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महावीर के निर्वाण की वेला आई । महावीर ने गौतम को अपने पास बुलाया और कहा-यहां से सोलह मील दूर एक ब्राह्मण रहता है । तू उसे ज्ञान का उपदेश आ । भगवान की आज्ञा थी, सो चला गया । वह लौट रहा था, तो बीच रास्ते सुना कि भगवान का तो निर्वाण हो गया, भगवान ने देह का विसर्जन कर दिया । गौतम ने यह सोचा भी नहीं था कि भगवान मृत्यु के क्षणों में मुझको अलग करेंगे। दुनिया का प्रकांड पंडित आदमी, मीमांसा दर्शन का मूर्धन्य विद्वान रोने लगा । उसने लोगों से पूछा कि क्या भगवान ने जाने से पहले मुझे याद किया था? लोगों ने जवाब दिया-वे तुम्हें कैसे भूल सकते थे । उन्होंने जाने से पहले दो पंक्तियों का एक संदेश लिख छोड़ा है
तिणो हु सि अण्णवं महं किं पुण चिट्ठसि तीरमागओ । अभितर पारं गमित्तए, समयं गोयम मा पमाय ॥
महावीर ने गौतम से कहा- प्यारे गौतम, तू संपूर्ण महासागर को तो लांघ गया, अब किनारे आकर क्यों बैठा है? जल्दी कर और पार लग, एक क्षण का भी इसमें प्रमाद मत कर ।
तब एक वीतराग चेतना जाग पड़ी । अष्टावक्र ने सोचा, यह जनक भी ऐसा ही मोह कर सकता है, इसलिए ये वचन कहे। जब तक न मिले, तब तक गुरु का अर्थ, शास्त्र का अर्थ, लेकिन जब जान लिया मार्ग को तो तुम अपने दीपक खुद हो जाना। किसी और से पराश्रित होकर अपनी ज्योति को उसके अधीन म करना। ज्योति तुम्हारा स्वभाव है, तुम स्वयं ज्योतिर्मय बनो । औरों की कृपा-दृष्टि से, औरों की ज्योति के दान से कब तक अपने जीवन को चलाते रहोगे? आगे बढ़ें, पार लगें । सागर को लांघ गए हैं, तो अब किनारे से भी पार लग जाएं। केवल नदिया से ही नहीं, किनारों से भी पार लग जाएं। जन्म से भी, जीवन से भी, मृत्यु से भी, सबसे पार । बस, हों केवल साक्षी चैतन्य स्वरूप, ॐ अर्हम्-स्वरूप ।
नमस्कार ।
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