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________________ अष्टावक्र कहते हैं कि किया और अनकिया, कर्म और द्वंद्व कब-किसके शांत हुए हैं? यथार्थ तो यह है कि व्यक्ति का जीवन ही द्वंद्व के सहारे चलता है। व्यक्ति-विशेष का ही नहीं, वरन् संपूर्ण जगत का ही जीवन द्वंद्व मूलक है। द्वंद्व के आधार पर ही संसार की संरचना हुई है। अगर जीवन से द्वंद्व की धारा टूट जाए, निर्द्वन्द्वता का सूर्योदय हो जाए, तो तुम अपने आपको परमात्मा से भरा-पूरा पाओगे। जहां द्वंद्व है, वहीं संसार है और जहां निर्द्वन्द्वता है, वहीं मोक्ष है। द्वंद्व यानी जड़ और चेतन का मिश्रण; द्वंद्व यानी दाएं और बाएं का मिश्रण; द्वंद्व यानी लाभ और हानि का मिश्रण। अगर द्वंद्व गिर जाए, तो मन ही गिर जाएगा। द्वंद्व है, तो संसार के सारे कामकाज चल रहे हैं। आदमी अगर चलता है, तो दो पांवों के सहारे चलता हैं, दोनों पांवों का संतुलन ही द्वंद्व है। जैसे पक्षी दो डैनों के सहारे आकाश में उड़ता है, वैसे ही इन्सान भी द्वंद्व के सहारे संसार में जीता है। जगत की व्यवस्था द्वंद्व पर ही आधारित है, मोक्ष द्वंद्व से, जगत से उपरत हो जाना है। मनुष्य के मन में द्वंद्व पलता है, इसीलिए एक मनुष्य दिन में सौ-सौ बार स्वर्ग और सौ-सौ बार नरक की यात्राएं करता है। आप जितनी देर प्रेम और क्षमा में, दया और करुणा में, विश्व-मैत्री और शांति में जीते हैं, उतनी ही देर आप स्वर्ग में जी रहे हैं। जितनी देर आप क्रोध और कषाय में, काम और कामना में जीते हैं, उतनी ही देर आप नरक की आग में झुलस रहे हैं। दो मिनट में ही आदमी मुस्कराने लगता है और अगले ही पल वह चीखने-चिल्लाने लगता है। वह पल में प्रेत और पल में देव हो उठता है। आदमी के मन में पलने वाला द्वंद्व ही उसे प्रेतात्मा और देवात्मा के झूले में झुलाता है। जहां पर आदमी का द्वंद्व गिर गया, वहीं निर्द्वन्द्वता है और जहां पर निर्द्वन्द्वता है, वहीं पर निर्वाण और मोक्ष है। अष्टावक्र सचेत करते हैं, क्योंकि वे मनुष्य के मन की कमजोरी जानते हैं। वे कहते हैं कि 'इस प्रकार निश्चित जानकर' यानी सुनने से काम न चलेगा, किताबों को पढ़ लेने से काम नहीं चलेगा। काम निश्चयपूर्वक जान लेने से ही चलेगा, तभी सही मर्म हाथ लगेगा। __ अष्टावक्र कहते हैं कि इस संसार में निर्वेद और उदासीन होकर अव्रती और त्यागपरायण बनो। 'उदासीनता' का अर्थ चेहरे को मुरझाए फूल की तरह लटकाना नहीं है। उदासीनता का अर्थ होता है-उत् + आसीन, यानी संसार से अपने आपको ऊपर उठा लेना। कीचड़ में पैदा हुआ कीड़ा कीचड़ में धंसता चला जाता है, जबकि कीचड़ में गिरा बीज कीचड़ से उदासीन हो जाता है, कमल बन कर खिल जाता हैं। कीचड़ में जन्म लेकर एक व्यक्ति उससे उदासीन हो जाता है, वहीं दूसरा व्यक्ति उससे राग कर बैठता है, आसक्त हो जाता है। जहां आसक्ति है, वहीं संसार है, वहीं दलदल है और जहां उदासीन स्थिति है, वहीं पर निर्वाण और मोक्ष है। 73 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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