SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सब धन धूल के समान है, संतोष-धन के सामने। धन का मूल्य होगा, पर संतोष का धन वह धन है, जो आदमी को सदा धनवान बनाए रखता है। पैसा-टका तो आता-जाता रहता है, संतोषी सदा सुखी। साईं इतना दीजिये, जामें कुटुब समाय। मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय ॥ इतना प्राप्त अवश्य हो जाए कि कुटुंब भी पल जाए, मेरी भी पूर्ति हो जाए और गृह-द्वार पर चला आए कोई साधु, कोई अतिथि, वह भी कुछ पाकर जाए, बस, इतना चाहिए। शेष तृप्ति, आनंद! इसी में है सिद्धत्व की सुवास, निर्द्वद्वता का आनंद! अगला सूत्र है वासना एव संसार, इति सर्वा विमुंच ताः। तत्त्यागो वासनात्यागात् स्थितिरद्य यथा तथा ॥ अर्थात वासना ही संसार है, इसलिए वासना का त्याग कर। वासना के त्याग से ही संसार का त्याग है। अब जहां चाहे, वहां रह। अष्टावक्र कहते हैं कि तुझे जहां रहना है, जैसा जीना है, वैसा जी, वैसा रह! केवल इतना-सा जान ले कि वासना ही संसार है। अगर तू इस मायावी संसार से मुक्ति चाहता है, तो केवल वासना का त्याग कर । वासना के त्याग में ही संसार का त्याग समाया है। ___ लोग संसार के त्याग की पहल करते हैं। वासना छूट नहीं पाती। केवल संसार को ही छोड़ने के प्रयास चलते हैं। जब तक वासना न छूटी, तब तक संसार का त्याग हुआ ही कहां! बाहर त्याग हो गया, भीतर संसार बसा रहा। अष्टावक्र मनोविकारों के त्याग की बात कर रहे हैं। मन में बसी हुई वासना से उपरत होने की सलाह देते हैं। सार बात इतनी सी जानें कि वासना ही संसार है, वासना से मुक्त होना ही निर्वाण है, वाण यानी वासना और निर्वाण यानी वासना रहित हो जाना। अष्टावक्र आपको, हमको, सबको निर्वाण की दृष्टि दे रहे हैं कि वासना के त्याग में ही संसार का त्याग समाहित है। यदि तूने सच्चे अर्थों में त्याग कर दिया, तो संसार स्वयं तिरोहित हो जाएगा और इस अवस्था को प्राप्त कर लेने पर फिर तू चाहे जहां रह, चाहे जैसी स्थितियों में रह, कोई अंतर नहीं पड़ता। विदेह मुक्ति की इस अवस्था में शुकदेव और जनक की तरह तू भी सभी कर्म करते हुए कर्म के फल से मुक्त रहेगा। आज बस इतना ही । 77 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy