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________________ गृहस्थ हो या संत, किसी की भी चाह मिटी नहीं है । गृहस्थ मकान बनाना चाहता है, तो संत मठ बनाने में लगा है। इस गतिशील मन को वही समझ सकता है, जो चैतन्य-तत्त्व की ओर गति करने में भी सक्षम है I कहते हैं - एक बार जीसस नौका से गैलिली झील को पार कर रहे थे। नौका झील के बीच पहुंची, तभी एक भयंकर तूफान उमड़ा। पूरी झील आंदोलित हो उठी, सारे लोगों में कोहराम मच गया। नौका पर सवार अन्य यात्री बचने के लिए जोर-जोर से आवाजें लगाने लगे, लेकिन ताज्जुब कि जीसस नौका के एक कोन में तसल्ली से बैठे थे। लोगों ने जीसस से कहा कि प्रभु, नौका डूब रही है और आप आंख मूंदे बैठे हैं। जीसस ने विस्मय की मुद्रा में पूछा- क्या हो गया ? जवाब मिला- झील में तूफान आ गया है। जीसस ने कहा- मुझसे क्या कहते हो । जाकर तूफान से कहो कि तूफान, शांत हो जा। लोग हंसे, कहने लगे- अगर ऐसा ही है, तो आप ही उठकर कह दो। जीसस झट से खड़े हुए, नौका के दूसरे किनारे पहुंचे और बुलंद स्वर में कहा- शांत, शांत, तूफान शांत हो! बाइबिल कहती है कि गैलिली झील तत्काल शांत हो गई। यह बात शायद अतिशयोक्तिपूर्ण लगे, पर मैं इसे प्रतीक के रूप में लेता हूं । गैलिली झील मनुष्य का अपना मन है, जिसमें विचारों, कल्पनाओं, विकल्पों के न जाने कितने-कितने तूफान उमड़ते रहते है । आदमी के भीतर इतना स्वामित्व हो कि वह मन पर अंकुश लगा सके, कहे - मन शांत और मन शांत हो जाए। अगर मन तुम्हारा कहना मानता है, तो तुम मन के स्वामी हुए और मन के कहे अनुसार तुम चलते हो, तो मन तुम्हारा स्वामी हुआ । अष्टावक्र कुछ और संकेत देना चाहते हैं । वे कहते हैं कि मनुष्य का मन कुछ त्याग या ग्रहण करना चाहता है, तो वह भी बंधन ही है । वे केवल ग्रहण करने को ही बंधन नहीं कहते, वरन् त्याग करने को भी बंधन कहते हैं, क्योंकि उसके साथ क्रिया जुड़ी है। त्याग किया नहीं जाता है, वह तो हमेशा स्वतः हा है। किसी ने तुम्हें नियम दिया कि तुम सिगरेट नहीं पिओगे । तुमने त्याग तो कर दिया, पर ग्रहण का भाव नहीं गया, नतीजतन सिगरेट तो छोड़ दी, पर बार-बार उबासियां लेते रहोगे, बार-बार उसी की याद सताएगी । त्याग वस्तु को छोड़ने का नाम नहीं है। वह तो वस्तु के प्रति रहने वाली मूर्च्छा और स्मृति को छोड़ने का नाम है। त्याग तब कहलाता है, जब ग्रहण का भाव छूट जाता है। 1 आदमी बाहर से त्यागी होता है, भीतर से भोगी होता है । जब तक भीतर की पकड़ न छूटे, तब तक व्यक्ति बाहर में कितना ही त्याग क्यों न कर ले, हिमालय पर भी क्यों न चला जाए, मगर वह गृहस्थी वहां भी बसा लेगा । Jain Education International 66 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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