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________________ कहते हैं - साध्वी राजुल बारिश से घिर गई थी । उसका सारा शरीर बारिश से तरबतर था। ओट पाने के लिए वह किसी गुफा में घुस गई। उसने सोचा कि यहां अंधेरा है, कोई व्यक्ति नहीं है । मैं कपड़ों को उतारकर, निचोड़ लूं, सुखा लूं और वापस पहन लूं । राजुल ने ऐसा ही किया और अपने कपड़े उतारे । तभी बिजली कड़की और उसकी चमक में उसने एक संत को वहां पाया । वह संत कोई और नहीं राजुल का देवर रथनेमि था । उसने राजुल को देख लिया और उसका मन चंचल हो गया। उसने राजुल को पुकारा । राजुल चौंकी और झट से अपने कपड़ों को संभाला। रथनेमि ने राजुल को भोग के लिए आमंत्रित किया। तब राजुल ने रथनेमि को जो संदेश दिया, उससे जैन धर्म के सारे शास्त्र, सारे ग्रंथ भरे पड़े हैं । राजुल ने रथनेमि से कहा- रथेनेमि, अगर तू कुएं पर चलते हुए रहट की तरह अस्थिर हो गया; अगर तू पेड़ पर टिके हुए पत्ते की तरह हवा के साथ चंचल हो गया, तो जरा कल्पना कर कि तू साधना के मार्ग पर किस तरह स्थिर रह पाएगा । निश्चय ही तूने बाहर से त्याग कर दिया है, लेकिन बाहर का त्याग भी तेरे लिए भारभूत बन गया है। त्याग बाहर हुआ, पकड़ भीतर में और मजबूत हो गई । बाहर से व्यक्ति ने मन को साधने की चेष्टा की, पर मन तो उछलता रहा कि कहीं कोई राजुल मिल जाए और मैं अपनी अतृप्ति को शांत कर लूं। यह मनुष्य के मन की विकृत दशा है कि वह बाहर से त्याग कर देता है, लेकिन भीतर में त्याग हो नहीं पाता। चूंकि अष्टावक्र इस बात से वाकिफ हैं, इसीलिए कहा है कि त्याग भी तेरे लिए बंधन है और ग्रहण करना भी तेरे लिए बंधन ही है । जहां व्यक्ति न दुखी होता है और न सुखी होता है, वहीं पर व्यक्ति की मुक्ति होती है। जहां सुख और दुख हैं, वहीं बंधन है । सुख और दुख में हमारी जो समान स्थिति बनी हुई रहती है, उसी का नाम तपस्या है। धूप हो या छांव - दोनों ही स्थितियों में सम रहने वाला व्यक्ति ही तपस्वी हुआ, इसलिए बंधन और मुक्ति का इतना सा सार - संदेश है कि जहां मन क्रियाशील होता है, वहीं बंधन है और जहां साक्षित्व उपलब्ध हो जाता है, केवल द्रष्टाभाव रहता है, वहीं मोक्ष है । जनक के लिए कहा गया यह सूत्र हम सबके लिए मुक्ति का प्यारा-सा संदेश लेकर आया है कि अपने मन पर अंकुश लगाओ, न चाहो, जो मिला है, उसमें तृप्त रहो । न अतीत के बारे में सोचो, न भविष्य के सपने संजोओ। जैसा वर्तमान मिला है, उसे वैसे ही जीओ । व्रत-उपवास जैसे लघु त्याग मत करो। अपनी देह की आसक्ति, मन के अनुराग का ही त्याग कर दो। ग्रहण करना ही है, तो अपनी चेतना को ग्रहण करो । त्याग करना ही है, तो देह-दृष्टि का, चर्म-दृष्टि का त्याग करो। न सुख, न दुख, दोनों ही स्थितियों में जहां व्यक्ति आनंदित रहता है, वहीं वह जीते-जी है 1 Jain Education International मुक्त 67 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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