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आंखों का धर्म है, किंतु क्या देखे और किसे देखने से बचें, इस पर भी तो ध्यान दो। सुनना कान का धर्म है, किंतु क्या सुने और किन बातों को सुनने से परहेज रखें, इस पर अपनी बुद्धि का इस्तेमाल करो । बोलना वाणी का कर्म है, किंतु मन में आया सो बोल दिया, मन में आया सो खा लिया। तो इसका अर्थ यह हुआ कि हमारा अपनी जबान पर कोई लगाम नहीं है। इंद्रियों का स्वस्थ होना आवश्यक है। जब इंद्रियों की स्वच्छता की बात कर रहे हैं, तो मन की स्वच्छता की बात अपने आप आ गई। इंद्रियां तो वैसा ही देखती-बोलती-सुनती-सूंघती हैं, जैसा मन चाहता है। मन ही सब पापों का बाप है। मन ही मनुष्य का मदिरालय है, और मन ही मनुष्य का मंदिर। तुम्हारा मन मंदिर है, तो तुम्हारी इंद्रियां उस मंदिर की घंटियां और आरतियां हैं । तुम्हारा मन अगर मदिरालय है, तो तुम्हारी इंद्रियां विकृत, उत्तेजित और पियक्कड़ हैं।
मन में वासना का वास है। आदमी बूढ़ा हो जाता है, मन या मन की वासनाएं थोड़े ही बूढ़ी होती हैं। बुढ़ापे में तो वे और जवान हो जाती हैं। जब तुम जवान थे, तो वासना इतनी जवान न थी। जब तुम बूढ़े हुए, तो वासना की अंगीठी और सुलग उठी। जवान थे, तो मन की पूरी भी कर लेते। बूढ़े हो गए, तो हाथ-पैर जवाब दे बैठे, इंद्रियां लाचार हो गईं, मन अकेला ही मातोड़े सांड की तरह इधरउधर सींग मारता है और तुम असहाय पड़े रहते हो। जो मन के पार लग गया, उसका बुढ़ापा सुंदरतर हो गया। मन तो उसके पास भी है, किंतु निर्वाण की आभा उसमें फूट पड़ी है। ओ रे मन! तू पावन हो, सौम्य बन। कब तक दलदल का कीड़ा बना रहेगा?
इंद्रियों की स्वच्छता के लिए चार सूत्र देना चाहता हूं। तीन सूत्र महात्मा गांधी से लेता हूं और चौथा अपनी ओर से देता हूं। आपने गांधी के तीन बंदरों का प्रतीक समझा है-बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो। देखो, मगर बुरा मत देखो; सुनो, मगर बुरा मत सुनो; बोलो, मगर बुरा मत बोलो।, देखो, मगर दर्शनीय को देखो; सुनो, मगर ग्राह्य को सुनो, बोलो, मगर मधुर और संतुलित बोलो। तीन बंदरों से जुड़ा हुआ एक और चौथा बंदर इन तीनों पर बैठाना चाहूंगा, जिसका हाथ अपने मस्तक की ओर है, जो इस बात का प्रतीक है कि बुरा मत सोचो। यह चौथा, किंतु सबसे महत्त्वपूर्ण प्रेरणा है। तुम अगर बुरा नहीं सोचते हो, तो निश्चित मान कर चलो, तुम न बुरा देखोगे, न बोलागे, न सुनोगे, इंद्रियां मन की अभिव्यक्ति हैं। मन से बुराई निकल गई, तो इंद्रियां स्वतः असत् मार्ग की ओर जाने से बच गईं। महावीर ने कहा
एगप्पा अजिए सत्तु कसाया इंदियाणि य। ते जिणित्तु जहा नायं, विहरामि अहं मुणी ॥
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