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________________ कभी भी काम नहीं देता। मन का विसर्जन कर देना ही मन से मुक्त होने का सर्वाधिक सार्थक सूत्र है। कहते हैं कि संत मात्सु अपनी झोपड़ी में बैठकर मन को साधने की साधना किया करते थे। मन को साधते-साधते लंबा अरसा बीत गया। एक दिन मात्सु के गुरु ने उसके मन को पढ़ा और उसकी झोंपड़ी में चले आए। वे लगे ईंट को घिसने। सुबह से शाम हो गई। मात्सु से रहा न गया। उसने पूछा-यह आप क्या कर रहे हैं? गुरु ने जवाब दिया-मैं इस ईंट से आईना बनाने का प्रयत्न कर रहा हूं। मात्सु ने विनम्रतापूर्वक कहा-गुरुवर, क्या ईंट कभी आईना बन पाई है? गुरु ने हंसकर कहा-मात्सु, जो बात तुम मुझसे कह रहे हो, वही मैं तुम्हें समझाने आया हूं। जब ईंट को घिसने से वह आईना नहीं बन सकती, तो फिर मन को साधने से क्या मन से कभी मुक्त हुआ जा सकता है? मन ही तो आत्मदर्पण के प्रकट होने में बाधा है। मन तो उड़ती धूल है, जो आईने पर जम गई है। आत्मदर्पण पर पसरी यह रेत कल्पनाओं, धारणाओं और आग्रहों की रेत है। धूमिल हो गई है मनुष्य की अंतरात्मा। हम अगर अपने कमरे में बैठे हैं और सूरज की रोशनी कमरे में आ रही है, तो हमें उस रोशनी में कुछ उड़ते हुए धूलिकण दिखाई देंगे। ये धूलिकण दरअसल प्रकाश को रोक रहे हैं। यह अलग बात है कि आत्मप्रकाश को धूलिकण न ढंक सकते हैं, न रोक सकते हैं, मगर हमारी आंखें जरूर ढंक देंगे। हम अपनी आंखों से शुद्ध रोशनी को देख नहीं पाते। हमारे सारे प्रयास ईंट को घिसने के प्रयास हो रहे हैं। लोग मालाएं फेरते हैं, सामायिक करते हैं, जप करते हैं, लेकिन सबकी एक ही शिकायत रहती है कि क्या करें किसी में भी मन नहीं लगता। जो न लगे, वही तो मन है। मन को हम जितना लगाना चाहेंगे, वह उतना ही उछलेगा। अगर मन के प्रति सजगता, साक्षी-भाव और द्रष्टा-भाव आ जाए, तो वह स्वतः विलीन हो जाता है। मन को साधने की कोशिश से व्यक्ति बाहर आए और मन के पार रहने वाले तत्त्व को निहारे। इस संदर्भ में अष्टावक्र कुछ देना चाहते हैं। वे कहते हैं तदा बंधो यदा चित्तं, किंचित् वांछति शोचति। किंचित् मुंचति गृहणाति, किंचित् हृष्यति कुप्यति ॥ तदा मुक्तिर्यदा चित्तं, न वांछति न शोचति । न मुंचति गृहणाति, न हृष्यति न कुप्यति ॥ 64 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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