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________________ गए हैं। वे अहोभाव से, कृतज्ञता से अभिभूत हैं। आंखों में उनके आर्द्रता है। हृदय में नीरवता और आनंद-दशा है। वे बोध-दशा में निमग्न हैं। उनके भीतर जो कुछ हुआ, कैसे हुआ, यह वे भी नहीं जानते। जो हुआ गुरु की सन्निधि से हुआ। पत्ता भी नहीं हिला और विस्फोट हो गया। घाव भी नहीं हुआ और शल्य-क्रिया पूर्ण हो गई। मोह-माया से वैसे ही मुक्त हो गए, मानो किसी ने पुराने कपड़े उतार दिए हों, सांप से केंचुली उतार दी हो। राजर्षि तो आत्म-विभोर दशा में हैं। आज के संदेश अष्टावक्र के संदेश नहीं हैं, वे तो जनक की प्राप्त की गई अनुभूतियां हैं। इन अनुभूतियों के बाद जो शब्द फूटे, जो उन्मनी अवस्था उभरी, ये सूत्र उन्हीं के संकेत हैं। आज का सूत्र है अहो निरंजनः शान्तो, बोधोहं प्रकृतेः परः। एतावन्तमहं कालं, मोहेनैव विडंबितः ॥ जनक कहते हैं-अहो मैं निरंजन हूं, निर्दोष हूं, शांत हूं, बोध हूं, प्रकृति से परे हूं, किंतु आश्चर्य है कि मैं इतने काल तक मोह द्वारा ठगा गया। एक मुमुक्षु आत्मा को जब अपना आत्मबोध होता है, आत्मबोध की निर्मल निर्झरिणी उमड़ती है, तो वह उसमें नहाकर खिल उठती है। तब आदमी के जन्म-जन्मांतर के संस्कार क्षण में तिरोहित हो जाते हैं। इसी आनंद में भीगकर एक मुमुक्षु आत्मा कह रही है कि मैं निर्दोष, बोध और शांत हूं; मैं प्रकृति से भी परे हूं। एक आश्चर्य भी है कि मैं लगातार मोह के द्वारा ठगा जाता रहा। जब तक अज्ञान था, अबोध-दशा थी, तब तक तो जानते थे मैं अशांत हूं, दोष और पापों से भरा हूं। तब तक लगता था कि मैं शरीरधर्मा हूं, लेकिन जैसे ही ज्ञान का प्रकाश फूटा, सारा अंधकार कहीं दुबक गया। अंधकार कितना भी सघन क्यों न हो, प्रकाश के आगे वह टिक नहीं पाता। जैसे-जैसे आदमी ज्ञान के प्रकाश के साथ आगे बढ़ता है, जीवन का तमस् अपने आप दूर होता चला जाता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि एक ज्ञानी आदमी अपने ज्ञान से जान रहा है कि मैं तो पूरी तरह शांत, पवित्र और शुद्ध रहा, मगर मोह की उलझन मुझे उलझाए रही। माया की गांठ ही कुछ ऐसी थी, आसक्ति के बंधन ही कुछ ऐसे थे कि मैं अपने आपको नहीं जान पाया। जाना, अब तक औरों को जाना। उस जानने को जानना कैसे कहें, जहां व्यक्ति सबको जानते हुए भी स्वयं को न जान पाए। स्वयं ही अनजाना, अनदेखा है। हम जो भी हैं, जैसे भी हैं, अपने आपको देखें, अपने आपसे पलायन न करें। अगर लगता है कि भीतर पशु बैठा है, तो उसको पहचानें और लगता है कि भीतर इनसान है, ईश्वर है, तो उसे भी पहचानें। 25 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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