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________________ ही मुक्ति का प्रथम और अंतिम द्वार है। अष्टावक्र पुनः सचेत करते हैं हरो यद्यपदेष्टा ते, हरिः कमलजोऽपि वा। तथापि न तव स्वास्थ्यं, सर्व विस्मरणादृते ॥ अष्टावक्र कहते हैं-यदि तेरा उपदेशक शिव, विष्णु अथवा ब्रह्मा भी है, तो भी सबके विस्मरण के बिना तुझे स्वास्थ्य, शांति और मुक्ति नहीं मिलेगी। अत्यंत गहन-गंभीर सूत्र है यह। पहले सूत्र का ही अगला चरण समझें इसे। बड़ा साहसी सूत्र है। जितना साहसी है, उतना ही यथार्थपरक। अष्टावक्र कहते हैं कि यदि तेरा इष्ट ब्रह्मा, विष्णु या महेश भी हो, तो भी उनको भुलाए बगैर तेरी मुक्ति संभव नहीं है। जब आपके कदम आत्मज्ञान की ओर उठ रहे हों, बोधि-संबोधि की ओर बढ़ रहे हों, स्वयं के प्रकाश से पूरित हो रहे हों, उस दौरान दुनिया का कोई देव भी आ जाए, तब भी उसे इनकार कर देना। जब तुम से मुलाकात हो तुम्हारी, तो तुम्हीं बचो तुम्हारे पास, शेष सब दरकिनार हो जाएं। पर आखिर 'पर' है, फिर चाहे वह कोई भी क्यों न हो। पर की आसक्ति भी आखिर आसक्ति ही है। आसक्ति तो आसक्ति है, मूर्छा तो मूर्छा है। चाहे वह आसक्ति पत्नी की हो, पति या परमात्मा की हो। एक राग संसार का राग होगा और दूसरा राग मुक्ति का राग होगा। जिससे तुमने आत्मज्ञान पा लिया, अपने सारे मार्ग प्रशस्त कर लिए, आखिरी पलों में तो उनको भी किनारे रख देना; उनको प्रणाम करना और आगे बढ़ जाना। अष्टावक्र ने पहले कहा था-अपने आपको देह से भिन्न समझ, देह का विस्मरण कर; फिर अपने मन का विस्मरण कर, फिर अपने अहंकार का विस्मरण कर; फिर तू अपने ज्ञान का विस्मरण कर और अंतिम चरण में तू अपने गुरु का भी विस्मरण कर। हिंदू धर्म में जब कोई व्यक्ति संन्यास लेता है, तो कहते हैं कि तू बोल कि तू अपने परिवार को, संसार को गंगा में विसर्जित करता है। जब तक व्यक्ति अपने संसार को गंगा में विसर्जित न कर पाए, तो उसका संन्यास घटित ही नहीं हुआ। अष्टावक्र उससे भी दो कदम आगे बढ़कर गुरु तक के त्याग और विस्मरण की बात कहते हैं। ___ कहते हैं-महावीर के पास एक परम विद्वान पहुंचा था, जिसका नाम था-इंद्रभूमि गौतम । महावीर से एक-दो संवाद होने पर ही उसे आत्मज्ञान घटित हो गया। उसने अपने गुरु को नहीं छोड़ा, यह मेरा गुरु, जिसने मुझे आत्मज्ञान का बोध कराया, इससे मैं कैसे विरक्त हो जाऊं? वह गौतम तीस वर्षों तक महावीर के साथ रहा, रागासक्त रहा। दुनिया भर के राग छोड़ आया, तो क्या हुआ, परमात्मा के, तीर्थंकर के राग में उलझ गया। 116 For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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