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________________ फूलों पर मंडरा रहा है। हिरण संगीत पर मोहित हो रहा है। पतंगा दीये पर मरा जा रहा है। हाथी हथिनी के पीछे पागल हुआ जा रहा है। विषयों में बड़ा रस है। इसलिए रस है, क्योंकि हर विषय मनुष्य को मूर्छा की ओर ले जाता है। मूर्च्छित व्यक्ति को वही चीज अच्छी लगती है, जो उसे और मूर्छा में ले जाए। जैसे उल्लू को अंधेरा रास आता है, ऐसे ही मूर्च्छित व्यक्ति को विषय रास आते हैं। विषय विष है। विषैले जानवर उसी चीज को पाकर खुशहाल हैं, जिसमें उनके विष की बढ़ोतरी होती हो। शराब, सैक्स और संगीत-तीनों ही आदमी को मूर्छा की ओर ले जाते हैं। जिसकी मूर्छा टूट गई, उसे विषयों की खुमारी लुभा नहीं सकती। आत्म-रमण में रमने वाले भर्तृहरि जब तक विषयों में थे, तब-तक आकंठ डूबे हुए थे, और जब मूर्छा टूटी, विरक्ति जगी, तो फिर विषय उन्हें वैसे ही प्रभावित न कर पाए, जैसे आम के मीठे फलों को खाने के बाद कोई निम्बोली खाना पसंद न करे। आत्मज्ञानी निर्विषय रहता है। हां, अगर आत्मज्ञान होने के बावजूद अगर नसीब में ही लिखा है नीम के पत्तों को खाने का, तो बात अलग है। पुरुषार्थशील मनुष्य को भी कभी-कभी अपनी, कर्मधारा के अधीन हो जाना पड़ता है। हर्मन हेस ने उपन्यास लिखा-सिद्धार्थ । इस उपन्यास का नायक कितने उतार-चढ़ाव देखता है! मुक्ति की गहरी मुमुक्षा होने के बावजूद वह अपने मन की स्थिति और मनोविज्ञान में ही उलझ जाता है। सिद्धार्थ ब्राह्मण-पुत्र रहा, संत था, संसार में लौट आया, संतान हुई, नदिया के किनारे बैठे रात-दिन लहरों को निहारता, अपनी और संसार की विचित्रता के बारे में देखता। ओह! मनुष्य का मन कितना अनोखा है। आखिर वह द्वंद्व के पार लगता है। सही अर्थों में सिद्धार्थ के भाव का उसके जीवन में सूर्योदय होता है। कल्पना करो उस आर्द्र कुमार की, जिसने अपना पूर्व जन्म जाना, जाति स्मरण ज्ञान हुआ, बड़े वैराग्य के साथ संन्यास अंगीकार किया, लेकिन कर्म की रेख पर मेख नहीं मारी जा सकती। गृहस्थ में लौट आया। पुनः संन्यास के लिए कृत संकल्प हुआ, तो उसके अपने ही बेटे ने उसके पांव को रेशम के धागे से बांध दिया। और जब आगे जा कर परमज्ञान के निर्झर से आह्लादित हुआ, तो उसने कहा कि हाथी द्वारा लोहे की जंजीरों को तोड़ना आसान है, किंतु विषय और मोह-मूर्छा के रेशम के धागों को तोड़ना दुष्कर है। विषयों के दलदल का स्वाद ही ऐसा है। न जागर्ति न निद्राति, नोन्मीलति न मीलति। अहो परंदशा क्वापि, वर्तते मुक्त-चेतसः ॥ 124 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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