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अर्थात वह न जागता है, न सोता है। न पलक खोलता है, न बंद करता है। ओह! मुक्त चेतस् की कैसी परम उत्कृष्ट दशा होती है.
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जो विरक्त है, विषयों से उन्मुक्त होकर विहार करता है, निजता में जो सदा आनंदित और तृप्त है, उस मुक्त चेतस् की दशा कैसी उत्कृष्ट है! जिसने जान ही लिया है- 'अहो चिन्मात्रं !' अहो, मैं केवल चैतन्य हूं, उसकी उत्कृष्ट दशा की तुलना किससे की जाए ! वह आत्मस्थित है, फिर भी झरने की तरह निनादित है । वह आकाश की तरह शून्य और निस्पृह है, फिर भी उसके केंद्र से मेघ - पुष्पों की रिमझिम-रिमझिम बारिश हो रही है । वह जन्म-मरण के बीच से मुक्त हो चुका है, फिर भी किसी गुलाब के फूल की तरह प्रफुल्लित और आनंदमग्न है । मुक्त चेतस् व्यक्ति की दशा ही कुछ ऐसी होती है।
मुक्त चेतस् पुरुष न जागता है, न सोता है, न पलक खोलता है, न बंद करता है। वह नैसर्गिक दशा को उपलब्ध हो चुका है। अपनी सहज, सौम्य दशा को उपलब्ध हो चुका है। प्रकृति जिस रूप में पेश होना चाहे, होए। उसके जीवन में जब जो होना है, होए। उसके लंगर तो खुल चुके हैं। अब तो हवाएं जिस ओर ले जाना चाहें, ले जाएं। वह तो दुनियादारी की हर उठा-पटक से ऊपर हो चुका है। उसका अहंकार और कर्ताभाव मिट चुका है। स्वप्न-दशा भी क्षीण हो चुकी है, सुषुप्ति का भी अभाव हो चुका है, उसकी अवस्था तो तुरीय की अवस्था है । तुरीय में व्यक्ति मिट जाता है, व्यक्तिगत चेतना में परमात्म चेतना उजागर हो जाती है । वह मुक्त हो चुका होता है, अतिमुक्त हो चुका होता है।
अष्टावक्र और जनक इस दशा के भुक्तभोगी हैं। उनकी दशा को तो वही जान सकता है, जो स्वयं उनकी दशा को उपलब्ध है । अष्टावक्र ने जनक को संन्यासी बनाया है, सम्राट को संन्यासी ! एक ऐसा संन्यासी, जो राजमहलों में रहे, राज्य का संचालन करे। आखिर ऐसे किसी व्यक्ति से ही राज्य के कल्याण की, उसके श्रेयस् की, न्याय और नैतिकता की उम्मीद की जा सकती है। तुम संन्यासी होने की जल्दी मत करो। वेश-बाना बदलने की जल्दी मत करो । आओ हम ऐसे संन्यासी बनें, जो सबके बीच रहते हुए सबसे निर्लिप्त और निस्पृह रहे । जो राजमहलों में रहकर गुफावासी का लुत्फ उठाए। अपनी ओर से इतना ही निवेदन है ।
नमस्कार ।
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