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________________ उपरत हो चुका हूं। त्याग तो आदमी तब करेगा, जब वह समझेगा कि संसार बुरा है और ग्रहण तब करेगा, जब उसे यह अहसास होगा कि संसार अच्छा है। अष्टावक्र के लिए तो अच्छे और बुरे का विकल्प ही चला गया, भाव ही चला गया। __ ये परम वीतरागता के सूत्र हैं, राग और वैराग्य के सूत्र नहीं । राग से भी ऊपर, वैराग्य से भी परे । ये सूत्र न केवल संसार से ऊपर उठने के सूत्र हैं, वरन् संन्यास से भी ऊपर उठ जाने के सूत्र हैं। अगला सूत्र है कुत्रापि खेदः कायस्य, जिह्वा कुत्रापि खिद्यते। मनः कुत्रापि तत्त्यक्त्वा, पुरुषार्थे स्थितः सुखम् ॥ जनक कहते हैं कि कहीं तो शरीर का दुख है, कहीं जिहा दुखी है, कहीं मन दुखी होता है। मैं तो तीनों को त्यागकर पुरुषार्थ में, आत्मानंद में सुखपूर्वक स्थित ___ जनक ने कहा कि कहीं तो शरीर का दुख है, तो कहीं वाणी का दुख है और कहीं मन का दुख है। शरीर में दुख ही दुख हैं। ऐसा कोई क्षण नहीं आता, जब धरती पर रहने वाला जीवन अपने आपको दुख से मुक्त महसूस करता हो। दुख के रूप बदल जाते हैं-कभी वाणी का दुख मन का दुख बन जाता है; कभी मन का दुख शरीर का दुख बन जाता है, लेकिन दुख जारी है, प्राणि मात्र में दुख की धारा पल-प्रतिपल गतिशील है। तो क्या संसार में दुख-ही-दुख हैं। सुख का कोई आधार नहीं है? सुखी वह है, जो तटस्थ रहता है; आत्मस्थित रहता है; स्थितप्रज्ञ बना हुआ रहता है; अनुकूल और प्रतिकूल-दोनों ही स्थितियों में जो सदा-सदा प्रसन्न और मस्त रहता है। ___ आत्मज्ञानी व्यक्ति हर कदम सोच-समझकर रखता है। वह हर क्षण इस बात का स्मरण रखता है कि दुनिया में सब कुछ क्षणभंगुर है। इसके बावजूद संभव है कि कभी-कोई संस्कार की तरंग उठे, कर्म की प्रवृत्ति, चित्त की वृत्ति ऐसी आ जाए जो व्यक्ति के जलते हुए दीये पर हवा का एक झोंका दे जाए। चूक इनसान से ही होती है। इनसान वही कहलाता है, जो दूसरे की भूल को अनदेखी कर दे, उसे क्षमा कर दे। ऐसा व्यक्ति सदा प्रसन्न रहता है, सदा-सदा मस्त रहता है। सुबह जब उठे, तो दस सैंकंड जी-भर कर मुस्कराएं, सारा दिन मुस्कराहट में बीतेगा। रात को सोने के पहले भी यही क्रम दोहराएं, रातें मीठी नींद से गुजरेंगी। भगवान करे आपका दिन भी मुस्कान से भरा हो और रातें भी मुस्कान से लबरेज। कितना सरल सूत्र है-मुस्कान ही मुक्ति है। आज के लिए अपनी ओर से इतना ही निवेदन है। नमस्कार ! 100 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003867
Book TitleNa Janma Na Mrutyu
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandraprabhsagar
PublisherPustak Mahal
Publication Year2003
Total Pages130
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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