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________________ अर्थात मैं अपनी एक अविजित आत्मा को, अविजित मन को, अविजित कषाय और इंद्रियों को जीत कर यथा न्यायपूर्वक विचरण करता हूं, जीता हूं। आत्मज्ञान और योग का फल उसे मिलता है, जो यह तीसरी अनिवार्यता और पूरी करता है कि सदा एकत्व में रमण करता है। मुक्ति को वही व्यक्ति जी पाता है, जिसे अपने एकत्व का बोध है । एकत्व-बोध का अर्थ है कि या तो सारा संसार मेरा है अथवा कहीं कुछ नहीं, कोई मेरा नहीं; मैं केवल विश्व का साक्षी भर हूं। एकत्व-बोध का अर्थ गुफाओं में अकेले चले जाना नहीं है। अष्टावक्र गुफावास के प्रेरक नहीं हैं। वे हमें ऐसा संन्यासी बनाना चाहते हैं, जो साम्राज्य का संचालन भी करे। वे तुम्हें ऐसा गृहस्थ बनाना चाहते हैं, जिसके कदम वीतरागता की ओर हों, अनासक्ति की ओर हों। केवल अकेले हो जाने से एकत्व बोध नहीं सधता। गुफा में चले जाने से एकाकीपन आत्मसात नहीं होगा। तुम गुफा में भी चले गए, तो मन में तुम्हारे भीड़ बसी है। कोई पत्नी और बच्चों को छोड़ देने भर से एकाकीपन थोड़े ही सधता है। बाहर-बाहर सब छूट जाता है, लेकिन भीतर-भीतर सबका राग पलता रहता है। अष्टावक्र तुम्हें वह एकत्व-बोध देना चाहते हैं, जो भीड़ में भी गुफा का रूप साकार कर दे, सबके बीच, मगर स्वयं के एकत्व का सतत बोध ! ज्ञान और योग का फल वह व्यक्ति अपने जीवन में हर-हमेश जीता है, जो सदा तृप्त है, स्वच्छ-इंद्रिय है और एकत्व-बोध के आनंद से आह्लादित है। जिन्हें मुक्ति की कामना है, वे अष्टावक्र के इन तीन सूत्रों का खूब मनन करें, अपने ध्यान में लें, इन्हें जिएं और मस्त रहें। अगला सूत्र न जातु विषयः कोऽपि, स्वारामं हर्षयन्त्यमी। सल्लकी पल्लव प्रीतमिवेभनिम्ब पल्लवाः ॥ अर्थात जैसे सल्लकी के पत्तों से प्रसन्न हुए हाथी को नीम के पत्ते हर्षित नहीं करते हैं, वैसे ही ये विषय आत्मा में रमण करने वाले को कभी हर्षित नहीं करते। जिसने चखे हैं सल्लकी के पत्ते, वह नीम के पत्तों में कैसे हर्षित होगा! जिसने पीया है माधुर्य, वह आक और धतूरे के रस के प्रति क्यों लालायित होगा। जब तक हाथी को न मिले खाने को सल्लकी के मीठे पत्ते, तो नीम के कड़वे पत्तों में ही रस लेना पड़ता है। जब तक आत्म-रमण न हुआ, आत्म-बोध न हुआ, आदमी स्वाभाविक है कि विषयों में ही रस लेगा। किसी आत्मज्ञानी से पूछो विषयों के बारे में, वह उसके प्रति उपेक्षा दर्शाएगा। किसी मनचले युवक से पूछो, तो वह कहेगा सच में बड़ा मजा आता है। संसार में जिसे रस है, उसे विषयों में रस है। लोगों से पूछो, तो हर कोई साफ-साफ कहेगा कि विषयों में बड़ा रस है। भौंरा 123 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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