________________
भेद-विज्ञान की पहल
अष्टावक्र-गीता आत्मा से आत्मा के बीच का सार्थक संवाद है। जिस तरह प्यासी
धरती की प्यास बुझाने आसमान से बादल बरसते हैं; रात के अंधकार को हरने के लिए तारे प्रकाश बिखेरते हैं, वैसे ही अंतस् की प्यास बुझाने के लिए अष्टावक्र-गीता है। प्रकाश की प्यास ही ज्योति से ज्योति के संस्पर्श का कारण बनती है, ऐसा ही अष्टावक्र का आत्मसंवाद है। यह वह संवाद है, जिसको सुनते-सुनते जनक आत्मज्ञान को उपलब्ध हुए; जिसको पढ़ने मात्र से ही एक अलग तरह की खुमारी छा जाती है।
वस्तुतः ये सारे संवाद आत्मप्रकाश को उपलब्ध करवाने वाले छोटे-छोटे प्रकाश पुंज हैं, लघु संकेतक हैं। ये संवाद हम सभी के लिए बादल से बरसी हुई फुहारें हैं, जल-बूंदें हैं। बूंद की सार्थकता तभी है, जब वह उचित स्थान पर गिरे, सही पात्र का स्पर्श प्राप्त करे। यदि धरती पर गिरती है, तो धल में मिल जाती है; केले के पत्ते पर गिरकर कपूर को उत्पन्न करती है; गरम लोहे पर गिरकर अपना अस्तित्व मिटा डालती है; सर्प के मुंह में गिरकर विष बन जाती है; सर्प के मस्तक पर गिरकर मणि का रूप धारण कर लेती है। वही बूंद कमल की पंखुड़ी पर गिरकर ओस का रूप धर लेती है; सीप के मुख में समाकर मोती बन जाती है; समंदर में मिल विराट सागर का रूप ले लेती है। ये आप पर निर्भर है कि आप किस तरह की पात्रता करते हैं। जो केवल मोती तक रुक गया, वह संसार में आया और यहीं अटक गया, किंतु जो विराट सागर की ओर बढ़ गया, वह स्वयं सागर हो गया। जैसी हमारी पात्रता होगी, बूंदें वैसा ही सार्थक-निरर्थक परिणाम देंगी।
‘अष्टावक्र-गीता' के संदेश इस बात की पहचान करवाना चाहते हैं कि तुम कौन हो? तुम्हारे जीवन का मूल स्रोत क्या है ? तुम्हारा वर्तमान क्या है और तुम्हारा अतीत क्या रहा? क्या तुम अपने भविष्य में अतीत की पुनरावृत्ति चाहते हो अथवा प्रकाश से आप्लावित होना चाहते हो? आदमी निश्चय ही अज्ञान के सघन आवरण से घिरा है, जिसके कारण वह इन मूलभूत प्रश्नों से अनजाना है। तभी तो वह नहीं जानता कि वह कौन है, कहां से आया है? आज आप प्रौढ़ हैं, तो कभी युवा
18
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org