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________________ आहारचर्या का समय आया। अंगुलीमाल ने भगवान से कहा-भंते, आहारचर्या का समय हो गया है। यदि आपकी अनुमति हो, तो मैं आहार ले आऊं। बुद्ध ने उसे देखा और कहा-तुम्हें अनुमति है, मगर स्मरण रहे कि आज का दिन तुम्हारे लिए मुनित्व की कसौटी का दिन है। जिस स्थिति में तुमने इस विहार में प्रवेश किया था, वह बरकरार रहे; काया चलती रहे, मगर तुम स्थितप्रज्ञ बने रहना। ___अंगुलीमाल ने आहारचर्या के लिए प्रस्थान किया। सारे शहर में बात फैल चुकी थी। लोगों ने देखा कि भिक्षु अंगुलीमाल पूर्णतः निहत्था है। जब अंगुलीमाल बीच चौगान में पहुंचा, तो लोगों ने उस पर पत्थरों की बारिश कर दी। उसके शरीर से खून बहने लगा, मगर उसने नजर उठाकर भी लोगों की तरफ नहीं देखा। वह अर्द्ध-मूर्छित होकर रास्ते में गिर पड़ा। अंगुलीमाल ने आंखें खोलीं, तो उसने सिर पर किसी के कोमल हाथों का स्पर्श पाया। बुद्ध उसके पास बैठे उसके सिर को सहला रहे थे। बुद्ध ने पूछा-कहो वत्स, इस समय तुम्हारे मन में क्या चल रहा है? अंगुलीमाल ने कहा-भंते, आप और मुझसे पूछते हैं! आप तो सब कुछ जानते हैं। मैं यह सोच रहा हूं प्रभु, कि ये लोग कितने अच्छे हैं, जिन्होंने मुझे अपने जीवन भर के किए गए सारे पापों को धोने का इतनी जल्दी अवसर दे दिया। मेरे मन में इन सब लोगों के प्रति क्षमा, प्रेम और करुणा की भावना है। यह कहते-कहते ही अंगुलीमाल की सांसें रुक गईं। वह बुद्ध की गोद से नीचे लुढ़क गया। बुद्ध खड़े हुए और उसे प्रणाम किया। बुद्ध ने कहा-अंगुलीमाल, तुमने भले ही डाकू का जीवन जीआ, मगर तुम्हारी मृत्यु अरिहन्त-सी हुई। ___आत्मज्ञान की अपूर्व घटना घटते ही जीवन भर के सारे पाप अपने आप दूर हो जाते हैं। ज्यों-ज्यों प्याज की परतें उतारते जाएं, त्यों-त्यों वह लघु रूप ग्रहण करता जाएगा और अंततः शून्य शेष रहेगा। ध्यान भी ऐसा ही एक शून्य है, जो परत-दर-परत हटने के बाद प्रकट होता है। आत्मज्ञान उपलब्ध हआ, तो मैंने जाना कि मैं निर्दोष ही नहीं, शांत भी हूं। अब तक केवल अशांति-ही-अशांति अनुभव की। मन में तो जैसे कोलाहल मचा हुआ है, शोर-ही-शोर। पत्नी नहीं थी, तो अशांति। पत्नी आ गई, तो अशांति। बेटा नहीं था, तो अशांति । धन नहीं था, तो अशांति। दोनों मिल गए, तो भी अशांति। मन के पास अशांति का अनुभव करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है। किसी भी चक्र में संपूर्ण चक्र गतिशील रहता है, मगर उसकी धुरी स्थिर बनी रहती है। मनुष्य का मन भी चक्र के समान है। सारा कोलाहल, सारा शोर मन की परिधि पर है। मन की धुरी, मन का केंद्र तो सदा-सदा शांत रहता है। जो इस रहस्य से रू-ब-रू हो गया, वही कह पाता है कि मैं शांत हूं। 28 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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