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________________ आत्म-विज्ञान का यही सार है कि प्रथम दृष्टया देह-भाव से मुक्ति और दूसरे चरण में आत्मभाव में स्थिति । स्वयं की शांत-सौम्य मनःस्थिति में ही आत्मभाव की स्थिति संभावित है। इस आत्मभाव को प्राप्त व्यक्ति के लिए कुछ भी असंभव नहीं। कहते हैं- भगवान बुद्ध जंगल के बीच से गुजर रहे थे। वे बीच जंगल में पहुंचे, तो पहाड़ी पर चढ़ा हुआ डाकू अंगुलीमाल चिल्लाया-ऐ भिक्षु, एक कदम भी आगे मत बढ़ाना। मैंने संकल्प किया है कि मैं एक हजार अंगुलियां काटकर देवी को उसकी माला चढ़ाऊंगा। अब मुझे केवल एक ही आदमी की जरूरत है। अंगुलीमाल की बात सुनकर बुद्ध मुस्कराए और आगे बढ़ गए। अंगुलीमाल ने पास आते हुए फिर चेतावनी दी-ठहर जा भिक्षु। बुद्ध ने कहा-मैं तो ठहरा हुआ ही हूं। तू बता, तू कब ठहरेगा। आत्म की गहराई से निकले बुद्ध के शब्दों ने अंगुलीमाल की चेतना को झनझना के रख दिया। उसने नजर ऊपर उठाई, बुद्ध की आंखों में झांका, कैसा अद्भुत सम्मोहन था कि उसने जो तलवार बुद्ध को मारने के लिए उठाई थी, वह बुद्ध के चरणों में सौंप दी। अंगुलीमाल डाकू न रहा, भिक्षु अंगुलीमाल हो चुका था। जीवन में साधुता का जन्म हो चुका था। व्यक्ति जिनत्व और समर्पण की ओर अपना कदम बढ़ा चुका था। बुद्ध ने मानो अष्टावक्र के सूत्र को स्वयं में पुनरुज्जीवित किया था। यह सूत्र आज फिर हमारे जीवन में चरितार्थ होना चाहिए-एक और बुद्ध के जन्म के लिए। अगला सूत्र है एको दृष्टोसि सर्वस्य, मुक्तप्रायोसि सर्वदा। अयमेव हि ते बन्धो, दृष्टारं पश्यसीतरम् ॥ अर्थात तू एक सबका दृष्टा है। सर्वदा मुक्त है। तेरा बंधन तो यही है कि तू अपने को छोड़कर दूसरे को दृष्टा देखता है। जनक पूछना चाहते हैं, बंधन क्या है और संबोधि को कैसे उपलब्ध हुआ जाए? प्रत्युत्तर में अष्टावक्र यह नहीं कहते कि तुम्हारा परिवार तुम्हारे लिए बंधन है। वे यह भी नहीं कहते कि तुम्हारा संसार, जमीन-जायदाद, राजमहल तुम्हारे बंधन हैं। वे तो कहते हैं कि तुम्हारा बंधन यही है कि तुम अपने को छोड़कर दूसरे को अपने दृष्टा के रूप में देखते हो। आदमी सोचता है, दूसरे लोग मुझे देख रहे हैं; वे मुझे क्या कहेंगे; वे मेरे बारे में क्या सोचते होंगे? नतीजतन भीतर की दमित वृत्तियां भीतर-ही-भीतर दबती चली जाती हैं। फ्रायड कहता है कि दमन ही दुख का कारण है। दुनिया के पास देने के नाम पर केवल आलोचनाएं हैं। तुम दुनिया के कहे अनुसार अपने जीवन की आधारशिलाएं मत रखो। दुनिया को तो जब तक तुमसे स्वार्थ होगा, तब तक गलत को भी सही ही कहेगी। यह दुनिया तो उस बंदरिया की तरह है, जो अपने बच्चे को अपने कंधे पर बिठाए रखती है और जब पानी 21 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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