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________________ सारा द्वापर ही उलझ गया, नारी के बिखरे बालों में । ज्योति तो कम, पर धुआं बहुत, उठता था जली मशालों में । यह मत सोचो कि महावीर अथवा राम अथवा कृष्ण का युग ही श्रेष्ठ था । यह उनकी इबादत का वक्त नहीं हैं । अब तो खुद महावीर होने ही जरूरत है; राम-राम रटने की जरूरत नहीं है। जरूरत इस बात की है कि हम जीवन में मर्यादाओं को जीकर राम को आत्मसात करें, कृष्ण का कर्मयोग जीवन में उतारें। वह आदमी सच्चा मोक्ष पाने का अधिकारी होता है, जो यथाप्राप्य में शांत और संतुष्ट रहता हैं। जो कल बीत चुका है, उसके बारे में सोचने की जरूरत नहीं है । जो कल अभी तक आया ही नहीं, उसके बारे में चिंतित होने की कोई आवश्यकता नहीं है । ऐसा बोध जो आचरित कर लेता है, सदा-सदा प्रसन्न और परितृप्त रहता है । 1 द्वंद्व चित्त का स्वभाव है । द्वंद्व के पार लग जाना ही, द्वंद्वातीत हो जाना ही सदाबहार आनंद को जीना है । अष्टावक्र गीता का एक ही सार है, एक ही लक्ष्य है-आदमी द्वंद्व के पार लगे, द्वंद्वातीत हो जाए। तुम द्वंद्व के निमित्तों के प्रति उदासीन हो जाओ। उसमें निर्लिप्त हो जाओ। सुख-दुख तो रात - दिन की तरह आते और बदलते रहते हैं। तुम ऐसे आकाश में जाओ कि रात-दिन तुम्हारे पास से गुजरें, पर तुम न रात हुए, न दिन । सुख-दुख के निमित्त से न सुखी हुए और न दुखी । प्रकृति जो तुम्हें दे दे, उसी को बड़े प्रेम से स्वीकार कर लो। दुविधा आए, तो भी उसमें मुस्कान और सुविधा आई, तो भी आनंदित । यथाप्राप्त वस्तुओं में संतोष करो। संतोष करो यानी संपूर्ण तुष्ट रहो, तृप्त रहो । पात्र आज भरा हुआ है, तो भी तृप्त, रीता है, तो भी तृप्त । ध्यान किया, कुछ परिणाम आया, तो भी तृप्त; न आया तो भी संतुष्ट । प्रार्थना का परिणाम मिला, तो भी और न मिला तो भी, न कोई शिकवा न शिकायत ! यथाप्राप्त के, यथास्थिति में, यथानियति में हम तो सदा आनंदित । संतोष करने वाला ही सिद्धि को प्राप्त होता है । सिद्धत्व मिला ही उसी को है, जो सदा तुष्ट है, तृप्त है, संतोष में सिद्धि समाई है। सच तो यह है कि संतोष स्वयं सिद्धि है। संतोष स्वयं समाधि है । समाधि का ही व्यावहारिक और प्रकट रूप संतोष है। Jain Education International गोधन गजधन बाजधन, और रतनधन खानि । जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समानि ॥ 76 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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