SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 66
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थात जब मन कुछ चाहता है, कुछ सोचता है, कुछ त्याग करता है, कुछ ग्रहण करता है, सुखी और दुखी होता है, तब बंध है। जब मन न चाह करता है, न सोचता है, न त्यागता है, न ग्रहण करता है, न सुखी होता है, न दुखी होता है, तब मुक्ति है। जीवन में कभी-कभी जो सूत्र बड़े सरल नजर आते हैं, उनको जीना उतना ही कठिन हो जाता है और जो सूत्र बड़े कठिन नजर आते हैं, उनको जीना उतना ही आसान हो जाता है । अष्टावक्र का यह सूत्र जितना आसान लगता है, उतना ही दुष्कर भी है। जैसे कोई आदमी मझधार के बीच फंसा हुआ हो, तो उस आदमी का किनारे लगना कठिन हो जाता है, वैसे ही जो व्यक्ति अपने मन के अंधे गलियारों में उलझ चुका है, उसके द्वारा मन को पार करना कठिन हो जाता है। मन के द्वारा उठने वाली हर क्रिया बंधन है और जिससे मन का विलीनीकरण होता है, वह हर क्रिया मुक्ति है । जिन क्रियाओं के द्वारा मन गतिशील होता है, वह हर क्रिया मनुष्य के लिए बंधन हैं। अगर ध्यान को भी क्रिया बना लोगे, तो वह भी बंधन है; अगर भक्ति को भी क्रिया बना लोगे, तो वह भी बंधन है, इसीलिए तो रिंझाई ने कहा था कि जब तुम समाधि के मार्ग पर बढ़ते हो और यदि उस मार्ग पर भगवान भी चले आएं, तो उनको भी एक किनारे कर देना । जब तुम अपने आप से मिल रहे हो, अपने से मैत्री हो रही है, आत्मज्ञान की रोशनी से भर रहे हो, तब मन की हर गति तुम्हारे लिए प्रवाह की गति होगी । यह बात गहराई तक समझ लेने की है । आदमी जिंदगी-भर मन को साधने का ध्यान करता है और मन कभी सध नहीं पाता, इसलिए ध्यान भी किया हो, पर ध्यान हुआ नहीं। जहां ध्यान करने जाओगे, वहां ध्यान भी क्रिया बन जाएगा। जहां ध्यान क्रिया बनता है, वहां वह समाधि में बाधक बन जाता है, इसीलिए स्वभाव में आना ही मोक्ष में जीना है और परभाव में चले जाना ही बंधन में चले जाना है । जैसा है, वैसा है - यही भाव स्वभाव है । तटस्थता ही ध्यान है । स्वभाव में जीना ही ध्यान है । न बुरे से परहेज और न अच्छे से मोहब्बत। ' न काहू से दोस्ती, न काहू से वैर' । अष्टावक्र कहते हैं कि जब मन कुछ चाहता है, तब बंधन है । मनुष्य के पास मन नाम की ऐसी शक्ति है, जो हर समय कुछ न कुछ चाहती रहती है I मनुष्य हर समय मानसिक अवसाद से ग्रस्त रहता है । जो मिला है, उसमें तृप्ति नहीं है। अगर गेहुंआ रंग मिल गया, तो साबुन रगड़-रगड़ कर नहाते हो कि थोड़ा-सा कालापन तो मिट जाए। कपिल ब्राह्मण, जो दो तोला सोना मांगने के लिए निकला था, मन के भटकाव में, तृष्णाओं के जाल में फंसकर एक राजा से उसका राज्य ही मांगने के लिए तैयार हो जाता है । मनुष्य का अतृप्त मन दौड़ रहा है। 65 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy