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________________ न ही मैं वेश हूं, न वेश को धारण करने वाला। मैं रस, स्पर्श, दर्शन से भिन्न कोई और हूं। इसी 'और' को आज मैंने पहचाना है। ___ मैं अब तक मोह, माया, प्रवंचना और आसक्ति से ठगा जाता रहा हूं। अपनों के लिए औरों को ठगा, मगर अपनों ने ही मुझे ठग लिया। ठगा भी बड़े सलीके से। ममता-बुद्धि से ऐसा लुटा कि कह भी नहीं पाता कि मैं लुट गया। यह अहसास, यह आत्मानुभूति तब हुई, जब मैं आत्मबोध को उपलब्ध हुआ। अब तो मैं शांत, निरंजन, बोध हूं; प्रकृति से परे हूं। जिस साधक को यह अनुभूति हो गई वह आत्मस्थिति में स्थित है, आत्मस्वरूप है। जनक कहते हैं कि मुझे तो अब अपने में और विश्व में कहीं कोई फर्क नजर ही नहीं आता। इस संपूर्ण विश्व में भी मैं मुझे ही देख रहा हूं। द्वैत मिट गया, भेद जाता रहा। सब अद्वैत हो गया, एक हो गया। मुझे तो सारा संसार अपना ही लगता है। या तो सारा संसार मेरा है अथवा कहीं कुछ नहीं। सारा संसार आत्मा से ही निष्पन्न हुआ है। जो भिन्नता दिखाई देती है, वह बिल्कुल वैसी ही है, जैसे जल से तरंग भी पैदा होती है, फेन भी पैदा होता है और बुदबुदे भी उठते हैं, पर अलग-अलग रूप नजर आने के बावजूद जल से भिन्न नहीं हैं, आत्म-अज्ञान के कारण ही संसार प्रतिभाषित होता है, आत्मा का ज्ञान होने पर संसार कहां भासता है, मैं तो प्रकाश स्वरूप हूं। प्रकाश मेरा निज स्वरूप है। यह संसार आत्मा के प्रकाश से ही आलोकित है। ___मैं ज्ञान, पुरुषार्थ और आनंद का संगम हूं। जो मैंने अपना स्वरूप जाना है। 'अहो अहं नमो मह्यं' मैं आश्चर्यमय हूं। मुझको ही मेरा नमस्कार है। आज तो ब्रह्मर्षि, इच्छा होती है कि मैं अपने ही चरण चूम लूं। अपने आपको ही बलिहारी है। मैं कृतकृत्य हुआ। मैं अविनाशी; ब्रह्मा से लेकर तृण पर्यन्त सारे जगत् का भी नाश हो जाए, तब भी मेरा नाश नहीं है। अहो अहं नमो मह्यं, विनाशी यस्य नास्ति मे। ब्रह्मादिस्तम्ब पर्यन्तं, जगन्नाशेपि तिष्ठतः ॥ जनक कहते हैं- 'अहो अहं नमो मां'। जब संपूर्ण सत्ता का, अस्तित्व का आधार मैं आत्मा ही हूं, तो मैं और किसे नमस्कार करूं। मेरा मुझको ही नमस्कार है। आत्मा ही ब्रह्म है, वही विष्णु और वही महेश। आत्मा को किसी ने नहीं बनाया, वरन् सब इसी से बने हैं। जगत् तो नाशवान् है। जिसका निर्माण हुआ है, उसका विलय तो होगा ही। इन्द्र-देवेन्द्र भी अपने रूप से स्खलित और च्युत होंगे ही। मेरा कोई विलय नहीं 31 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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