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________________ के द्वारा होने वाला युद्ध भी अयुद्ध का ही रूप हुआ। यह बहुत गहरी बात है। जिस आदमी ने अपने आपको जान लिया है, वह चलता है, लेकिन चलते हुए भी उसको यह नहीं लगता कि मैं चल रहा हूं; वाणी बोलती है, मैं थोड़े ही बोलता हूं, शरीर को भूख लगती है, मुझे थोड़े ही भूख लगती है। जिसने अपने आपको पंचमहाभूतों से पृथक जान लिया है, वह सब कुछ करते हुए भी सबसे निर्लिप्त बना रहेगा। अपने कर्ता-भाव को परमात्मा के चरणों में सौंप दो, तो प्रकृति आपके जीवन की व्यवस्थाएं इतनी सहजता से करती चली जाएगी, जितनी कि आप श्रमपूर्वक भी नहीं कर पा रहे हैं। फिर जीवन में कर्म तो होंगे, क्रियाएं तो होंगी, मगर कर्म का भाव तुम पर हावी नहीं होगा। रात को जब तुम सोओगे, तो बड़ी चैन की नींद होगी, सुबह जगोगे तो नए जीवन में, नए संसार में आपका प्रवेश होगा। जनक आत्म-स्थित हैं। वे अपनी ओर से अनासक्त हो चुके हैं; निर्लिप्त हो चुके हैं; आत्मज्ञान में स्थित होकर वे स्वयं अपने साक्षी बने हैं; अपनी देह के, अपने विचारों के, अपने कर्म और अपने विषयों के। वे रस, गंध, स्पर्श सारे इंद्रिय-विषयों के साक्षी भर बनकर दुनिया में जीने का प्रयास कर रहे हैं। जिसने साधनों से क्रिया रहित स्वरूप पाया है, वह कृतकृत्य है और जो स्वभाव से ही स्वभाव वाला है, वह तो कृतकृत्य है ही, इसमें कहना ही क्या! ऐसे लोग कुलयोगी होते हैं। पूर्वजन्म से साधना करते आए, साधना स्वभाव में थी, वह स्वभाव से ही स्वभावस्थ रहा। मार्ग चाहे जो अपनाया जाए, चाहे स्वभावमूलक हो या क्रियामूलक-ज्ञान दोनों के लिए आवश्यक है। जीवन ज्ञान का प्रकाश-पुंज बने, ज्ञान की परछाई बने। आज अपनी ओर से इतना ही निवेदन है। 96 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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