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________________ कहीं छिटक गया है। मनुष्य को बाहर का आकाश ही दिखाई देता है। उसका भीतर का आकाश न जाने कैसे आच्छादित हो गया है। उसके पास उसका शून्य आकाश न बचा। जिस दिन आदमी को यह शून्य आकाश उपलब्ध हो जाता है, उस दिन वह उस अनंत को उपलब्ध हो जाता है, जिसके सामने दुनिया भर की संपदाएं तुच्छ और नगण्य होती हैं। कहते हैं-एक बड़े पवित्र और आत्मबोधि को उपलब्ध संत हुए, जिनका नाम था-बालशेम । बालशेम प्रतिदिन पौ फटने से पहले झील किनारे जाते, वहां जाकर वे झील को देखते। कुछ न करते, जल में उठने वाली तरंगों को शांतभाव से निहारा करते। मानो लहरों को देखना ही उनके जीवन की अंतर्दृष्टि हो। एक पहरेदार उनको रोज सवेरे अंधेरे-अंधेरे नदी की तरफ जाते देखता। वह सशंकित था। एक दिन पहरेदार ने बालशेम का पीछा किया। पहरेदार आश्चर्यचकित था कि संत नदी किनारे जाकर लहरों को एकटक क्यों देखा करते हैं? आखिर पहरेदार से रहा नहीं गया। उसने बालशेम को रोका और पूछा-महानुभाव, आप कौन हैं ? बालशेम इस प्रश्न से चौंके। उन्होंने कहा-जो प्रश्न तुमने मुझसे किया है, वही प्रश्न तो मैं अपने आप से पूछा करता हूं। मैं जवाब दूं, इससे पहले क्यों न तुम अपना परिचय दो। उसने कहा-मैं तो पहरेदार हूं। बालशेम मुस्कराए और कहा-मैं भी अपना नाम ढूंढ़ रहा था, पहरेदार से बेहतरीन नाम और क्या हो सकता है। भाई, मैं भी पहरेदार हूं। बालशेम का जवाब पाकर पहरेदार और उत्सुक हो उठा। उसे समझते देर न लगी कि वे सामान्य संत नहीं हैं। पहरेदार ने कहा-प्रभु, मैं आपकी बात को पूरी तरह नहीं समझ पाया। मुझे विस्तार से समझाएं। बालशेम ने कहा-तुम पहरा देते हो, मैं भी पहरा देता हूं। तुम मकान के बाहर गुजरने वालों पर नजर रखते हो और मैं मकान के भीतर रहने वालों का पहरा देता हूं। पहरेदार ने कहा-ठीक है, आप भी पहरा देते होंगे, पर इसके बदले में आपको मिलता क्या है, क्योंकि मुझे तो अपने इस काम का मेहनताना मिलता है। बालशेम ने कहा-मेरे द्वारा इस पहरेदारी के बदले में जो मेहनताना, जो पुरस्कार मिलता है, उसके आगे तो दुनिया भर की सारी संपदाएं नगण्य और तुच्छ हैं। मैं उस अनंत संपदा का स्वामी बन रहा हूं, जिसके स्वामी कभी कोई जनक बने, कभी कोई भरत बने। पहरेदार ने पूछा-क्या मैं भी यह पुरस्कार पा सकता हूं? बालशेम ने कहा-अवश्य, हर कोई इस अनंत संपदा का स्वामी हो सकता है। तुम तो पहरेदार हो ही। तुम्हें तो बस दिशा-परिवर्तन भर की जरूरत है। तब तुम जिस चेतना के स्वामी बनोगे, उससे तुम कृतपुण्य हो जाओगे; आनंद की रिमझिम बौछारें तुम पर बरसेंगी। 57 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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