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________________ की पुत्री है तृष्णा । तृष्णा यानी ला और ला ! तृष्णा जन्म देती है स्पर्धा को, ईर्ष्या को। औरों से जितना बटोर सकूं, खुद को जितना भर सकूं, उतना भर लूं । नौका को अगर जरूरत से ज्यादा भरोगे, तो नौका को आखिर डूबना ही है । अष्टावक्र के लिए तो धर्म भी त्याज्य है । वे कहते हैं कि तू धर्म की भी उपेक्षा कर। धर्म यानी शुभ, अधर्म यानी अशुभ; धर्म यानी पुण्य, अधर्म यानी पाप; धर्म यानी कर्तव्य, अधर्म यानी अकर्तव्य, जो मोक्ष का अभिलाषी है, उसके लिए क्या शुभ और अशुभ, क्या पाप और पुण्य, क्या स्वर्ग और नरक ! पुण्य तो उसे चाहिए, जिसे स्वर्ग चाहिए। जो मुक्ति की कामना रखता है, उसे तो पुण्य की भी जरूरत नहीं। वह तो पुण्य को भी वैसे ही त्याज्य समझता है, जैसे पाप को । बंधन तो बंधन है, चाहे पाप का हो या पुण्य का हो, शुभ का हो या अशुभ का। बेड़ी चाहे सोने की हो या लोहे की, वह तो आदमी को बांधेगी ही । मुक्ति के लिए तो पाप-पुण्य दोनों से उपरति चाहिए। पाप से मुक्त होने के लिए पुण्य है, लेकिन मोक्ष पाने के लिए तो पुण्य से भी छुटकारा आवश्यक है । मोक्ष अर्थ, काम और धर्म - तीनो पुरुषार्थों के पार है I अगला सूत्र है यत्र यत्र भवेत् तृष्णा, संसारं विद्धि तत्र वै । प्रौढवैराग्यमाश्रित्य वीततृष्णः सुखी भवः ॥ अर्थात जहां-जहां तृष्णा हो, वहां-वहां ही संसार जान। प्रौढ़ वैराग्य को आश्रय करके वीततृष्णा होकर सुखी हो । संसार क्या है और निर्वाण क्या है? अष्टावक्र कहते हैं कि तृष्णा को ही संसार जान । तृष्णा ही मनुष्य का बंधन है, वही उसका अंधकार है। तृष्णा ही मनुष्य का विस्तार और उसका संसार है। जहां तृष्णा और मोह से छूटे, वहीं निर्वाण है । निर्वाण में दो शब्द हैं-निर् और वाण । निर् का अर्थ होता है - रहित होना और वाण का अर्थ होता है - वासना । निर्वाण का अर्थ होता है-वासना से रहित हो जाना । जो व्यक्ति वासना से मुक्त हो गया, काम की वासना से, धन की वासना से, नाम और पद की वासना से, व्यापार-व्यवसाय की वासना से मुक्त हो गया, वह अपने जीवन में अखंड निर्वाण को जी रहा है । आप अपने कार्य और कर्तव्य पूरे कीजिए, किंतु मनुष्य जिस भौतिक सुख की तृष्णा में पड़ा उसके पीछे दौड़ रहा है, याद रखें कि ये भौतिक सुख मनुष्य के चापलूस शत्रु हैं । व्यर्थ की लालसा और तृष्णा में उलझकर ऋण और निराशा के दलदल में न फंसें। कम है, तो उसमें भी तृप्त रहें । जो मिला है, जैसा मिला Jain Education International 81 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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