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________________ मालिक बनें मन के हर्षि अष्टावक्र और राजर्षि जनक के साथ हम सभी जीवन और अध्यात्म के सागर में धीरे-धीरे गहरे उतरते जा रहे हैं। अष्टावक्र-गीता हमारे सामने आत्मज्ञान की रश्मियों को उजागर कर रही है। न केवल आत्मज्ञान की रश्मियों को ही, एक आत्मज्ञानी व्यक्ति का दृष्टिकोण कैसा होना चाहिए; उसका जीवन और जीवन-शैली कैसी होनी चाहिए?-इसके बारे में भी यह अष्टावक्र-गीता कई दीप-शिखाएं जला रही है, कई मील के पत्थर स्थापित कर रही है। ___ दुनिया में दो तरह के शास्त्र होते हैं। पहले प्रकार के शास्त्र त्याग, क्रिया ओर आराधना के बारे में दिशा-निर्देश देते हैं। दूसरी श्रेणी में अष्टावक्र-गीता आती है, जो मनुष्य को न तो त्याग की प्रेरणा देती है और न ही क्रिया और आराधना की। यह तो वह धर्मशास्त्र है, जो मनुष्य को देह-भाव से उपरत करते हुए उसे आत्मज्ञानपूर्वक जीवन जीने का भाव देता है, एक ऐसा भाव कि व्यक्ति संसार में रहते हुए भी संसार में न रहने जैसा होता है। यह न तो प्रवृत्ति करने की प्रेरणा देता है और न ही प्रवृत्ति से पलायन करने की। यह प्रवृत्ति करते हुए भी प्रवृत्ति न करने जैसी स्थिति देता है। महावीर पूरी तरह निवृत्ति का मार्ग बताते हैं; चार्वाक पूरी तरह प्रवृत्ति का मार्ग बताते हैं। अष्टावक्र एक अलग दर्शन, एक ऐसी जीवन-दृष्टि पैदा करना चाहते हैं, जहां आदमी संसार में रहते हुए भी संसार में न रहने जैसा हो जाए, कीचड़ में रहते हुए निर्लिप्त हो जाए। अष्टावक्र ने एक बार भी यह नहीं कहा कि जनक तुम संन्यासी हो जाओ। वे तो निरंतर यही कहते रहे कि तुम ऐसे संन्यासी बनो, जो गृहस्थ में रहते हुए भी संन्यस्थ-जीवन जीए; तुम ऐसे सम्राट बनो, जो सम्राट भी हो और संन्यासी भी हो। ऐसा गौरव, ऐसी महिमा, जीवन की ऐसी शैली शायद अप्टावक्र के सिवा कोई गार न दे पाया। संसार में रहना, साम्राज्य का संचालन करना परिवार के बीच जीना मनुष्य के लिए कभी भी घातक नहीं होता। घातक होता है जव समय शुभ और अशुभ, पाप और पुण्य के अंतर्द्वद्र में अपने जीवन की व्यवस्थाओं को उलझा देता है। 97 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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