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है, उसे आनंद-भाव से जी लेना, बगैर किसी शिकवा-शिकायत के, अलिप्त भाव से, यही जीवन की मुक्ति है। जहां-जहां तृष्णा है, वहीं-वहीं संसार है। तृष्णा का पात्र कभी भरता नहीं है। कितना भी पा लो, तृष्णा नहीं मिट पाती। तृष्णा के पात्र के आगे तो भिखारी ही नहीं, सिकंदर भी भिखमंगा है। जब सिकंदर राजा पुरु को जीत चुका था। तो उस समय सिकंदर से डायोजनिज ने पूछा-तू इस तरह से एक-एक सम्राट, एक-एक देश को जीतता चला जा रहा है। आखिर सारी दुनिया पर कब्जा करने के बाद क्या होगा? सिकंदर यह प्रश्न सुनकर निरुत्तर
और हतोत्साहित हो गया। कहने लगा-यह तो मैंने सोचा ही नहीं कि आगे क्या होगा? जब तक हमने यह न सोचा कि आगे क्या होगा, आदमी तृष्णाओं में घिरकर बस जीता जाएगा, जीता जाएगा, इसीलिए अष्टावक्र कहना चाहते हैं कि तू प्रौढ़ वैराग्य को प्राप्त होकर वीततृष्णा होकर सुखी हो।
जिस प्रकार की कामना से आदमी वैराग्य के मार्ग पर कदम बढ़ाता है, व्यक्ति के लिए बहुत कठिन है कि वह आजीवन उस मार्ग पर अडिग रहे। यह मनुष्य का मन, जो आज राग को चाहता है, कल वैराग्य को चाहेगा, लेकिन वही वैरागी मन राग की ओर भी लौट सकता है। एक संसारी आदमी को तो तुम कह सकते हो कि तू रागी है, कामी है, विषयों में लिप्त है, लेकिन एक वैरागी को कैसे कहोगे? वैरागियों के राग बड़े विचित्र होते हैं। कुछ समय पहले एक बहुत बड़ा कथा-वाचन का प्रसंग शहर में हुआ। उस कार्यक्रम के आयोजक संयोग से मुझसे काफी सम्बद्ध रहे थे। उन प्रवाचक-संत महोदय को लेने के लिए उनकी कार हवाई अड्डे पहुंची। संतप्रवर ने यह कहकर कार में बैठने से इंकार कर दिया कि तुम्हारी कार वातानुकूलित नहीं है। मरते क्या न करते, हाथों-हाथ ए.सी. कार की व्यवस्था की गई। इस तरह उनका शहर में आगमन हुआ। वैरागियों का राग! बड़ा विचित्र होता है, तुम उसे राग कह भी नहीं पाते।
कुछ समय पहले अखबारों में पढ़ा कि कुंभ के दौरान नागा-बाबाओं के बीच तलवारें चल पड़ीं। नग्नता अंगीकार कर इतने महान् त्याग और अपरिग्रह को स्वीकार किया, फिर भी मन के आक्रोश, हिंसा, प्रतिस्पर्धा से मुक्त नहीं हो पाए। अपने आपको बाहर से बदल लेना कितना आसान है, पर भीतर से बदल पाना उतना ही कठिन है। इसी कारण तो अष्टावक्र कहते हैं कि जहां-जहां तृष्णा हो, वहां-वहां ही संसार जान, प्रौढ़ वैराग्य को आश्रय करके वीततृष्णा होकर सुखी हो । तू परिपक्व वैराग्य को अंगीकार कर। संन्यास लेने की जल्दी मत करना। पहले अपने वैराग्य की कसौटी कसना। जब तक तुम पक्के श्रावक न बनोगे, तुम पक्के श्रमण कभी नहीं बन सकते। पहले सद्गृहस्थ तो हो जाओ, बाद में सम्यक संत भी हो जाओगे, तुम प्रौढ़ वैराग्य के स्वामी बनो। तुम जीतो मन की तृष्णा को, हृदय के भय को,
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