SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 116
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उठे, नहाए-धोए और चल पड़े धंधा करने, रात को 11 बजे आए, खाए-पीए सो गए। न दिन के खाने-पीने का पता, न घर वालों की खोज-खबर का ठिकाना, अब भला यह भी कोई जिंदगी है ? केवल पैसा-धंधा, यही हमारा लक्ष्य और पुरुषार्थ हो गया। नतीजा! नतीजा यह निकला कि अष्टावक्र को कहना पड़ा कि यह कोई नहीं जानता कि प्रयास स्वयं दुख का आधार है। अष्टावक्र ने दुख का एक कारण यह ढूंढ़ा है कि आदमी निरंतर प्रयास में जुटा हुआ है। आदमी ने परमात्मा तक को बाहर पाने का प्रयास शुरू कर दिया है। प्रयासों से न तो आत्मा मिलती है और न ही परमात्मा मिलता है। परमात्मा को जहां पाना चाहिए, वहां नहीं खोजा। जब भी खोजा, बाहर खोजा, कहीं और खोजा। यानी हमारा पहला कदम ही गलत पड़ गया। परमात्मा को पाने के लिए प्रयास नहीं करना पड़ता। परमात्मा को पाने के लिए तो वे आंखें चाहिए, जिनसे हम परमात्मा को पहचान सकें। परमात्मा कोई खोया थोड़े ही है। वह तो हमारी चेतना की परम शुद्ध, परम चैतन्य, परम साक्षी, सजग दशा का नाम है। हमारे अपने भीतर हमारा परमात्मा वास करता है। सूरज की एक किरण दुनिया भर में घूम-घूमकर सूरज को खोजने का प्रयास करती है। वह सूरज का पता लगाना चाहती है। वह हर किरण से पूछती है कि तुमने सूरज को कहीं देखा है? किरण का पहला कदम ही गलत उठ गया। अपने भीतर की आंख खोल लेती, तो वह जान लेती कि सूरज कहीं और नहीं, वरन् जहां से तुम्हारी उत्पत्ति हुई है, वही तुम्हारा सूरज है, वही मूल उत्स है। बगैर सूरज के तुम्हारा अस्तित्व ही नहीं है। ‘मोको कहां ढूंढ़े रे बंदे, मैं तो तेरे पास में'। सूफी संत-परंपरा में एक प्रसिद्ध महिला हुई है राबिया। एक बार राबिया अपनी झोंपड़ी के बाहर कुछ खोजने लगी। वह काफी देर ढूंढती रही, मगर अभीष्ट खोई वस्तु नहीं मिली। यह देखकर उसके साथी संतों ने मदद करनी चाही। उन्होंने राबिया से पूछा कि क्या खो गया है, जो इतनी देर से खोज रही है। राबिया ने कहा-मैं एक सुई ढूंढ़ रही हूं। साथी संतों ने भी ढूंढा, मगर सुई न मिली। उन्होंने पूछा-राबिया, सुई किस स्थान पर खोई थी? राबिया ने कहा-सुई तो झोपडी में खोई थी। यह सुनकर वे अपनी हंसी रोक न पाए। उन्होंने कहा-राबिया, तुम भी कितनी मूर्ख हो! जो वस्तु भीतर है, उसे तुम बाहर ढूंढ रही हो। राबिया ने कहा-तुम इतना कुछ जानते हो कि जो भीतर है, उसे बाहर खोजना व्यर्थ है, तो तुम उस सत्य को खोजने, बाहर क्यों भटक रहे हो? सत्य कहीं बाहर नहीं, वह तो भीतर के मंदिर में ही विराजमान है। प्रयास नहीं, पहचान चाहिए। आत्मदृष्टि चाहिए, वह आंख जो पहचान सके स्वयं को, स्वयं के सत्य को, शेप सव शांत हो जाए। आत्मलीनता और आत्मस्थिति 115 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy