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________________ बोध हुआ, तो जाना कि मैं 'साक्षी का - बोध' भर हूं। अब तक मूर्च्छा के कारण भटकता रहा। अब बोध हुआ, तो मूर्च्छा ऐसे बिखर गई जैसे बरसों से भेड़ों के टोले में रह रहे सिंह को अपने सिंहत्व का बोध होने पर उसके द्वारा की गई गर्जना से भेड़ें तितर-बितर हो जाती हैं। सिंह निजता को उपलब्ध हुआ; एक मुमुक्षु आत्मा अपने आत्मज्ञान को उपलब्ध हुई । मोह, माया, विकृतियां, संस्कार क्षण भर में हवा हो गए। मूर्च्छा टूटी, तो जाना कि यह परिवार, यह जमीन, यह जायदाद, जिसको मैं अपना समझता रहा, एक ख्वाब निकला, एक सपना साबित हुआ। सपने कितने अपने होते हैं। मुझे याद है - एक सम्राट का बेटा बीमार हो गया। राजवैद्यों ने जवाब दे दिया । राजा, रानियां, वैद्य - सभी उसके इर्द-गिर्द बैठे थे। सोचते-सोचते राजा की आंख लग गई। नींद में एक सपना देखा कि बहुत दूर सोने से बने सात-सात राजमहल हैं; सात राजरानियां हैं; सात ही राजकुमार हैं। सारे राजपुत्र युद्ध-विद्या में इतने पारंगत हो गए कि एक अकेला पुत्र शत्रु की सेना को परास्त कर सकता था । पिता प्रसन्न था कि उसके सभी सातों पुत्र सुयोग्य, चतुर और निष्णात थे । उसने अपने बेटों को गले लगा लिया, तभी राजमाता चिल्लाई - युवराज मर गया। इसी चीख के साथ सपना टूट गया । सम्राट अनमने भाव से इधर-उधर टहलने लगा । राजमाता ने सोचा- बेटा चला गया और बाप की आंख में एक भी आंसू नहीं। मां ने कहा- बेटा, देख तेरा बेटा चला गया है। तू अपने लिए नहीं तो लोगों के लिए ही सही, दो आंसू दुलका ले। राजा ने कहा- मां, तुम तो रोने की बात कह रही हो, मुझे तो विस्मय हो रहा है। बताओ मैं किस-किस राजकुमार के लिए रोऊं ? उन सात राजकुमारों के लिए या इस एक राजकुमार के लिए ? मां ने पूछा- बेटा, क्या तूने कोई सपना तो नहीं देखा? राजा ने कहा- हां, मैंने एक सपना देखा है 1 सम्राट की बात सुनकर मां को क्रोध आ गया। उसने कहा- बेवकूफ, वह तो सपना था और यह हकीकत है। सम्राट ने जवाब दिया- मां, कल तक यह हकीकत थी, मगर आज यह भी सपना है । वह बंद आंखों का सपना था और यह खुली आंखों का सपना है। राजा की मूर्च्छा टूट चुकी थी । वह संन्यास के मार्ग पर बढ़ चला । मोह-मूर्च्छा उससे वैसे ही छूट गए, जैसे किसी के हाथ से कांच का बर्तन । जनक कहते हैं कि मैं प्रकृति से परे हूं; मैं अब कोई प्रकृति नहीं हूं । प्रकृति शरीर की होती है; प्रकृति मन और विचारों की होती है। प्रकृति यानी जो परिवर्तनशील है। मैं तो अपरिवर्तनीय हूं। मेरे लिए न कोई छोटा, न कोई बड़ा है; न कोई सुंदर, Jain Education International 29 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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