________________
होने लगता है। शास्त्र से तर्क और वितर्क का विकास होता है; भ्रम और संशय की शुरुआत होती है; पांडित्य का प्रादुर्भाव होता है, जो आदमी के अहंकार में इजाफा करता है। निर्विचार की स्थिति को उपलब्ध व्यक्ति के लिए विचार का कोई अर्थ नहीं है। इस स्थिति में प्रवेश पाने के लिए आदमी को विचारों से, पांडित्य से और हर तरह की दलीलों से अलग हो जाना पड़ता है, क्योंकि ज्ञान के विस्मरण में ही मुक्ति की संभावना छिपी हुई है।
आदमी चाहे विचारों का संग्रह करे, चाहे धन का संग्रह करे या ज्ञान का संग्रह करे, संग्रह तो आखिर संग्रह ही कहलाएगा। जब धन का संग्रह त्याज्य है, मानसम्मान और यश का संग्रह त्याज्य है, तो फिर विचारों का, ज्ञान का संग्रह ग्राह्य कैसे हो सकता है? एक साधक के लिए जरूरी है कि वह ज्ञान से भी मुक्त हो जाए; जिस पुस्तक, मत, सिद्धांत अथवा पक्ष का आग्रह है, उन सबसे अपने आपको अलग कर ले।
मैं जब संन्यस्त जीवन में आया, तो मैंने चाहा कि मैं दुनिया भर के शास्त्रों का अध्ययन करूं। मैंने आठ-नौ वर्ष सुबह चार बजे से रात्रि ग्यारह बजे तक केवल शास्त्रों के पठन, मनन और स्वाध्याय में लगाए। जब नौ वर्ष बीत गए, तो दुनिया की बहुतेरी किताबें मैं पढ़ चुका था। इतनी-इतनी किताबों को पढ़ने के बावजूद मेरी अंतरात्मा ने मुझे झकझोरा कि यह ज्ञान तो उधार का ज्ञान है, किताबी ज्ञान है। तुम्हारा अपना ज्ञान कौन-सा है? जितना तुमने पढ़ा है, क्या उसका अंश-दो अंश भी तुम्हारा अपना अनुभव बना है? तुम दुनिया को कहते फिरते हो कि आत्मा का कल्याण करो, पर क्या तुमने अपने आप से आत्मा को जाना है? अगर तुम स्वयं ही उस आत्मा का अनुभव नहीं कर पाए हो, तो तुम्हें किसी को भी यह कहने का अधिकार नहीं है कि तुम एक आत्मवान हो, अपनी आत्मा का कल्याण करो। तब अंतर्धारा मुड़ी, चेतना की दिशा एवं दशा बदली और पहला काम यह किया कि दिमाग के कचरे को साफ किया।
निश्चित तौर पर शास्त्र उपयोगी हैं, हर शास्त्र लक्ष्यपरक है। शास्त्र मार्ग दिखाते हैं। तुम मार्ग को जान लो और उसके बाद उसे ऐसे ही किनारे रख दो, तब अपने दिमाग को शून्य, नितांत रिक्त करने का प्रयास प्रारंभ किया जाए। केवल एक ही प्रयास कि जो-जो भीतर भरा है, उसे किनारे किया जाए; व्यामोह-आसक्ति से अपने आपको अलग किया जाए। जैसे-जैसे अपने आपको बाह्य अनुभवों से खाली किया, शास्त्रों और किताबों से अर्जित ज्ञान से रिक्त किया कि आश्चर्य घटित हुआ। जैसे बादलों के छंटते ही सूरज प्रकट हो जाता है, वैसे ही व्यक्ति का अपना ज्ञान व्यक्ति के भीतर मुखर हो जाता है।
112
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org