्मक वृत्ति के कारण संसार की ही कामना करोगे। तभी तो अष्टावक्र आवाह्न करते हैं कि यदि तुम मुक्ति चाहते हो, तो विषयों को विष के समान छोड़ दो।
देह के साथ चलो, मगर ऐसे चलो कि यह न लगे कि मैं चल रहा हूं, बल्कि यह लगे कि देह चल रही है, मैं तो देह के चलने के बावजूद स्थिर हूं। बोलता हूं, तो वाणी बोलती है, मैं तो मौन हूं। भूख लगती है, तो शरीर को लगती है, मैं भूखा थोड़े ही हूं। मैं इन सबका साक्षी भर हूं। महावीर ने ध्यान की एक बहुत अच्छी पद्धति दी, जिसको उन्होंने कायोत्सर्ग कहा। कायोत्सर्ग का इतना ही अर्थ है कि काया का उत्सर्ग कर देना, काया के भाव का त्याग कर देना और आत्मस्थिर हो जाना।
अगर कोई महावीर के कायोत्सर्ग को समझना चाहता है, तो केवल अष्टावक्र के सूत्र को समझ ले कि यदि तू देह को अपने से पृथक कर चैतन्य में विश्राम कर स्थिर है, तो तू अभी भी सुखी, शांत व बंधन-मुक्त है। जीसस को सलीब पर लटकाया गया, मंसूर के हाथ काट दिए गए, सुकरात को जहर दे दिया गया। अगर इन सभी में देह का भाव होता, तो ये सब इन कष्टों को, इन पीड़ाओं को नहीं सह पाते। इसलिए दुनिया में अगर कोई छोड़ने जैसी चीज है, तो वह देह के प्रति राग, देह की आसक्ति है और ग्रहण करने योग्य चीज तुम्हारी अपनी आत्मा, अपनी चेतना है।
केवल दो बातें सदैव स्मरण रखो-अपने आपको देह से पृथक देखो और चेतना में विश्राम करो, मगर ऐसा होता नहीं। आदमी जन्म लेता है, मरता है, फिर जन्म लेता है, फिर मरता है। यह सिलसिला चलता रहता है। हर जन्म में काम की उलझन उसे उलझाए रखती है; काम के संस्कार छूट नहीं पाते। ___ निष्काम वह है, जो देह-भाव से उपरत होने में सफल हुआ। देह-भाव को जो जीत पाया, वह जिनत्व की ओर, जितेन्द्रियता की ओर बढ़ा। अध्यात्म का,
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