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न कोई कुरूप है; न कोई ऊंचा, न कोई नीचा है। न विकार है, न निर्विकार; न सुवास है न स्पर्श । देह-धर्म की प्रकृति स्वतः विलीन हो गई। मैं जीवन-जगत् की इन सारी प्रकृतियों से अलग, मैं तो एक चैतन्य आत्मा हूं। योगी आनंदघन ने बहुत प्यारा गीत गुनगुनाया था
अवधु नाम हमारो राखे, सो परम महारस चाखे ॥ नहीं हम पुरुषा नहीं हम नारी, वर्णन भांति हमारी। नहीं हम जाति नहीं हम पांति नहीं हम लघु नहीं भारी ॥ नहीं हम ताते नहीं हम सीरे, नहीं दीरघ नहीं छोटा। नहीं हम भाई नहीं हम भगिनी, नहीं हम वाप, न बेटा ॥ नहीं हम मनसा, नहीं हम शब्दा, नहीं हम तन की धरणी। नहीं हम भेख, भेखधर नाही, नहीं हम कर्त्ता-करणी। नहीं हम परसन नहीं हम दर्शन, रस न गंध कछु नाहीं।
आनंदघन चेतनमय मूरति,
सेवक जन बली जाहीं ॥ आनंदघन कहते हैं कि जो मेरा वास्तविक नाम ढूंढ़ लेगा, वही व्यक्ति असली महारस का रसास्वादन कर पाएगा। यहां माता-पिता द्वारा आरोपित नाम की नहीं, 'गुमनाम' के असली नाम की तलाश है। वे कहते हैं कि न तो मैं पुरुष हूं, न मैं नारी हूं। ये सारे आकार तो शरीर के हैं। जब मैं शरीर ही नहीं रहा, तो फिर मैं पुरुष और नारी कहां से हो गया! नहीं जांति, नहीं पांति; न साधु, न साधक; नहीं हम लघु, नहीं हम भारी; न ही मैं छोटा, न ही बड़ा हूं। मैं तो इस सबसे भिन्न हूं।
आनंदघन ने कहा-न मैं भाई हूं, न बहिन हूं; न मैं बाप हूं, न मैं वेटा हूं; न मैं गरम हूं, न ठंडा हूं; न मैं शब्द हूं, न मन हूं; न मैं कर्ता हूं, न मैं कारण हूं और
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