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कितने भरे हैं अंदर, कुछ न समाता । अद्भुत कुछ घटने वाला, घटने न पाता । शून्य करने का कुछ-कुछ श्रम तो उठाइए । शक्कर भरी हो चाहे, धूल भरी हो । सोने की सांकल हो या लोहा जड़ी हो । शुभाशुभ दोनों त्यागो, शुद्ध बन जाइए ।
साधना-पथ पर एक बार फिर से कदम बढ़ाए जाएं, एक बार पुनः अभिनिष्क्रमण हो । स्वयं को, चित्त को रिक्त करें । भीतर का पात्र रीता होने दें, बांस के भीतर का शून्य साकार होने दें, ताकि स्वर लहरियां ईजाद हो सकें ।
कुआं बाहर के पानी को स्वीकार नहीं करता । कुआं तो स्वयं जल स्रोतों से भरा हुआ है । जो बाहर का पानी स्वीकारे, वह कुआं नहीं, हौज होता है । हौज को बार-बार भरना पड़ता है। कुआं खुद लेता है, खुद उलीचता है, वह तो सदा लबालब रहता है। हम हौज को किनारे करें और कुएं के लिए प्रयत्न करें। ठीक है, जब तक कुआं न मिले, तब तक हौज हितकारी है, पर कुआं बने बगैर विस्तार नहीं, तृप्ति नहीं, आपूर्ति नहीं ।
शास्त्र पढ़ें, मनन करें और शास्त्र से मुक्त हो जाएं। उनके प्रति मोहित और आसक्त न हों । भीतर उतरें और भीतर का ज्ञान उजागर हो जाने दें । भीतर की ज्योति को मुखरित हो लेने दें। अगला सूत्र है
आयासात् सकलो दुःखी, नैनं जानाति कश्चन । अनेनैवोपदेशेन, धन्यः प्राप्नोति निर्वृत्तिम ॥
अष्टावक्र कहते हैं- प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इस तथ्य को कोई नहीं जानता इसी उपदेश को जानकर भाग्यवान लोग निर्वाण को प्राप्त होते हैं।
'प्रयास से सब लोग दुखी हैं, इसे कोई नहीं जानता ।' देखो, तुम कितने दुखी हो । ज्यों-ज्यों प्रयास करते हो, त्यों-त्यों आखिर दुखी ही होते हो । प्रयास करते हो स्वर्ग का, मगर हाथ लगता है नरक । चाहते तो हो फूल, मगर हाथ बंध जात है कांटों से। प्रयास आखिर दुख में परिणित हो जाते हैं ।
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प्रयास आखिर कब तक करते रहोगे ! सुबह से शाम तक, रात तक एक ह उधेड़-बुन जारी है । गरीब भी और अमीर भी, दोनों ही दौड़ रहे हैं। दोनों ही भागम-भाग में लगे हैं। दोनों एक ही प्रयास में हैं कि और पाऊं, कुछ और पालूं, कुछ और हो जाऊं, कहीं और हो जाऊं। हर कोई तृष्णा के पीछे बहा चला जा रहा है । क्यं किया जा रहा है, किसलिए किया जा रहा है, यह सोचने की फुरसत नहीं। सुबह
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