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________________ एक हाथ से उत्पन्न आवाज! अब तोयो को यह बात असंभव लगने लगी थी। उन्हीं क्षणों में शायद संत मुकुराई ने तोयो से कोई सूत्र कहा, जैसे अष्टावक्र ने जनक से कहा था-न तू पृथ्वी है, न जल है, न वायु है, न अग्नि है और न आकाश है। तू अपने आपको केवल साक्षी चैतन्य-रूप जान और तब पौ फटने से पहले ध्यानस्थ तोयो को वह आंतरिक प्रकाश, वह स्वर-रहित स्वर उपलब्ध हो चुका था। उसने जान ही लिया कि यही आवाज ही वह आवाज है, जिसकी कोई आवाज नहीं। ओह. मैं केवल साक्षी चैतन्य भर हूं। शेष, सबके बीच रहते हए, सबसे निःशेष हूं। प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति नहीं करता। इतना गहरा सूत्र! जब मैंने इस सूत्र को पढ़ा, मेरा रोम-रोम रोमांचित हो उठा, आनंद से अभिभूत हो उठा। हां, मैं कुछ नहीं, कुछ नहीं। संपूर्णतः शून्य, परिपूर्ण चेतना। अष्टावक्र-गीता मार्ग-रहित मार्ग है, द्वार-रहित द्वार है, सरोवर-रहित सरोवर है। मृत्यु के भय से छूटने के लिए, सत्य का बोध और आनंद का वरदान पाने के लिए यह शास्त्रों में पूर्णिमा का चांद है। नीले आकाश में खिला पूर्णिमा का चांद! अंतर-हृदय के द्वार खोलें और उन्मुक्त हृदय से नहाएं इस चांदनी में, शांत-सानंद दशा में। 17 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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