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________________ उसकी नाक तक आ जाता है, तो वह बच्चे को पानी में फेंककर स्वयं उस पर खड़ी हो जाती है। बेहतर होगा, आदमी अपना दृष्टा खुद बने। मनुष्य मात्र की मनोस्थिति तो यह है कि कोई भी दृष्टा होना नहीं चाहता, बस दृश्य होना चाहता है, अपने आपको सजा-संवार कर रखना चाहता है। क्षण-प्रतिक्षण मृत्यु करीब आती जा रही है, मगर आदमी इससे बेपरवाह है, जीवन-घट बूंद-बूंद कर रिसता चला जा रहा है, मगर आदमी को कोई सुध नहीं है। बीस साल का तरुण और अस्सी साल का वृद्ध समान रूप से विकृत हैं, कोई बोध नहीं। मैंने सुना है कि दशरथ के सिर में एक बाल सफेद आ गया, तो वे वैराग्यवासित हो गए। यहां तो सारे-के-सारे बाल सफेद हो जाएं, तो भी चिंता की हलकी-सी शिकन भी चेहरे पर नहीं; वही बेहोशी, वही मूर्छा। __ एक आदमी अपने हाथों से कई-कई दफा लाशों को जलाकर आ चुका है, मगर उसे तो अब भी लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं। वह अपने मौलिक दृष्टाभाव को उपलब्ध नहीं हो पाता। उसके पास तो स्वयं भगवान भी आ जाएं, तो वे भी उसे जगाने में नाकाम रहेंगे। दूसरी तरफ बुद्ध थे, जो सूक्ष्मता में निहित सत्य को ढूंढ लेते हैं। एक गर्भवती स्त्री को देखकर जन्म लेने की पीड़ा उन्हें दहला देती हैं, रोगी और वृद्ध व्यक्ति को देखकर वे करुणा और फिर भय से भर उठते हैं और एक मृत व्यक्ति की अर्थी से इस तरह विचलित होते हैं कि राज्य, सत्ता और सभी भोग-विलासों को तत्काल त्याग कर उस सत्य की खोज में निकल पड़ते हैं, जहां न दुख है, न जरा है, न मृत्यु । अष्टावक्र कहते हैं कि तुम दर्शक नहीं, दृष्टा बनो। दर्शक वह है, जो दूसरों को देखता है और दृष्टा वह है, जो स्वयं अपने आपको निहारता है। जब व्यक्ति की दृष्टि दूसरे से हटकर स्वयं पर केंद्रित होती है, तो व्यक्ति दृष्टाभाव को उपलब्ध होता है, यही ध्यान है। देखने वाले को देखना ही ध्यान है, उसे उपलब्ध होना ही मुक्ति है। मैं कर्ता नहीं, दृष्टा हूं; विमल विशुद्ध बोध हूं, साक्षी चैतन्य भर! बस, यह सजग दशा पर्याप्त है। ___ अष्टावक्र हमें वह संदेश, वह संकेत देना चाहते हैं, जिसके जरिये आदमी बोधदशा को उपलब्ध होता है। इसी का नाम 'संबोधि-ध्यान' है। सम्यक् बोधपूर्वक जीना ही संबोधि-ध्यान है। तुम जीवन में ऐसे जीयो कि देह चले, मगर तुम स्थितप्रज्ञ रहो। नतीजा यह होगा कि अगर तुम्हारे जीवन में परम वेदना के क्षण भी आएंगे, तो तुम उनसे भी अपने आपको अलग देखोगे। तब तुम्हारे शरीर के द्वारा भोग-उपभोग भी होगा, तो तुम उससे अलग रहोगे; तुम अनासक्त जीवन को जीओगे, ठीक ऐसे ही जैसे कीचड़ में कमल की पंखुड़ियां खिला करती हैं। भगवान करे कमल घर-घर खिले, घर-घर कमल की सुवास फैले। आज के लिए इतना ही निवेदन है। 22 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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