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________________ और बालक भी रहे होंगे, लेकिन शिशु रूप से पहले क्या थे? क्या मृत्यु ही जीवन का समापन है? जिनकी दृष्टि मृत है, उन लोगों के लिए मृत्यु के साथ जीवन का समापन हो जाता है; शरीर के जलने के साथ जीवन की लीला खत्म हो जाती है। जिन्हें अन्तर्दृष्टि उपलब्ध है, वे जानते हैं कि मृत्यु तो जीवन का एक पड़ाव है, एक पटाक्षेप है । जिस तरह नाटक के दृश्यान्तरण के लिए कुछ क्षणों के लिए पर्दा गिरा दिया जाता है, उसी तरह मृत्यु भी 'परदे का गिरना' ही है । सांप सैकड़ों दफ़ा केंचुली बदलता होगा, लेकिन इससे वह स्वयं नहीं बदल जाता । मनुष्य अमृतधर्मा सत्य का स्वामी है, चिर नूतन यात्री है, जो दुनिया के हजारों-हजार परिवर्तनों के बावजूद अपरिवर्तित रहता है। जो नहीं बदलता है, वह मैं हूं। मैं वह हूं, जिसको सौ-सौ बार चिता पर जला दिया जाए, मगर फिर भी नहीं जलता; सैकड़ों दफ़ा जल में डूबो दिया जाए, तो भी नहीं डूबता । T 'अष्टावक्र गीता' न किसी क्रिया के अनुपालना की प्रेरणा देती है और न ही किसी समाधि के अनुष्ठान का संदेश देती है । इसके पास केवल एक ही संदेश है-ज्ञान का। यह जानने का, बोध, मुक्ति और चैतन्यता का मूलमंत्र देती है । क्रियाओं का कोई गंतव्य नहीं होगा । क्रियाओं में उलझा आदमी कोल्हू के बैल की तरह है, जो मीलों चलकर भी वहीं का वहीं है । व्रत, जप, तप, करोड़ों का दान करके भी आदमी के मन की आसक्ति, चित्त में क्रोध- कषाय की ग्रंथियां यथावत कायम हैं। राग-द्वेषमूलक तंतु अब भी टूटे नहीं हैं । अष्टावक्र कहते हैं - बात सधेगी ज्ञान से, बोध से । बच्चे को समझाओ कि बेटा, आग को हाथ मत लगाना, मगर बच्चे के समझ में नहीं आता । जबकि उसकी अंगुली भूल से आग का स्पर्श कर ले, तो वह आजीवन उस अनुभव को याद रखता है । अनुभव - दशा में उतरने के लिए 'अष्टावक्र गीता' के सूत्र कल्याणकारी होंगे। आज का सूत्र है 1 यदि देहं पृथक्कृत्य चित्ति विश्राम्य तिष्ठसि । अधुनैव सुखी शान्तः बन्धमुक्तो भविष्यसि ॥ अर्थात यदि तू देह को पृथक् कर चैतन्य में विश्राम कर स्थित हो जाएगा, तो अभी ही सुखी, शांत और बन्ध-मुक्त हो जाएगा । जनक ने अष्टावक्र से तीन प्रश्न किए - ज्ञान कैसे होता है ? वैराग्य कैसे होता है ? और मुक्ति कैसे होती है ? समाधान-रूप में अष्टावक्र द्वारा कहा गया हर सूत्र अनुपम है। अष्टावक्र कहते हैं - प्रश्न न सुख का है, न शांति का है और न मुक्ति का है। प्रश्न तुम्हारी देह से मुक्ति का है। देह तो प्रकृति से प्राप्त अनुपम उपहार है । इसे पाकर घमंड और अभिमान मत कर। जब तक देह को अपने से भिन्न देखते रहोगे, तब तक तुम्हारे पास तुम्हारा साक्षित्व रहेगा और जैसे ही देह और Jain Education International 19 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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