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________________ पूर्व स्वर. स्वतंत्रता मनुष्य की अंतरतम, निगूढ़तम आकांक्षा है। कारागृह की कल्पना मात्र ही कंपित कर देने वाली होती है। सब कुछ पाकर भी पराधीन हैं, तो वह पाना अर्थहीन है। पराधीनता, यानी एक सीमा-रेखा और स्वतंत्रता, यानी असीम, सीमाओं रहित उन्मुक्त आकाश। स्वतंत्रता का विशुद्धतम रूप ही मोक्ष है। मोक्ष, यानी संपूर्ण मर्यादाओं से, सुख-दुःख से, जप-तप, नियम सबसे मुक्त। तब न पाप है, न पुण्य, न स्वर्ग, न नरक, न जन्म, न मृत्यु। अष्टावक्र रचित गीता मुमुक्ष आत्माओं के लिए एक पावन सौगात है। इसका ध्येय मात्र यही है कि व्यक्ति अपने आंतरिक प्रकाश को उपलब्ध करे। अष्टावक्र की प्रेरणाओं को श्री चन्द्रप्रभ जी ने अत्यंत प्रभावी रूप से हमारे सम्मुख रखा है। 'अष्टावक्र-गीता' महज महर्षि अष्टावक्र और राजर्षि जनक के बीच संवाद नहीं है। श्री चन्द्रप्रभ जी कहते हैं कि यह उन लोगों के लिए अमृत वरदान है, जिनके अंतःकरण में आत्मज्ञान की तीव्र अभिलाषा है। यह वह धर्मशास्त्र है, जो मनुष्य को देह-भाव से उपरत करते हुए उसे आत्मज्ञान पूर्वक जीवन जीने का भाव देता है। यह प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति न करने का बोध देता है। श्री चन्द्रप्रभ जी यह भी कहते हैं कि हम ऐसे दौर से गुजर रहे हैं, जिसमें आदमी के पास प्रसन्नता और प्रमुदितता कम है, पीड़ा और अन्तर्व्यथा ज्यादा है। मुस्कान के भीतर छिपी पीड़ा इतनी गहन हो चुकी है कि अब ध्यान ही आशा की किरण है। अष्टावक्र के सूत्र ध्यान की प्रेरणा हैं, रूपांतरण का आह्वान हैं। ये छोटे-छोटे सूत्र अंतर्जगत के परिवर्तन और जागरण के लिए क्रांति-बीज हैं। कृष्ण की गीता में जहां समन्वय का गहरा आग्रह है, वहीं ‘अष्टावक्र-गीता' में सत्य की अधिक चिंता है। इसी वजह से अष्टावक्र की गीता सत्य का Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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